May 15, 2024

72. प्रेरणा का उद्गम

Question / प्रश्न  72.

पिछले Question / प्रश्न 71 के क्रम से-- आगे --

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प्रकृति और जीवन

जीवन स्वयं ही जीवन का प्रारंभ और अंत भी है और इस प्रारंभ और अंत के बीच विद्यमान "कोई" , जो उस प्रकृति का ही एक अंश होते हुए भी मानों उससे अपने आपको जीवन से पृथक्

"जीनेवाला कोई" और "मैं"  जानता है। माता के गर्भ में स्थित "कोई" शिशु जन्म लेने से पहले जैसे माता से अभिन्न और अपृथक् होता है, किन्तु उसका जन्म हो जाने के बाद जिसमें माता से भिन्न और पृथक् होने और अपने स्वतंत्र रूप से "मैं" की तरह होने का भान प्रकट होता है। माता के रूप में अपने 'होने'  का यह भान उसमें तब भी विद्यमान होता है जिस समय वह माता के गर्भ में होता है, किन्तु क्या उस समय उसमें माता से अपने भिन्न और स्वतंत्र होने की भावना भी रही होगी? शायद इसका कोई सुनिश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। जब तक वह शरीर माता के गर्भ में था तब तक वह पूरी तरह से माता पर ही आश्रित और परतंत्र ही था।वैज्ञानिकों के मतानुसार भी तब भी उसमें स्वयं के माता से भिन्न और पृथक् किन्तु अपने माता पर आश्रित होने की भावना विद्यमान थी ही। जन्म हो जाने के उपरान्त माता के प्रति यह भावना भी विलीन हो जाती है। ठीक इसी प्रकार से शरीर प्रकृति रूपी गर्भ में उत्पन्न होकर भी बाद में प्रकृति से भिन्न "मन" होकर उस माध्यम से अपना स्वतंत्र अस्तित्व होने की भावना से युक्त हो जाता है। जैसे गर्भ में शिशु गर्भनाल से अपनी माता से पोषण प्राप्त कर विकसित होता है, उसी प्रकार से जन्म हो जाने के उपरान्त प्रकृति से रूपी माता से पोषण प्राप्त करता रहता है और उससे अपने भिन्न और पृथक्, स्वतंत्र होने की कल्पना कर लेता है। अन्न, जल, वायु आदि प्रकृति के ही तो तत्व हैं जिन्हें ग्रहण कर, उनसे शक्ति तथा पोषण प्राप्त करता है। चूँकि समस्त जीवन प्रकृति और प्रकृति ही समस्त जीवन है, इसलिए उससे अपना भिन्न और पृथक्, स्वतंत्र अस्तित्व होने की यह कल्पना मूलतः "मन" का वैचारिक विभ्रम ही होता है।

इसी "मन" को यद्यपि पुनः पुनः "मैं के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है किन्तु उसके आश्रय और अधिष्ठान रूपी प्रकृति का विस्मरण हो जाता है। "मन" ही "मैं", "प्रेरणा", है जिसे "इच्छा" और "संकल्प" के रूप में जाना जाता है, और  यह "जाननेवाला" भी पुनः यही "मन"  अर्थात् समस्त "ज्ञात" / "मैं"

इस प्रकार से व्यक्ति स्वयं के जन्म और मृत्यु से ग्रस्त होने की कल्पना कर लेता है, कल्पना भी क्षणिक वैचारिक मान्यता भर होती है, जिसे अनवधानता / प्रमादवश ही सत्य समझ लिया जाता है। तो फिर सत्य  क्या है? 

न त्वेवाहं जातु नासं

न त्वं नेमे जनाधिपाः।।

न चैव भविष्यामः

सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

(गीता अध्याय २)

तो जिसे व्यक्ति समझा जाता है वह नहीं,  बल्कि वही सत्य है जो काल से अछूता, अबाध, नित्य, सनातन और शाश्वत भी है। उसकी तुलना में "व्यक्तिरूपी"/"स्वयं"  क्षणिक और अनित्य वैचारिक कल्पना है, जो कि क्षण क्षण उठती और विलीन होती रहती है। स्मृतिक्रम और स्मृतिभ्रम के ही आधार से इसे सत्यता प्रदान कर दी जाती है। इस प्रकार काल और कल्पना से रहित और अबाधित वास्तविकता ही स्वरूपतः हम हैं - सर्वे वयमतः परम्।। 

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May 13, 2024

71 ध्यान का महत्व

Question / प्रश्न 72

What is Attention and What is it's Importance?

ध्यान / अवधान और इसका महत्व क्या है?

Answer / उत्तर --

इस प्रश्न 72 का उत्तर दिए जाने से पहले इससे अधिक महत्वपूर्ण इस एक और प्रश्न 71 का उत्तर दिया जाना आवश्यक है --

Question / प्रश्न 71 --

शरीर के स्वाभाविक क्रिया कलापों के दोनों रूपों - स्वैच्छिक और अनैच्छिक को हम जानते ही हैं। क्या यही प्रश्न "मन" के बारे में भी पूछा जा सकता है? कि क्या हम "मन" के कार्यकलापों के दोनों रूपों - स्वैच्छिक और अनैच्छिक को हम जानते हैं? 

