क़िताब दर क़िताब / सोचता हूँ मैं!
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कविता 04-10-2022
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सफ़े पलटते पलटते रुक गया हूँ,
क्या कोई अध्याय पूरा हो रहा है?
लगता है जैसे कि यह तो अन्त है,
क्या कोई नया भी खुलने जा रहा है?
एक ही क़िताब तो होती नहीं!
एक ही क़िताब तो काफी नहीं,
कोई रुक जाता है कैसे एक पर,
जो नहीं रुकता, उसे माफ़ी नहीं!
दस्तूर क्या यह बदलना चाहिए?
क्या नई क़िताब होनी चाहिए?
क्या नए उनवान, इबारतें नईं,
क्या नए पैग़ाम, या संदेसे नए,
क्या नई कुछ बात होनी चाहिए?
क्या पुरानी को बदलना चाहिए?
वो अड़े हैं अपने इस इसरार पर,
वो डटे हैं करने को, तक़रार पर,
क्या कोई तबदीली होनी चाहिए,
या इबारत पुरानी ही होनी चाहिए?
सच अगर कभी बदल सकता नहीं,
लफ्ज़ो लहजा क्या बदलना चाहिए,
अलग अलग जुबाँ अगर सबकी है,
सच का मतलब भी बदलना चाहिए?
न्याय तो है यह कि सच की जीत हो,
क्या कभी अन्याय होना चाहिए?
क्या कोई क़िताब बदलनी चाहिए,
क्या नया अध्याय खुलना चाहिए?
क्या है कोई लिख सके ऐसा नया!
क्या है कोई कर सकेगा सच बयाँ,
क्या कोई सच नया होना चाहिए!
क्या नई क़िताब लिखना चाहिए?
सोच का सच, क्या है सच का सोच?
सच का सोच, ही है क्या सोच का सच,
सोचते सोचते अब थक गया हूँ मैं,
क्या नया सोच मिलने जा रहा है?
क्या नया अध्याय खुलने जा रहा है?
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