कला, कल्पना, आकलन, और कल
-------------------©------------------
जिसे कल कहा जाता है वह विगत दिन हो या भावी, आगामी आनेवाला दिन, कल्पित, स्मृति पर आधारित और भावी के रूप में पुनः होनेवाला उसका संभावित प्रकार जो आज अर्थात् अज, अजन्मा, आदिरहित अनादि और अन्तहीन अनन्त वर्तमान है। यही सर्वत्र और नित्य सदा विद्यमान अस्तित्व है। चारों युगों का इसी वर्तमान में सह-अस्तित्व है, किन्तु शरीर, मन, बुद्धि और संस्कारों के अनुसार मनुष्य अपने समय को उस युग विशेष के रूप में ग्रहण कर लेता है। मनुष्य की निज आत्मा में चारों युग एक साथ काल और स्थान से परे होते हुए भी इन्हीं के रूप में नित्य प्रकट और अप्रकट (होते रहते) हैं।
कथा सतयुग की :
मनुष्य की यह आत्मा इस आभासी समय में, जब सतयुग होता है, राजा हरिश्चन्द्र होती है। हरि अर्थात् हरण करनेवाला । मनुष्य की चेतना जो मूलतः ईश्वरीय चेतनारूपी प्रकाश की एक किरण है, देहधारी होकर इस संसार में जन्म लेती है। संसार-रूपी इस अंधकारपूर्ण रात्रि में वह वैसे ही सुशोभित होती है, जैसे रात्रि में चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश चुराकर संसार में उसे विकीर्ण करता है। चन्द्रमा के साथ कोई तारा ही उसकी गति का सूचक होता है। मनुष्य ही राजा हरिश्चन्द्र है, जिसकी बुद्धि तारारूपी होकर उस अंधकारपूर्ण रात्रि में उसका मार्गदर्शन करती है। राजा हरिश्चन्द्र की यही बुद्धि अर्थात् मति, रानी तारामति या तारामती है। राजा स्वप्नावस्था में देखते हैं, अर्थात् कल्पना करते हैं कि उनके महल के द्वार पर कोई अतिथि साधु आया हुआ है। वे उसका स्वागत करने के लिए द्वार पर जाते हैं।
"राजा! मैं तुमसे दान ग्रहण करना चाहता हूँ। बोलो, क्या तुम मुझे मेरी इच्छा के अनुसार दान देने में समर्थ हो!"
राजा विनम्रता से निवेदन करते हैं :
"महाराज! यह सब आप ही का है! मैं अपना यह संपूर्ण राज्य आपको दान में देता हूँ!"
साधुवेश में आए ऋषि विश्वामित्र हँसकर कहते हैं :
"राजा! अभी तो तुम सोए हुए हो और स्वप्न देख रहे हो! वचन दो कि जब तुम्हारी निद्रा टूट जाएगी, जब तुम जाग उठोगे, और जब तुम राजदरबार में अपने सिंहासन पर विराजमान होगे, तब मेरे द्वारा पुनः तुम्हारे समक्ष उपस्थित होने और तुमसे दान माँगे जाने पर तुम्हें इस वचन का विस्मरण नहीं होगा!"
"मुझे ऐसा विस्मरण कदापि नहीं होगा, मैं वचन देता हूँ!"
"तुम्हारा कल्याण हो!"
कहकर साधुवेश में आए ऋषि विश्वामित्र अन्तर्धान हो गए और राजा की निद्रा भी भंग हो गई।
यह विश्वामित्र कौन हैं? वे समस्त संसार का कल्याण करनेवाले समस्त संसार के मित्र ही हैं, जो पात्र मनुष्य को उसके कल्याण का वास्तविक मार्ग दिखाते हैं।
अभी राजा नित्यकर्म से निवृत्त होकर अपने दरबार में आकर अपने सिंहासन पर विराजमान हुए ही थे जब प्रहरी ने आकर उनसे निवेदन किया :
"महाराज की जय हो! कोई अतिथि साधु द्वार पर उपस्थित हुए हैं! इस विषय में आपका क्या आदेश है?"
राजा को तत्क्षण ही वह स्वप्न याद आ गया, और वे उठ खड़े हुए। द्वार पर आते ही उन्हें स्पष्ट हो गया कि यह वही साधु हैं, जिनका स्वप्न में उन्हें दर्शन हुआ था।
उन्होंने अतिथि साधुवेशधारी ऋषि विश्वामित्र को साष्टांग प्रणाम किया, सम्मानपूर्वक उन्हें भीतर ले जाकर आसन प्रदान किया, विधिपूर्वक उनकी पूजा-सत्कार करने के पश्चात् वे उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगे।
"राजा! तुम्हें स्मरण है न कि स्वप्न में तुमने मुझे कौन सा वचन दिया था?"
"जी महाराज! मुझे भली प्रकार से याद है। मेरे लिए क्या आदेश है, कृपया कहिए!"
"राजा! तुम्हारे सत्य पर दृढ रहने के, और अपने द्वारा दिए गए वचन को पूर्ण करने के संकल्प से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैं दान में तुमसे तुम्हारा संपूर्ण राज्य प्राप्त करना चाहता हूँ। बोलो अपना वचन पूरा करोगे?"