शरीर के वे क्रियाकलाप जिन पर ध्यान दिया जाना कभी कदापि आवश्यक नहीं होता जैसे शरीर में रक्त परिभ्रमण और भूख प्यास लगना, आदि पर ऐच्छिक या अनैच्छिक का प्रश्न लागू ही नहीं होता। वैसे ही श्वास-प्रश्वास और मल मूत्र तथा पसीने आदि आने और उनका उत्सर्जन । दूसरी ओर, इच्छा-अनिच्छा और "मन" परस्पर किस प्रकार संबंधित हैं' भी हम नहीं जानते -- दूसरे शब्दों में -"मन" के संबंध में भी "ऐच्छिक"-"अनैच्छिक" का अर्थ क्या है, इस बारे में भी हमें सुनिश्चित रूप से कुछ भी नहीं पता है। इसे समझने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि शारीरिक क्रिया-कलाप प्राकृतिक और सहज, स्वतंत्र रूप से स्वयमेव होते हैं जबकि मानसिक क्रिया-कलापों के दो विशेष प्रकार होते हैं जिनमें से एक तो यांत्रिक होता है, जबकि दूसरे को आभासी या प्रतीति के रूप में मानसिक यंत्र का स्वामी और नियंत्रणकर्ता अर्थात्  "स्व" कहा जाता है। सरल शब्दों में - जब कोई "मेरा मन" कहता है तो "स्व"  या "स्वयं"  self को अर्थात् अपने "मन" को एक ओर तो विचार, भावनाएँ, इच्छाएँ, स्मृतियाँ आदि और दूसरी ओर उनका स्वामी भी कहता है। क्या "मन" का इस प्रकार से विभाजन किया जाना युक्तिसंगत है? इसको यदि और सूक्ष्मता से देखें तो स्पष्ट होगा कि "मन"  वस्तुतः विचार, भावना, स्मृति भी है और साथ ही विचारकर्ता के रूप में "मन" में निहित सभी विचारों, भावनाओं और स्मृतियों को जाननेवाली वह आधारभूमि भी है, जो सतत अपरिवर्तित रहते हुए भी स्वयं "स्व" पर या "स्वयं" पर आभासी परिवर्तनों को आरोपित कर लेती है।  तात्पर्य यह कि "मन" एक ओर तो समस्त निरंतर,  सतत परिवर्तित होती रहनेवाली मानसिक क्रियाकलापों का समूह होता है, तो दूसरी ओर उन सबके आश्रय के रूप में एक अपरिवर्तनशील सत्ता भी होता है। "मन" के सतत परिवर्तित होते रहनेवाले प्रकार को चेतन और अपरिवर्तनशील आश्रय / आधार को अचेतन कह सकते हैं। चेतन  वह है जो जागृति की अवस्था में कार्यशील होता है। जबकि इस अचेतन को भी पुनः दो रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है - एक वह जिसे यद्यपि स्वप्नावस्था में अनुभव किया जाता है, किन्तु जिसे स्वप्नरहित सुषुप्ति की अवस्था में अनुभव नहीं किया जाता, क्योंकि स्वप्नरहित सुषुप्ति में दूसरा "मन" विद्यमान होता है जो सुषुप्ति  में अनुभव किए जानेवाले "सुख" का उपभोग भी करता है और उसे स्मरण रख उस पर अपना स्वामित्व भी घोषित करता है। जिसे बाद में जागृति के समय अभिव्यक्त किया जाता है। इस प्रकार इच्छा और अनिच्छा अचेतन के दो रूपों में अवचेतन और सुषुप्त "मन" की स्थितियों में स्वप्न और निद्रा के अंतर्गत होनेवाली गतिविधि होती हैं।

इन सबका अनायास स्वाभाविक "भान" ही वह बोध है जिसे "स्व" से संयुक्त होने पर ध्यान या अवधान कहा जाता है। इसलिए ध्यान में कोई ध्यानकर्ता होता है, जबकि अवधान के साथ ऐसा कोई या कुछ नहीं होता जो प्रयासपूर्वक अवधान रखता हो। 

एक उदाहरण : जैसे स्वैच्छिक या अस्वैच्छिक रूप से श्वासोच्छ्वास का कार्य हुआ करता है, ठीक उसी तरह से अवधान भी अनायास अखंडित रूप से विद्यमान होता है, जबकि ध्यान आवश्यक रूप से स्वेच्छया किया जाता है और मन की इस स्वैच्छिक गतिविधि में मन ही ध्यान का कार्य और ध्यानकर्ता भी होता है।

अवधान / Awareness / Attention  वह बोध या भान है, जिसमें "मन" ध्यान और ध्यानकर्ता, विचार और विचारकर्ता की तरह से विखंडित नहीं होता। 

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जन्म-पुनर्जन्म

दुःख का कारण

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महानन्दानगर के घर में मैं 05 फरवरी 2000 तक रहा। वहाँ रहना शुरू किया ही था और जब एक दिन पास के शॉपिंग कॉम्प्लेक्स से कुछ सामान खरीदार ले आया था, और दुकानदार ने जिस पुड़िया में सामान दिया था, उस पुड़िया को खोलकर सामान निकाल लेने के बाद उस कागज को देखा तो यह पता चला कि वह किसी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक का एक पृष्ठ था। और उस पर स्व. सुभद्रा कुमारी चौहान के द्वारा रचित कोई कविता लिखी थी। वह उनकी लाड़ली बिटिया के बारे में थी जो मुझे कुछ इस तरह से याद है : 

बार बार आती है मुझको, 

मधुर याद बचपन तेरी,

गया, ले गया, तू जीवन की,

सबसे बड़ी खुशी मेरी। 

इस नये स्थान पर घर में काफी जगह है, पीछे की कच्ची भूमि पर अमरूद के दो बड़े पेड़ हैं जिन पर कुछ छोटे बड़े अमरूद लग रहे हैं। फूलों आदि के और भी पौधे हैं जैसे मीठी नीम, तुलसी, मिर्च जो शायद यूँ ही उग आए होंगे। मोगरा, जूही और चमेली के अलावा फूलों के कुछ ऐसे पौधे भी हैं जिनके नाम मैं नहीं जानता। एक दो बेलें करेले और सेम की भी हैं जिनके बीज जमीन में यूँ ही बो दिए थे। स्व. सुमित्रानंदन पंत की एक कविता :

"आः धरती कितना देती है ..."

