कविता : 11-10-2022
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अस्तित्व एक नदी!
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इस नदी में जल नहीं है,
नाव कैसे जा सकेगी!
तैर भी सकते हो कैसे,
पार कैसे जा सकोगे!
रेत ही है, रेत इसमें,
रेत पर पदचिह्न भी,
सतत बनते मिट रहे,
कैसे उन पर चल सकोगे!
इस नदी की रेत में,
मृत सीप, घोंघे, शंख भी हैं,
मोती, प्रवाल, पद्मराग,
माणिक अमूल्य रत्न भी हैं,
कहते हैं यह स्वर्णरेखा,
इसमें स्वर्ण की धूलि भी है!
खोजनेवालों को इसमें,
अवश्य ही वह मिली भी है!
किन्तु पाकर उन सबको भी,
क्या प्यास तुम बुझा सकोगे!
दूर तक फैली है सरिता,
शुष्क सूखी रेत की,
कभी तपती, कभी चुभती,
भूमि भूखी, है खेत की,
इस भूमि में जल कहाँ है,
फ़सल क्या उगा सकोगे!
बीज भी हों पास लेकिन,
फल कोई क्या पा सकोगे!
रेत के विस्तार में,
क्या चलोगे, कहाँ तक,
रेत ही बस रेत है,
दृष्टि जाती है, जहाँ तक!
दूर देता है दिखाई,
खूब जल बहता हुआ,
और नभ है प्रतिबिम्बित,
जिसमें चमकता हुआ!
जितना चलोगे उतना ही,
वह दूर ही जाता हुआ,
मृग-मरीचिका यह जिसमें,
मृग प्यास से मरता हुआ!
प्यास मन-मृग की अपने,
कैसे तुम बुझा सकोगे!
रेत के सागर से कैसे,
पार लेकिन जा सकोगे!
ठहर जाओ रेत की ही,
थाह निचली खोज लो,
यहीं पर इस भूमि को,
इतना गहरा खोद लो,
इसके नीचे ही छिपा है,
अथाह जल, गूढ गहन,
जो तुम्हारी प्यास का,
कर सकेगा नित्य शमन!
धैर्य पर थोड़ा रखो,
और प्रतीक्षा भी थोड़ी,
यही तो एक है रास्ता,
चिर शान्ति का, विश्रान्ति का!
और इस के सिवा कोई,
हल कोई क्या पा सकोगे!
पार कैसे जा सकोगे!
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