October 16, 2022

ज्ञात और अज्ञात

अज्ञात भय और अज्ञात का भय

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इस दृष्टि से मनुष्य (और सभी जड-चेतन प्राणिमात्र भी) ईश्वर से अधिक शक्तिशाली है कि वह ईश्वर को त्याग सकता है, किन्तु ईश्वर उसे नहीं त्याग सकता। 

किन्तु यह भी इतना ही बड़ा एक और सत्य है कि मनुष्य उसी वस्तु को त्याग सकता है, जिसे कि वह किसी न किसी रूप में जानता भी अवश्य हो। जिसे जानता ही नहीं उसके अस्तित्व को वह अस्वीकार तो कर सकता है, लेकिन इससे यह तो नहीं सिद्ध होता कि उसका अस्तित्व है ही नहीं! फिर यह भी सत्य है, कि कोई वस्तु है या नहीं, इसे तर्क एवं उदाहरण की सहायता से भी सुनिश्चित किया जा सकता है। ईश्वर के बारे में पहली कठिनाई तो यह है कि उसे जानने का आधार भी मान्यता, अनुमान और विचार और ही हो सकता है, न कि प्रयोग, जिससे यह प्रमाणित किया जा सके कि वह है, या नहीं है। अर्थात् अन्य सभी वस्तुओं की तरह ईश्वर प्रयोग का विषय नहीं हो सकता है। प्रयोग केवल इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, भावगम्य और अनुभव, बुद्धि से जानी जा सकनेवाली वस्तुओं के संबंध में किया जा सकता है, और प्रयोग करने के लिए किसी न किसी काल्पनिक विचार को तात्कालिक रूप से पहले औपचारिक (tentative) सत्य की तरह स्वीकार करना होता है। फिर इसके बाद ही प्रयोग द्वारा उस विचार की सत्यता या असत्यता सिद्ध हो सकती है, और उसे ही प्रयोग का निष्कर्ष कहा जाता है।पुनः ईश्वर को किसी प्रयोग के निष्कर्ष के रूप में जानना भी इसलिए भी संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई प्रयोग जिस विचार से प्रेरित हो सकता है, वह विचार भी स्मृति से ही उत्पन्न और स्मृति में सुरक्षित बौद्धिक स्मृति मात्र होता है। पहचान स्मृति है, और स्मृति ही पहचान है, क्योंकि स्मृति और पहचान दोनों ही परस्पर आश्रित एक विचार मात्र होता है। इस दृष्टि से समस्त बौद्धिक ज्ञान केवल सूचना (information / data) के ही रूप में सीमित होता है और उस सूचना से परे के बारे में वस्तुतः कुछ भी कदापि नहीं जाना जा सकता। ईश्वर के बारे में हमारे पास इसीलिए ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि वह है या कि नहीं है। इस दृष्टि से हम इतना ही कह सकते हैं कि ईश्वर को जान पाना मनुष्य की बुद्धि की क्षमता और सामर्थ्य से परे है। इस प्रकार, ईश्वर ज्ञात और अज्ञात भी है। ईश्वर को इस दृष्टि से ज्ञात कहना इसलिए उचित होगा क्योंकि समस्त ज्ञात किन्हीं अत्यन्त सुनिश्चित नियमों से परिचालित है, और इसी मौलिक मान्यता को आधार मानकर विज्ञान उन नियमों को आविष्कृत (discover) करता, और उन नियमों में सुसंगति (pattern) स्थापित कर अकाट्य रूप में उन्हें स्थापित कर सत्य कहता है। तात्पर्य यह, कि ये सभी नियम संगठित (compact) विधान (constitution) के रूप में सदा से अस्तित्व में हैं और उनका विधाता उनसे पूरी तरह से अभिन्न है। वह विधायी चेतना, जो कि विधाता (authority) और विधान (constitution) भी है, एकमेव अनन्य और आधारभूत सत्य है। किन्तु वह इस अर्थ में ज्ञानस्वरूप भी है, कि उसके सन्दर्भ में ज्ञाता (knower) और ज्ञात (known) एक दूसरे से वैसे भिन्न नहीं हैं जैसा कि समस्त सांसारिक तथाकथित ज्ञान और तथाकथित विज्ञान में भी अनिवार्यतः पाया जाता है। यदि इसे ईश्वर कहा जाए, तो भी यह ईश्वर के बारे में एक निष्कर्ष ही होगा, न कि ईश्वर का वैसा प्रत्यक्ष ज्ञान, जैसा कि वह वस्तुतः है। नियन्ता या विधाता कहते ही 'कहनेवाला' उससे पृथक् और भिन्न प्रतीत होता है, जबकि कहनेवाला 'यह' भी उससे ही परिचालित होने से, 'यह' और वह वस्तुतः एक दूसरे से अनन्य और अभिन्न भी हैं।

भय क्या है? भय, हमें अपने से भिन्न प्रतीत होनेवाली ही किसी न किसी वस्तु से हुआ करता है। वह कोई वस्तु ज्ञात या अज्ञात हो सकती है। जैसे पहले के किसी अप्रिय अनुभव की स्मृति से उत्पन्न होनेवाला भय, या भविष्य में किस अप्रिय घटना के होने की संभावना की कल्पना से उत्पन्न होनेवाला भय। अतीत और भविष्य नहीं, बल्कि उनकी कल्पना ही भय के उत्पन्न होने का एकमात्र कारण होता है। कल्पना के ही अनुसार वे अतीत और भविष्य भी हमसे अभिन्न भी और भिन्न प्रतीत होते हैं। इसीलिए इस प्रकार से उन्हें ज्ञात और अज्ञात भी कहा जा सकता है। 

क्या इसी प्रकार से, ईश्वर भी हमारे लिए एक ही साथ ज्ञात और अज्ञात भी नहीं है? क्या ईश्वर भी अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना की ही तरह, एक ही साथ हमसे भिन्न और अभिन्न भी नहीं है? 

किन्तु ईश्वर एक ही साथ हमसे भिन्न और अभिन्न होता हो, यह कैसे संभव है? इसके लिए हमें अपने और ईश्वर में उभयनिष्ठ समानताओं और असमानताओं या भिन्नताओं पर ध्यान देना होगा। ईश्वर विधाता और विधायी चेतना है, जब कि हम उसके विधान से परिचालित चेतनामात्र हैं। चेतना हममें और ईश्वर के बीच विद्यमान उभयनिष्ठ समान तत्व (common element) है। किन्तु ईश्वर हमारी कल्पना, स्मृति, भावनाओं, विकार, बुद्धि आदि तत्वों से नितान्त अछूता और अनभिज्ञ भी है। चेतना की ही तरह, निजता और नित्यता भी ईश्वर में और हममें विद्यमान उभयनिष्ठ वास्तविकता है। इसलिए किसी दृष्टि से तो हम ईश्वर से अनन्य और अभिन्न हैं, तथा दूसरी किसी दृष्टि से भिन्न और पृथक भी हैं। इस विरोधाभास को न समझ सकना ही किसी भी प्रकार के भय का एकमात्र कारण होता है।

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