उस समय याद आई थी।

और अभी अभी याद आए मीरा के पद्य :

अँसुअन जल सींच सींच प्रेम बेलि बोई 

अब तो बेलि फेल गई आणंद फल होई।

मनी प्लांट की भी दो तीन बेलें हैं जिनकी जड़ें जमीन के भीतर ईंटों की बनी क्यारी से बाहर तक पैठ गई हैं। उन्हें उखाड़ कर वापस क्यारी में ठेल दिया तो वे एक दूसरे से कहती सुनाई दीं : 

"ये अंकल तो बड़े निष्ठुर हृदय जान पड़ते हैं!"

अनेक स्मृतियों की अनेक बेलें, जिनकी जड़ें चित्त की भूमि में गहराई तक पैठी होती हैं। कुछ कटु, कुछ तिक्त, कुछ छुई-मुई नामक, लेकिन उगने के बाद बहुत कँटीली हो जाती हैं, जिन पर सुंदर लाल फूल बड़ी शान से तना खड़ा दिखाई देता है, जिसमें पँखुड़ियाँ नहीं, बस रोएँ ही होते हैं - बॉटल-ब्रश या वीपिंग विलो के फूलों जैसे। 

सुभद्रा जी की कविता में अंत में कुछ यूँ था -

"... मिट्टी खाकर आई थी, 

कुछ मुँह में, कुछ लिए हाथ में,

मुझे खिलाने आई थी! 

मैंने पूछा यह क्या है,

भोलेपन से बोली वह,

माँ, लो तुम भी काओ!

मैंने कहा -तुम्हीं काओ!!"

बगीचे में घूमते हुए यह सब याद आया और मेरे मन में विचार आया काश! मुझे भी तो एक बार ऐसा ही जीवन जीने को मिलता।

यह कामना है - निर्दोष, निश्छल, निष्काम, निष्कपट। 

फिर भी प्रायः तथाकथित महात्मा जाने क्यूँ जन्म-मृत्यु के चक्र को "दुःख" कहते हैं। और गीता में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण भी जीवन (या संसार) को

दुःखालयमशाश्वतम् ।।

कहते हैं, तो फिर, क्या इस कौतूहल और कामना के साथ मरने पर मुझे भी फिर से जन्म लेना पड़ेगा? इस छोटी सी एक कामना के कारण? क्या जीवन वस्तुतः दुःख है? या जीवन से आसक्ति ही दुःख और दुःख का एकमेव कारण है? गीता में ही पुनः भगवान् श्रीकृष्ण  अर्जुन से कहते हैं :

श्री भगवानुवाच -

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।। 

गतासूनगतासूँश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।११।।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।।

न चैव भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१३।।

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा।।

आगमापायिनोऽनित्या तान् तितिक्षस्व भारत।।१४।।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।१५।।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

अध्याय २ के उपरोक्त ११ से १६ तक के श्लोकों का यही अर्थ हुआ कि जीवन नित्य, सनातन वास्तविकता है, जो अनेक देहों से, बचपन, यौवन और वृद्धावस्था से गुजरने के बाद भी जन्म-मृत्यु से रहित है। यदि यह सत्य है तो कामना भी उसी चक्र का अपरिहार्य अंग है। फिर कामना नहीं, आसक्ति ही निन्दनीय और बंधन (का) कारण है, सुखभोग या भोग की लालसा ही जन्म या पुनर्जन्म का कारण होने से निन्दनीय है, न कि स्वयं जीवन ।

