October 30, 2022

सोचता हूँ, लिख ही दूँ!

कला और आस्था / विश्वास 

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अमृता प्रीतम -- इस सुप्रसिद्ध नाम के आगे-पीछे कुछ लगाना अनावश्यक ही है। वैसे मैंने इनका जितना भी साहित्य पढ़ा है वह सब केवल हिन्दी में ही पढ़ा है! यह अलग बात है कि उनके लेखन में बहुत से उर्दू के शब्द भी अनायास पढ़ने को मिले। उनके बारे में जो कुछ भी पढ़ा वह एक हद तक विवादास्पद भी था। उनकी लिखी हुई जो भी दो तीन किताबें मैंने पढ़ीं, उनमें से "जेबकतरे", "एक खाली जगह" और "अक्षर-कुण्डली" ख़ास तौर पर मुझे याद हैं। जैसा कि मुझे याद है, शायद उनका संबंध "नागमणि" नामक किसी पत्रिका या किताब से भी रहा होगा।

अक्षर-कुण्डली नामक पुस्तक रहस्यपूर्ण / आध्यात्मिक विषयों और इन विषयों के विशेषज्ञों से की हुई उनकी बातचीत का ही एक संकलन है। इस बातचीत में विवादास्पद जैसा कुछ पाया जाना स्वाभाविक भी है, जिससे पुस्तक में उल्लिखित विषयों के वर्णन की प्रामाणिकता पर प्रश्न भी उठाए जा सकते हैं, किन्तु इस बारे में अंत तक कुछ सुनिश्चित नहीं कहा जा सकता है कि वह सब कितना और किस हद तक सत्य है! 

देवी-देवताओं के चित्रों के बारे में उस पुस्तक में एक महत्वपूर्ण बात यह कही गई है कि विज्ञापनों में इन चित्रों का जैसा प्रयोग किया जाता है वह अनुचित है। एक वाक्यांश है :

"समय के साथ ये तस्वीरें रुल जाती हैं।"

यह घटना इसलिए याद आई और जैसा कि दिखाई भी देता है, बहुत समय से, बहुत सी वस्तुओं, खासकर पूजा आदि सामग्री पर प्रायः ही किसी न किसी देवता आदि का नाम और चिह्न भी चित्र के साथ, या वैसे ही प्रदर्शित किया जाता है। 

क्या हमने कभी सोचा है, की उस सामग्री के उपयोग के बाद उस चित्र का क्या होता है?

किसी भी विशिष्ट पर्व पर पत्रिकाओं और अख़बारों में बड़े बड़े ऐसे विज्ञापन देखे जा सकते हैं, जिनमें देवी-देवताओं के बहुत बड़े बड़े चित्र होते हैं। अतः यह तो अवश्य ही विचारणीय है कि इन अख़बारों को रद्दी में खरीदने-बेचने से हमारी भावनाओं को ठेस क्यों नहीं लगती?

अभी एक चित्रकार मित्र ने ऐसा ही एक चित्रांकन किया। मन में प्रश्न उठा कि क्या यह कला है, धर्म, उपासना, साधना आदि है? जैसी कि परंपरा है, खासकर हिन्दू देवी-देवताओं के पर्वों और उत्सवों पर उनकी प्रतिमाएँ बनाई जाती हैं, और बाद में, उत्सव संपन्न हो जाने पर उन प्रतिमाओं को विसर्जित कर दिया जाता है। उन मित्र की उस कलाकृति का मूल्यांकन अवश्य ही अलग अलग दृष्टियों से किया जा सकता है। केवल कला की दृष्टि से, धार्मिक भावना की दृष्टि से और इस भावना से प्रेरित होकर उसे क्रय करने के इच्छुक लोगों की दृष्टि से भी इसका मूल्य लगाया जा सकता है। चित्रकार के मन में क्या है यह तो उसे ही पता हो सकता है। किन्तु क्या उसके मन में असमंजस नहीं होता होगा? शायद यह भी एक प्रश्न है, कि क्या ऐसी प्रतिमा का बाजार की किसी वस्तु की तरह कोई मूल्य तय किया जा सकता है? मन में यह प्रश्न भी आया कि क्या चित्र को कला की दृष्टि से, धार्मिक या आध्यात्मिक भावना की दृष्टि से भी नहीं देखा जाता है?

उस चित्रकार मित्र ने शायद ही इस तरह की कल्पना की हो, यह उसके लिए संभव ही नहीं हुआ होगा कि इस तरह से इस बारे में वह सोच सके। आस्था और कला के बारे में उसने शायद ही इस प्रकार से कभी कल्पना भी की होगी। और मैं इस  विषय में यदि अपने विचार उसके समक्ष स्पष्ट करूँ भी तो यह भी हो सकता है कि उसकी भावनाओं को ठेस लग जाए!

जहाँ तक प्राचीन मन्दिरों का प्रश्न है, बहुत से मन्दिर किस काल में निर्मित हुए कहना कठिन है, जबकि बहुत से अन्य ऐसे भी हैं जिन्हें मूर्तिभंजक आक्रमण-कारियों ने खण्डित कर दिया। यदि मन्दिर बनाए जाते हैं तो उन्हें उन तोड़नेवालों से बचाया जाना और उनकी रक्षा की जाना भी इतना ही आवश्यक है। यह भी सत्य है, कि कला के रूप में भी उनका अपना विशेष महत्व है। केवल कला की ही दृष्टि से वे संस्कृति और इतिहास की अमूल्य धरोहर होती हैं। उन विश्वासों और मान्यताओं को महत्व यदि न भी दें, तो भी कला की दृष्टि से उनका महत्व तो निर्विवाद रूप से स्वीकार करना ही होगा।

यहाँ तक कि जिन मजहबों और परंपराओं में मूर्तिपूजा को पाप कहा जाता है वे भी किन्हीं न किन्हीं आकृतियों, चिह्नों आदि को पवित्र और आराध्य तो मानते ही हैं। शायद इसीलिए रूढ़ि भी स्थापित हुई होगी कि शत्रु समझे जानेवाले धर्मों, रीति-रिवाजों, संस्कृतियों आदि का नमोनिशान तक मिटा दिया जाए। किसी अविकसित बर्बर, मूढ-बुद्धि मनुष्य की दृष्टि में यह भी मजहब हो सकता है! वह अपने इस विश्वास पर इतना दृढ, और कट्टरता से बँधा भी हो सकता है कि दूसरों पर बल-प्रयोग करना भी उसे पुण्य का ही एक कार्य प्रतीत होता हो! इतिहास इस विडम्बना का साक्षी है।

इसलिए मन में प्रश्न उठा कि क्या कला की दृष्टि से भी चित्र या प्रतिमा का निर्माण करना ही वह मूल कारण नहीं है, जो अंततः उसके ध्वंस का कारण सिद्ध हो जाता है!

शायद यह प्रश्न कुछ लोगों की दृष्टि में व्यर्थ का शब्दाडम्बर मात्र ही हो, किन्तु फिर भी यह प्रासंगिक तो है ही, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। 

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