काव्य-साहित्य-समीक्षा
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इस नदी में जल नहीं है!
अस्तित्वरूपी नदी की, इसी त्रिवेणी की अभिव्यक्तियाँ क्रमशः आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक रूपों में सरस्वती, गङ्गा और यमुना हैं। सरस्वती का अस्तित्व दृश्य और अदृश्य इन दो स्तरों पर है। दृश्य रूप कला और विद्या है, और अदृश्य रूप में यही चेतना है। चिति या चित् से निःसृत यही सरस्वती, चेतना के रूप में सर्वत्र व्याप्त तथा विद्यमान है, जबकि गङ्गा के रूप में यह चित्त अर्थात् मन, बुद्धि, अहंकार अर्थात् वृत्तिरूपा है। चिति ही चित् है जो कि चैतन्य पुरुष का स्त्री-रूप है। यम और यमुना, परस्पर भाई और बहन हैं। एक ही चैतन्य, चित्, या चिति ही इन तीन सरिताओं का उद्गम होता है। काल और यम दोनों का उद्भव सूर्य से होता है, और काल, मनु, और यम सूर्य की संतानें हैं। सूर्य का अस्तित्व आध्यात्मिक, आधिदैविक, और अधिभौतिक इन तीनों तलों पर भिन्न भिन्न प्रकार से है।
उपनिषद् में जब कहा जाता है; - सूर्य ही जगतस्थ आत्मा है : "सूर्य आत्मा जगतस्थः"
तो तात्पर्य यह हुआ कि जिस जगत् में यह सूर्य स्थित है, उसका भी अस्तित्व आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक है।
त्रिआयामी यह अस्तित्व ही भू, भुवः और स्वः इन्हीं तीनों लोकों के रूप में जाना जाता है। भूः का तात्पर्य है : स्थूल, जड-जगत् या Material-World, भुवः का तात्पर्य है : सूक्ष्म-मनोजगत् (Mental-World) और स्वः का तात्पर्य है : कारण, अर्थात् स्व, या आत्मिक जगत् (Spiritual-World)। ये सभी जगत् जिस अधिष्ठान में अवस्थित हैं वह है -- अन्तरिक्ष (Cosmos, Cosmic World या Cosmetic World).
यह अन्तरिक्ष (Cosmos) इन तीनों लोकों में भीतर बाहर सर्वत्र है और तीनों लोक भी इसी अन्तरिक्ष से इसी प्रकार से अभिन्न हैं। यही संपूर्ण और समग्र रूप में 'अस्तित्व' है। इसी अस्तित्व में पुनः, भूः - अर्थात् जड-जगत - भूलोक, भुवः अर्थात् मनोलोक एवं 'स्वः' अर्थात् 'अपने होने' का, - अपने अस्तित्व के भान के रूप में विद्यमान अनायास प्राप्त होनेवाला यह स्वाभाविक बोध है, जो कि नित्य ही स्वयंसिद्ध निजता के रूप में प्रत्येक प्राणी में होता है। यही अपनी निजता अर्थात् निज आत्मा ही है।
अब उस कविता :
"इस नदी में जल नहीं है!"
में अस्तित्व रूपी इसी नदी के, इसी त्रिवेणी-दर्शन के वर्णन का प्रयास किया गया है।
जड, चेतन और चैतन्य यही तीन आयाम (dimensions) ही दृश्य जगत् है।
इस कविता में नदी का लक्ष्यार्थ है प्रवाह, और वाच्यार्थ है जल, अर्थात् -- जीवन, जिसमें जड, चेतन और स्व की अर्थात् 'अपने' अस्तित्व की भावना, ये तीनों ही सम्मिलित और अभिव्यक्त हैं।
जब अस्तित्व के बारे में विचार किया जाता है, तो उस सन्दर्भ में सम्पूर्ण और समग्र अस्तित्व और उसका विचार करनेवाला 'स्व' भी होता ही है, होना ही चाहिए भी। किन्तु विचार (thought) का कार्य शुरू होते ही विचार का आभासी विभाजन :
- विचार करनेवाले 'विचारकर्ता' एवं विचार (करने के कार्य) में हो जाता है। इस प्रकार से विचार करने के कार्य में ही, विचारक की कल्पना के उठते ही, 'स्व' की स्वतन्त्र सत्ता अस्तित्वमान है ऐसी प्रतीति होने लगती है।
स्पष्ट है कि इस पूरे घटनाक्रम को देखनेवाले दृष्टा का अस्तित्व तो असंदिग्धतः और अकाट्यतः स्वयंसिद्ध है ही, और उसे दृश्य रूप में नहीं जाना जा सकता ।
दृष्टा यद्यपि तीनों का आधार और अधिष्ठान भी है, उसे जानने, या देख सकने के लिए प्रत्यय का आश्रय लिया जाना आवश्यक ही है। इसे ही पातञ्जल योगदर्शन के साधनपाद नामक अध्याय के सूत्र :
"दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।
के माध्यम से कहा गया है।
दृष्टा, जो दृश्य में प्रच्छन्न, जिस पर दृश्य रूपी आवरण है, उसे यद्यपि देखा नहीं जा सकता किन्तु उसके अस्तित्व को प्रत्यय के माध्यम से परोक्षतः अनुभव किया जा सकता है। अपरोक्षतः भी उसका बोध, प्रत्यय के अभाव में दृश्य-विलय होने पर प्राप्त हो सकता है। इसे ही महर्षि पतञ्जलि द्वारा 'प्रतिप्रसव' कहा गया है और कैवल्यपाद के अन्तिम सूत्र में इसका ही वर्णन :
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा या चितिशक्तेरिति।।३३।।
इस सूत्र में किया है।
यह प्रतिप्रसव ही कैवल्यं है और इस निष्ठा को प्राप्त हुए मनुष्य के लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता और वह पुरुषार्थशून्य जैसा प्रतीत हो सकता है।
वस्तुतः यही वह साङ्ख्यनिष्ठा है, जिसका गीता, अध्याय ३ में :
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।
इस प्रकार से वर्णन किया गया है।
यहाँ एक रोचक तथ्य यह भी है कि जो दृश्यरूप में अभिव्यक्त होता है उसमें दृष्टा विलीन प्रतीत होता है और अपरोक्षानुभूति में, अर्थात् दृश्यविलय होने पर उसे ही उस दृष्टा के रूप में भी जान लिया जाता है, जो दृश्य में अप्रकट और प्रच्छन्न है।
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