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May 11, 2024

शक्तियाँ

Vectors

सचर राशियाँ

आठवीं बोर्ड की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जब मेरा प्रवेश हाई-स्कूल में हुआ तो मैंने विज्ञान और उच्च गणित को मुख्य विषयों के रूप में चुना था। विज्ञान के अन्तर्गत भौतिक-विज्ञान और रसायन-विज्ञान। वह एक रोचक शुरुआत थी। इनके ही साथ साथ लिया था उच्च गणित (Higher Mathematics) - जिसमें अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित विषयों का अध्ययन करना था। जीव-विज्ञान का मैं प्रायः मजाक उड़ाता था, क्योंकि जीव-विज्ञान या उच्च गणित विकल्प थे, भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान के साथ गणित या जीव-विज्ञान में से किसी एक का चुनाव करना होता था। रसायन-विज्ञान और जीव-विज्ञान में कुछ वैसी ही समानता थी जैसी कि भौतिक-विज्ञान और गणित के बीच थी। कॉलेज में बी. एस्-सी. में प्रवेश लेने के बाद स्टेटिक्स और डायनेमिक्स का अध्ययन, तो गणित और भौतिक विज्ञान के "द्रव्य के गुणधर्म" / General Properties of Matter  दोनों किसी हद तक समान थे। यह भी समझ में आया कि स्टेटिक्स और डायनेमिक्स में विशेष अंतर क्या होता है। सरल भाषा में - स्टेटिक्स में किसी भौतिक पिण्ड की स्थिर अवस्था में उस पर प्रयुक्त दो या अधिक बलों के सम्मिलित परिणाम का अध्ययन किया जाता है, और डायनेमिक्स में किसी पिण्ड के गतिशील अवस्था में उसके वेग velocity और त्वरण acceleration   का। उसी दौरान मैंने  यह खोज लिया था कि संस्कृत / हिन्दी के शब्द "वेगतर" से ही अंग्रेजी भाषा के शब्द  "vector" की व्युत्पत्ति हुई होगी, क्योंकि अर्थ और उच्चारण की दृष्टि से दोनों में ही समानता दृष्टव्य है। संस्कृत भाषा में मेरी विशेष रुचि होने के कारण एकाएक और अनपेक्षित रूप से मुझमें गहरा विश्वास जाग उठा कि संस्कृत भाषा से सभी भाषाओं का अवश्य ही कोई  गहरा संबंध है। "वेग" के साथ एफ. पी. एस. तथा एम. के. एस. - foot, pound, second  एवं metre, kilogram, second -- pound, shilling pence में भी मुझे संस्कृत दिखाई देता था और मैं उन्हें  inch, ounce से संबद्ध कर सकता था। pound - penc  में मुझे संस्कृत के पणं और पणञ्च की ध्वनि सुनाई देती थी। inch और ounce संस्कृत भाषा के "अंश" के ही अपभ्रंश / व्युत्पन्न प्रतीत होते थे। इसका भी प्रमाण मेरे पास यही था कि अर्थ और उच्चारण की दृष्टि से भी उनमें अनायास ही समानता देखी जा सकती थी। उस समय भी मुझे अनुभव होता था कि एक भाषा से दूसरी किसी भी भाषा की उत्पत्ति होने का सिद्धान्त मूलतः भ्रामक ही था और सभी भाषाएँ स्वतंत्र रूप से जन्म लेने पर भी बाद में एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। विज्ञान और गणित विषयों की स्कूली पढ़ाई तो चल ही रही थी और मेरे अपने दिमाग में एक समानांतर खोज और अनुसन्धान भी अपनी जगह अनायास। Vectors का अध्ययन करते समय गणित और भौतिक-विज्ञान दोनों ही दृष्टियों से जब मैंने उन्हें संयुक्त किए जाने के नियम :

 Law of parallelogram 

के बारे में जाना तो मेरे मन में इसे इसके विलोम-क्रम में होने की कल्पना जागृत हुई। अर्थात् किसी सचर राशि vector quantity को उसके असंख्य मौलिक अंशों को परस्पर योग के परिणाम / resultant की तरह से भी अभिव्यक्त किया जा सकता है और,  Statics  में Lami's Theorem  इसका ही एक उपप्रमेय /  corrolory है, ऐसा जान पड़ा। इस उपप्रमेय में तीन सचर राशियों के संतुलन की अवस्था के बारे में नियम स्थापित किया गया है :

When three vectors are applied on an object and the object rests in a stable position then 

A/sin(a) = B/sin(b) = C/ sin(c),

Where A, B and C are the vectors and a, b and c are the angles subtended by them. 

This state is called the state of the equilibrium of vectors.

अपने हाई स्कूल और कॉलेज के शिक्षा-काल में ही मुझे जिज्ञासा उठी कि क्या इस नियम या सिद्धान्त को मन नामक वस्तु पर भी प्रयुक्त किया जा सकता है? स्थूल दृष्टि से कहें तो चूँकि मन पर किसी भी एक समय पर एक साध एक से अधिक शक्तियाँ कार्य करती हैं और मन उन अनेक शक्तियों के सम्मिलित परिणाम / Resultant Vector से प्रभावित होकर कार्य किया करता है। यहाँ तक कि उन शक्तियों के संतुलित होने पर भी तदनुसार स्थिर या गतिशील भी हो सकता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में सत्वगुण, रजोगुण तमोगुण आदि प्रकृति के तीन गुणों से तुलना करने और इन तीन गुणों  को सचर राशि Vectors मानने पर और इस दृष्टि से भी "मन" के सन्दर्भ में अनुरूपता (analogy)  है, यह भी प्रतीत हुआ।

पातञ्जल योगदर्शन में वर्णित निरोध परिणाम, एकाग्रता परिणाम और समाधि परिणाम से भी, और

त्रयमेकत्र संयमः।। 

से भी, यह प्रश्न भी मन में आया : क्या उपरोक्त योगसूत्र में भी इस अनुरूपता / analogy को प्रयुक्त किया जा सकता है?

यह संपूर्ण चिन्तन मेरे मन में उस समय सक्रिय हुआ जब मैंने अनुभव किया कि जब एक ही समय पर और एक साथ दो  सूक्ष्म शक्तियाँ "मन'  पर कार्य कर रही थीं और मैं  उनका केवल साक्षी था।

इसी वर्ष 2024 में, जंगल हाउस से 24 मार्च को इस स्थान पर मैं आया - जहाँ 30 वर्ष पहले भी रहता था तो एक अंकल से पहचान हुई थी, और "मन" में कौतूहल जागृत हुआ कि उनसे मिलूँ, उनकी वर्तमान स्थिति के  बारे में पता करूँ। एक शक्ति मुझे उनके घर की दिशा में जाने के लिए प्रेरित कर रही थी तो वहीं दूसरी एक और शक्ति मुझे वहाँ जाने से रोक रही थी। दो-तीन बार उनके घर पर भी गया लेकिन इन दोनों शक्तियों की टकराहट के फलस्वरूप उनसे मिलना न हो पाया। मैं बस उन दो शक्तियों का परस्पर व्यवहार देख रहा था और इसलिए मेरा कोई आग्रह नहीं था, न तो इच्छा, और न ही इच्छा से किसी प्रकार का विरोध ही था। 