राजा ने क्षण भर का भी विलंब न करते हुए कहा :
"महाराज! आपकी कृपा है, यह संपूर्ण राज्य बिना प्रतिदान की अपेक्षा किए, मैं आपको दान में दे रहा हूँ। यह मेरा संकल्प है।"
"तुम धन्य हो राजन्! तुम्हारा कल्याण हो।"
राजा हरिश्चन्द्र ने अपने मंत्रियों और सभासदों आदि को सूचना दी कि अब मैंने यह राज्य ऋषि विश्वामित्र को दान में दे दिया है और अब से वे ही इस राज्य के नृप और आप उनकी प्रजा होंगे। इसके पश्चात राजा अपनी प्रिय पत्नी तारामती और पुत्र रोहित को लेकर राज्य को त्यागकर वन को चले गए।
राजा का नाम हरिश्चन्द्र और उनकी रानी का नाम तारामती तो हमें ज्ञात ही है,उनके पुत्र का नाम था रोहित, जो ऋग्वेद-वर्णित भुवन-भास्कर भगवान् सूर्य हैं। सूर्य, जिन्हें उपनिषद् जगदात्मा कहते हैं। भू से भुवः तक की यात्रा यह है।
मनुष्य की आत्मा जो पृथ्वी पर देहधारी राजा हरिश्चन्द्र के रूप में अवतरित हुई, तब संसार को त्याग कर वन में विचरण करने लगी। राजा हरिश्चन्द्र, रानी तारामती, और पुत्र रोहित।
वे वन के फल फूलों का सेवन करते हुए, तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे। आत्मा और परमात्मा की जिज्ञासा, चिन्तन, मनन और निदिध्यासन करने लगे।
आत्मा और परमात्मा के विषय में जिज्ञासा जागृत होने से पहले उनके मन में प्रश्न उठा :
'मन क्या है?'
तब उन्होंने इस पर मनन करना प्रारंभ किया।
"मन का अर्थ है चेतना की गतिविधि।"
उन्हें अपने ही भीतर अनायास यह स्पष्ट हुआ।
चेतना नित्य अविकारी अनादि और अन्तरहित वास्तविकता है, जबकि मन असंख्य शरीरों में उसका प्राणरूपी प्रकाश है। जैसे सूर्य का प्रकाश पूरे संसार को आलोकित करता है, वैसे ही इस अविकारी, नित्य चेतनारूपी सूर्य का प्राणरूपी प्रकाश शरीर के भीतर आभासी आत्मा (मैं-संकल्प) का रूप ग्रहण कर मनुष्य के अंतर्जगत् और अंतर्बाह्य जीवन को भी आलोकित करता है। "और मनन का अर्थ है धारणा :
-मन में किसी विषय को सम्यक धारण करना।"
तब, "नित्य क्या है, और अनित्य क्या है? इस पर उन्होंने मनन प्रारंभ किया।
नित्य विद्यमान प्रकट-अप्रकट, अविनाशी और अविकारी काल-स्थान निरपेक्ष चेतना पर ध्यान एकाग्र होने पर वे उस नित्य वस्तु में समाधिस्थ होने लगे जो, अत्यन्त निज है और जो कि समस्त भूतों की अपनी स्वाभाविक अन्तर्निष्ठा ही है।
तब उन्हें अपने नाम हरिः का गूढ अर्थ स्पष्ट हुआ।
हरति इति हरिः हरो वा...
जो हरण करता है वही हरि (विष्णु) या हर (शिव) है।
उस नित्य चेतन परमात्मा का ध्यास ही निदिध्यासन है, यह भी उन्हें स्पष्ट हुआ। रानी तारामती पतिव्रता धर्म का आचरण करते हुए पति की सेवा को ही एकमात्र कर्तव्य मानकर उस निष्ठा में दृढ थी। एक दिन बालक रोहित फूल चुनने समीप के उपवन में गया तो वहाँ सर्पदंश से वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
मृत्यु को प्राप्त होकर उसने यमराज के दर्शन किए और मृत्यु के विज्ञान का उपदेश उनसे ग्रहण किया ।
इसका ही एक उदाहरण कठोपनिषद् की मूल कथा में वाजश्रवा या उशना / उशन् के पुत्र नचिकेता के यमराज से हुए संवाद में दृष्टव्य है।
तात्पर्य यह कि मनुष्य की आत्मा यद्यपि अविकारी, अविनाशी नित्य शुद्ध बोधस्वरूप चेतना ही है, किन्तु जड देह में उसका प्रकाश व्यक्ति-भावना रूपी अहंकार के रूप में उसका पुत्र है। जब आत्मानुसंधान या मृत्यु के रहस्यमय विज्ञान के माध्यम से मनुष्य आत्मा के विषय में जानना चाहता है और गंभीरतापूर्वक इस दिशा में प्रवृत्त होता है तो यह अहंकार विलीन हो जाता है और अपनी केवल शुद्ध चिरंतन नित्य निज आत्मा का उद्घाटन होता है।
इस कथा को यहीं समाप्त करना उचित जान पड़ता है।
***
No comments:
Post a Comment