तीन चार दिन इसी प्रकार से बीते। लेकिन एक दिन जब तीन चार मिनट तक उनके गेट पर खड़े रहने के बाद मैं लौट ही रहा था कि वे बाहर आते दिखलाई पड़े। तब भी एक शक्ति मुझसे वहाँ से लौट जाने का आग्रह कर रही थी, तो दूसरी मुझसे उनसे मिलने का। दूसरी शक्ति में अधिक बल था, अतः मैं पुनः गेट पर चला आया। उनकी बहुत अधिक उम्र हो जाने से अब वे प्रायः घर में ही और अधिकांश  समय अकेले ही रहा करते हैं। केवल शाम के समय घर के पास स्थित पार्क तक जाकर, वहाँ पर कुछ समय बिताकर लौट आते हैं। जब मैंने उन्हें अपना नाम बताया तभी वे मुझे पहचान पाए। उनके साथ साथ मैं भी पार्क तक गया और फिर लौटते हुए उन्हें उनके घर तक ले जाकर छोड़ दिया, फिर अपने घर लौट आया।

उनसे मिलकर "मन" कुछ उदास हो गया था।  उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो चुका है, दोनों बेटे यूके, यूएसए में नौकरी करते हैं और वे जीवन-संध्या में लगभग बहुत ही  एकाकी हैं।

इस पोस्ट को यहीं विराम दे रहा हूँ।

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May 10, 2024

अभिव्यक्ति और जागृति

ज्ञान-सोपान

Manifestation

And

A w a k e n i n g 

सब कुछ सदा और सर्वत्र ही चेतना से ही उद्भूत होता है, सदा का अर्थ है - काल / समय, और सर्वत्र का अर्थ है - स्थान । चेतना (awareness) इस प्रकार से काल और स्थान के रूप में अभिव्यक्त होकर दृश्य जगत तथा इस दृश्य जगत को देनेवाली असंख्य जड और चेतन वस्तुओं में अप्रकट रहकर अव्यक्त और प्रकट रूप में व्यक्त होती है। व्यक्त अर्थात् व्यक्ति जो चेतना का चेतन प्रकार होता है, जबकि अव्यक्त अर्थात् जड (जगत्) जिसमें चेतना  सुप्त रहकर भी अनवरत अपना कार्य करती रहती है।

जड को कोई चेतन ही जानता है, जबकि जड-चेतन को सदा और सर्वत्र विद्यमान चेतना (awareness) में ही जाना जाता है। 'जानना' अतः दो रूपों में होता है। चेतना जब व्यक्ति के रूप में देहबद्ध चेतन होती है, और उसमें जब "मैं देह हूँ" यह भाव विद्यमान ही नहीं होता। तब वह अव्यक्त होती है यह कहना भी गलत होगा। किन्तु तब वह सुप्त, स्वप्न या जागृत अर्थात् व्यक्त भी नहीं होती।

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किनारे पर,

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -28
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अक्सर मैं नींद में चलता रहा,
पानियों पर और घुप अंधेरों में,
नींद खुलते ही पाया अपने को,
जल से अनछुआ किनारे पर,
कहाँ है कर पाना, किसके बस में ?  
जानता हूँ ये कोई चमत्कार नहीं,
मैं नहीं सोचता -कभी कोई,
मेरी पूजा करे, मैं अवतार नहीं ।
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वर्ष 2014 में एक दिन इसे लिखा था लेकिन इसमें कोई कमी खटक रही थी अतः प्रकाशित नहीं किया। आज वह कमी दूर हो गई इसलिए प्रकाशित कर रहा हूँ।

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May 09, 2024

अज्ञात के तत्व

Elements of The Unknown.

अज्ञात / कर्म के तत्त्व

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प्रेरणा, इच्छा, बाध्यता, स्वतंत्रता, प्रारब्ध, नियति

जिसे व्यवहार में "कर्म" शब्द से निरूपित किया जाता है, उसके घटित होने में उपरोक्त छः तत्त्व निर्विवाद रूप से अपरिहार्यतः कम या अधिक महत्वपूर्ण "कारण" माने ही जाते हैं। और यद्यपि उपरोक्त छः तत्त्वों के स्वरूप के बारे में किसी प्रकार का संशय और मतभेद परस्पर नहीं होता है, या शायद होता भी हो तो इस पर कभी शायद ही किसी का ध्यान जाता है। किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण जो कारण प्रत्यक्षतः अनुभव किया जाता है, वह प्रेरणा ही है। "ज्ञात" के रूप में "अज्ञात" की यही प्रत्यक्ष और प्रथम अभिव्यक्ति होता है।

इस सब पर विचार करते हुए "कृत्य", "कर्तृत्व", "कर्ता", और "कर्तव्य" आदि शब्दों या उनका संभावित तात्पर्य क्या हो सकता है इस सब पर शायद ही किसी का ध्यान कभी जाता हो। यहाँ तक कि "कर्म" के घटित होने से पहले या बाद में भी प्रायः किसी के लिए कोई कल्पना ही नहीं होती है। "कर्म" के घटित होने या घटित किए जाने के प्रयासरूपी "कृत्य" पर अवश्य ही थोड़ी बहुत या शायद अत्यन्त जटिल और गंभीर विवेचना भी की जाती हो, और उसे "कौन" करता है, "किसने" किया या नहीं किया, "कौन" कर सकता है, "कौन" नहीं कर सकता, "किसका" "कर्तव्य", "दायित्व" आदि है यह सब भी प्रत्यक्षतः सभी को विदित होता ही है, किन्तु "कर्ता" वस्तुतः सदैव अनुमानित ही रह जाता है, जिसे किसी न किसी मूर्त वस्तु, व्यक्ति, या अमूर्त अवधारणा (abstract concept) पर आरोपित कर दिया जाता है, जैसे परिस्थिति, मौसम, भाग्य, विचार या कोई वैचारिक सिद्धांत आदि। उदाहरण के लिए समाज, सरकार, बुद्धि, संस्कार, प्रवृत्ति, चरित्र, राजनीति, धर्म, भगवान, समुदाय इत्यादि। स्पष्ट है इन विभिन्न, अमूर्त अवधारणाओं और मान्यताओं को न तो पूरी तरह से प्रमाणित ही किया जा सकता है, और न ही अप्रमाणित, या उन पर संदेह या प्रश्न ही उठाया जा सकता है।

फिर भी अपने आपको या किसी और वास्तविक व्यक्ति, समुदाय, समूह, या अमूर्त कारक (agent) या कारण (cause) को निमित्त मानकर उसे ही एकमात्र "कर्ता" की तरह से स्वीकार कर लिया जाता है।

इस प्रकार उस "अज्ञात और अनुमानित कर्ता" की सभी घटनाओं, कार्यों, कृत्यों के रूप में पहचान को सर्वप्रथम तो "प्रेरणा" का नाम दिया जा सकता है।

प्रेरणा के जागृत होने के बाद ही उसे इच्छा, बाध्यता, स्वतंत्रता, प्रारब्ध और नियति कह दिया जाता है। "प्रेरणा" तो सदैव "चेतन" ही होती है, जो सदैव और अपरिहार्यतः यद्यपि  वर्तमान और नित्य भी होती है, किन्तु "कृत्य", "घटना", "कर्म", "कर्ता", "कर्तृत्व", "कर्तव्य" "अकर्तव्य" आदि सदैव "स्मृति" या "अतीत" या कल्पित "भविष्य"  में ही हो सकते हैं। पातञ्जल योगसूत्र के शंकराचार्य तृण भाष्य में अतीत की व्याख्या स्मृति और भविष्य की अनुमान (प्रमाण के रूप में) दोनों ही प्रकार से "वृत्ति" कहकर की गई है। वृत्तिमात्र ही मूलत घटना, कार्य या कृत्य है, और स्वतंत्रता, कर्म, करतया,  कर्तृत्व कर्तव्य और कृत्य की मान्यता / अवधारणा भी पुनः विचार / (thought) भी पुनः विचार  या वृत्ति ही है

यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि वेदान्त के सभी ग्रन्थों में "विचार" पद / शब्द का व्यवहार अनुसन्धान के अर्थ में किया जाता है, जबकि वृत्ति पद / शब्द का व्यवहार चित्त की गतिविधि के प्रकार के अर्थ में।


इसीलिए जब "कर्ता" के रूप में स्वयं को इंगित किया जाता है तो एक विरोधाभास पैदा होता है। तर्क की दृष्टि से भी "स्वयं" के द्वारा अपने आपको "इंगित" करना संभव ही नहीं। इसीलिए जब भी व्यवहार के धरातल पर कोई औपचारिकतः ही सही, केवल आवश्यक होने पर ऐसा करता भी है, तो भी "स्वयं" / "आत्मा" द्वैत में परिणत नहीं हो जाती। "स्वयं" को त्रुटिपूर्ण ढंग से इस प्रकार परिभाषित करना ही अज्ञान है, और इस अज्ञान पर ध्यान न जा पाने को ही :

"प्रमाद" / In-attention

कहा जा सकता है। 

यह "प्रमाद" / In-attention 

भी पुनः दो रूपों में हुआ करता है :

तादात्म्य / वृत्तिसारूप्य / Identification, 

और अन्यमनस्कता / absent-mindedness.

"प्रमाद" / In-attention, जन्मजात होता है और इससे ही ग्रस्त "चित्त" / "consciousness"  इच्छा और द्वेष आदि द्वन्द्वों में फँसा होता है। गीता अध्याय ७ Gita chapter 7, verse 27 के अनुसार :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

इसी प्रकार जन्म से ही सभी मोहग्रस्त होते हैं। 

इसी से ग्रस्त चित्त में विषयों से तादात्म्य होने के कारण ही चित्त कभी सुखी, दुःखी, उद्विग्न, अशान्त, व्याकुल और कभी कभी किसी भी विषय से तादात्म्य न हो पाने की स्थिति में सुषुप्ति में शान्ति और सुख का भोग करता है, या जागृत दशा में अन्यमनस्क भी हो जाया करता है। इतना ही रोचक तथा ध्यान देने योग्य एक तथ्य यह भी है कि प्रत्येक मनुष्य सुषुप्ति deep dreamless sleep या अन्यमनस्कता absent-mindedness की दशा स्वयं ही जानता भी है। इसलिए प्रमाद पर ध्यान देना (attention of In-attention) ही वह एकमात्र उपाय है जिससे मनुष्य के लिए :

प्रेरणा, इच्छा, बाध्यता, स्वतंत्रता, प्रारब्ध और नियति, कर्म, कृत्य, कर्तृत्व, कर्तव्य यहाँ तक कि कर्मफल आदि सभी का प्रश्न ही असंगत हो जाता है।

गीता अध्याय ५ Gita chapter 5 

के निम्न श्लोक दृष्टव्य हैं --

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।१६।।

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May 07, 2024

भर्तृहरि और प्रेमचन्द

राजा भर्तृहरि और मुंशी प्रेमचन्द 

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मैं मानता हूँ कि इन दो महान व्यक्तियों की तुलना करना अनुचित और विचित्र भी है, दोनों समसामयिक भी नहीं थे, किन्तु रचनाकार की दृष्टि से शायद दोनों की तुलना की जा सकती है। 

राजा भर्तृहरि ने नीतिशतकम्, शृङ्गारशतकम् और शायद अन्त में वैराग्यशतकम् की रचना संस्कृत भाषा में की। 

मुंशी प्रेमचन्द ने साहित्यिक लेखन का प्रारम्भ उर्दू लिपि में हिन्दी भाषा में लिखने से किया। उन्होंने फिल्मों में भी भाग्य आजमाने की कोशिश की होगी ऐसा अनुमान है। पता नहीं इस कोशिश में कितने कामयाब हुए, या नहीं हुए लेकिन हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखना शुरू करने के बाद वे बेशक बहुत सफल हुए।

जब मैं 16-17 वर्ष की उम्र का था तो उनकी पुस्तकों से मेरा परिचय हुआ। छुट्टियों में फुरसत भी होती थी और मन भी लगा रहता था।

गोदान, मानसरोवर, प्रेमसदन(?), कहानियाँ और दूसरी रचनाएँ पढ़ने के बाद रंगभूमि और कर्मभूमि उपन्यास। और उनकी कुछ कहानियाँ जैसे - पंच परमेश्वर, कफ़न आदि स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में भी पढ़ने को मिलती थीं लेकिन मेरे मन में एक प्रश्न उठा करता था कि जैसे राजा भर्तृहरि ने नीतिशतक, शृङ्गारशतक और वैराग्यशतक की रचना की, क्या मुंशी प्रेमचन्द को योगभूमि या ज्ञानभूमि लिखने का खयाल कभी नहीं आया होगा!

क्या भारतीय संस्कृति, धर्म और अध्यात्म में कोई रुचि नहीं थी और वे केवल विशुद्ध भौतिकवादी राजनीतिक यथार्थ पर आधारित साहित्य की ही रचना करते थे?

मुझे नहीं मालूम कि साम्यवादी और समाजवादी सोच से प्रभावित होने के बावजूद स्वतंत्रता संग्राम के लिए क्या उन्होंने कोई सक्रिय या परोक्ष कार्य किया? मेरे प्रिय दो लेखक निर्मल वर्मा और गजानन माधव मुक्तिबोध थे। ये भी किसी हद तक कम्यूनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे, किन्तु दोनों का ही उससे मोहभंग हो गया, ऐसा प्रतीत होता है। रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वरनाथ रेणु ( परती परिकथा, मैला आँचल) जैसे लेखकों की रचनाएँ भी मुझे अच्छी लगती थीं, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय और शरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय भी वैसे ही लेखक थे। आनन्दमठ और पथ के दावेदार, निर्मल वर्मा द्वारा लिखी - एक चिथड़ा सुख, वे दिन, कौए और काला पानी मैंने अनेक बार पढ़े, आज भी मिल जाए तो अवश्य ही पुनः पढ़ना चाहूँगा, किन्तु मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखी ऐसी कोई पुस्तक हो, मुझे याद नहीं आता। 

कभी कभी यह सोचकर दुःख होता है कि ऐसे कितने ही प्रतिभाशाली हिन्दी-लेखक थे, जिन्होंने अपनी साहित्य साधना में क्या ऐसा कुछ अमूल्य पाया जिसे वे संसार, मानवता और देश को नहीं दे सकते थे?

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May 06, 2024

पृथ्वी का भविष्य

ज्योतिषीय संभावनाएँ

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पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार जड-चेतन प्रकृति है, जो सतत गतिशील रहती है। प्रत्येक पिण्ड जड द्रव्य और चेतन शक्ति से बनी ईश्वरीय (divine)  सत्ता है।

यदि आकाशीय खगोलीय पिण्डों के बारे में कहें तो सौर मण्डल में स्थित सभी पिण्ड ऐसे देवता विशेष हैं, जिन्हें ग्रह और उपग्रह, उल्कापिण्ड कहते हैं। इस प्रकार पृथ्वी के अस्तित्व में आते ही उसने सौर मण्डल में स्थित अन्य ग्रहों - बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति और शनि की तरह से सूर्य की कक्षा में परिभ्रमण शुरू किया (होगा)। 

इसे ही भारतीय वैदिक ज्योतिष शास्त्र में सृष्टि का और पृथ्वी का प्रथम दिन कह सकते हैं जब पृथ्वी के सूर्य की कक्षा में आकर उसके चतुर्दिक् और स्वयं अपने ही अक्ष के भी चारों ओर घूमना प्रारंभ कर दिया (होगा)। स्पष्ट है कि पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर की अपनी कक्षा में प्रवेश होते ही उसके उस आधे भाग में दिन का प्रारंभ हुआ जो सूर्य के ठीक सामने रहा होगा। दूसरे आधे भाग में रात्रि रही होगी, और दोनों के मध्य अवश्य ही सूर्योदय और सूर्यास्त रहा होगा। अर्थात् सिद्धान्ततः हम उस क्षण को सृष्टि का प्रारंभ और जहाँ सूर्योदय हुआ उसे जगल्लग्न कह सकते हैं। इसके बाद सूर्य द्वारा आकाश में स्थित  बारह राशियों पर चलते हुए पुनः प्रारंभिक बिन्दु पर आ जाने तक के समय को एक सौर वर्ष कह सकते हैं। चूँकि ध्रुव तारे को छोड़कर सभी आकाशीय पिण्ड निरन्तर गतिशील हैं और ध्रुव अपेक्षाकृत स्थिर प्रतीत होता है, इसलिए सप्तर्षियों के समूह की वार्षिक गति एक सौर वर्ष में पूर्ण हो जाने तक पृथ्वी पर दो संक्रांतियाँ कर्क और मकर तथा दो अयन उत्तरायण और दक्षिणायन बीत चुके होते हैं। लाखों वर्षों की गणना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न तारों के बीच की दूरी जो सदैव समान और स्थिर नहीं होती अर्थात् मोटे तौर पर दो या दो से अधिक तारों से बने नक्षत्र, सवा दो नक्षत्र से बनी प्रत्येक राशि और संपूर्ण तारामण्डल में सतत परिवर्तन हो रहा है। राहु और केतु (node and anti-node) स्थूल पिण्ड न होकर वे दो काल्पनिक बिन्दु (ध्रुव) हैं जिन्हें अक्ष की तरह मानने पर उस अक्ष के चारों ओर पूरा तारा मण्डल (globe) घूमता है। जैसे कि ग्लोब में स्थित पृथ्वी। चँकि कल्पित राहु (और उसके दूसरे सिरे पर केतु) के आधार पर सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण दोनों का ही समय सुनिश्चित किया जाता है इसलिए राहु-केतु को उस अक्ष की तरह माना जा सकता है जिसके एक तरफ राशियाँ क्रमशः उदित और अस्त होती हैं। पृथ्वी पर स्थित पूर्व और पश्चिम को जोडनेवाली कल्पित रेखा भूमध्यरेखा कहलाती है और उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों को जुड़नेवाली अनेक कल्पित रेखाएँ सभी मिलकर अक्षांश और देशान्तर  (attitude and longitude)  कहे जाते हैं। इन्हें ही अयनांश और  विषवत् रेखाएँ भी कहा जाता है। निवेदन है कि यहाँ पर हुई संभावित भूलों को कृपया स्वयं ही सुधार लें और प्रमाणित भी कर लें।

पृथ्वी पर स्थित किसी स्थान और समय पर आकाशीय राशियों और तारामण्डल तथा ग्रहों-नक्षत्रों के मानचित्र के आधार पर और आठ दिशाओं के दिक्पाल की स्थिति के अनुसार उस स्थान विशेष का और इसी प्रकार किसी मनुष्य-विशेष (जातक) के संभावित भविष्य का अनुमान करने को ज्योतिषीय अनुसंधान कहा जा सकता है। पुनः पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार उपरोक्त प्रत्येक पिण्ड की जाति, आयु और भोग नियति के अनुसार पूर्वनिश्चित हुआ करते हैं। यदि इस अवधारणा को सत्य स्वीकार करें तो अवश्य ही हर वस्तु, पिण्ड आदि के भविष्य, अर्थात् जन्म और मृत्यु के समय और उसके जीवनकाल / आयु का विचार किया जा सकता है।

उपरोक्त विवेचना में चन्द्र, जो कि पृथ्वी का उपग्रह है, सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि जहाँ सूर्य यद्यपि जगत् की आत्मा है, चन्द्र जगत् के मन का ही पर्याय है -

सूर्यः आत्मा जगतस्थश्च।।

(सूर्य अथर्वशीर्ष)

चन्द्रमा मनसो जातः।।

(पुरुष-सूक्त)

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वर्तमान समय में ग्रहगति अत्यन्त विकट होने से इस बारे में ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यद्यपि ग्रह नक्षत्र हमें प्रभावित करते हैं किन्तु यदि हम सावधान रहें तो पहले ही से संभावित संकटों का अनुमान कर अपनी और दूसरों की भी इन संकटों से रक्षा कर सकते हैं। या हम सब कुछ भावी पर भी छोड़ सकते हैं और अपने स्वभाव मा प्रकृति के अनुसार, सुख या दुःख दोनों ही स्थितियों में उदासीन और शान्तचित्त बने रह सकते हैं ।

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May 02, 2024

यह कुछ अलग है!

दो ब्लॉग संवाद-मंच 

Two Blog Platforms.

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वर्ष 2009 में किसी दिन "आरम्भ" शीर्षक से पहला पोस्ट इस ब्लॉग मंच / Blog-platform पर लिखा था। अब तक 6000 से अधिक पोस्ट्स प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें से 5000 पोस्ट्स e-blogger  में और 1000 से अधिक वर्डप्रेस  WordPress में हैं। pageviews भी कुल करीब 700000 से अधिक हैं (जैसा इनके द्वारा सूचित किया जाता है।)

अपने अनुभव से यह प्रतीत होता है - वर्डप्रेस पर दूसरी कोई लिंक आसानी से शेयर की जा सकती है, लेकिन वहीं e-blogger पर किसी कारण से ऐसा संभव नहीं हो पाता है। इस तरह यह वन-वे-ट्रैफिक जैसा है!

ट्विटर (जिसे अब X कहा जाता है) पर शायद आसानी से कुछ भी शेयर किया जा सकता है, लेकिन फेसबुक पर ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल है। इन तीनों संवाद-मंचों की कम्यूनिटी पॉलिसी गाइडलाइंस क्या हैं यह समझ पाना तो मेरे लिए और भी कठिन है । इसी तरह से कू / Koo  पर भी कुछ समस्याएँ हैं।

टेलिग्राम, सिग्नल आदि का नाम ही सुना है, आवश्यकता कभी नहीं पड़ी।

इनकी तुलना "वॉट्स ऐप" से करें तो 

"बड़े भाई सो बड़े भाई, छोटे भाई तो सुभानल्ला" याद आता है। पता नहीं कितने लोग क्या क्या शेयर करते हैं, जिसकी जरूरत और मतलब तक समझने के लिए सिर खुजलाना पड़ता है! 

इसलिए इंटरनेट का उपयोग न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ण करने तक ही सीमित हो गया है।

और इसीलिए शीर्षक में ही लिख दिया --

"यह कुछ अलग है!"

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