May 06, 2024

पृथ्वी का भविष्य

ज्योतिषीय संभावनाएँ

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पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार जड-चेतन प्रकृति है, जो सतत गतिशील रहती है। प्रत्येक पिण्ड जड द्रव्य और चेतन शक्ति से बनी ईश्वरीय (divine)  सत्ता है।

यदि आकाशीय खगोलीय पिण्डों के बारे में कहें तो सौर मण्डल में स्थित सभी पिण्ड ऐसे देवता विशेष हैं, जिन्हें ग्रह और उपग्रह, उल्कापिण्ड कहते हैं। इस प्रकार पृथ्वी के अस्तित्व में आते ही उसने सौर मण्डल में स्थित अन्य ग्रहों - बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति और शनि की तरह से सूर्य की कक्षा में परिभ्रमण शुरू किया (होगा)। 

इसे ही भारतीय वैदिक ज्योतिष शास्त्र में सृष्टि का और पृथ्वी का प्रथम दिन कह सकते हैं जब पृथ्वी के सूर्य की कक्षा में आकर उसके चतुर्दिक् और स्वयं अपने ही अक्ष के भी चारों ओर घूमना प्रारंभ कर दिया (होगा)। स्पष्ट है कि पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर की अपनी कक्षा में प्रवेश होते ही उसके उस आधे भाग में दिन का प्रारंभ हुआ जो सूर्य के ठीक सामने रहा होगा। दूसरे आधे भाग में रात्रि रही होगी, और दोनों के मध्य अवश्य ही सूर्योदय और सूर्यास्त रहा होगा। अर्थात् सिद्धान्ततः हम उस क्षण को सृष्टि का प्रारंभ और जहाँ सूर्योदय हुआ उसे जगल्लग्न कह सकते हैं। इसके बाद सूर्य द्वारा आकाश में स्थित  बारह राशियों पर चलते हुए पुनः प्रारंभिक बिन्दु पर आ जाने तक के समय को एक सौर वर्ष कह सकते हैं। चूँकि ध्रुव तारे को छोड़कर सभी आकाशीय पिण्ड निरन्तर गतिशील हैं और ध्रुव अपेक्षाकृत स्थिर प्रतीत होता है, इसलिए सप्तर्षियों के समूह की वार्षिक गति एक सौर वर्ष में पूर्ण हो जाने तक पृथ्वी पर दो संक्रांतियाँ कर्क और मकर तथा दो अयन उत्तरायण और दक्षिणायन बीत चुके होते हैं। लाखों वर्षों की गणना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न तारों के बीच की दूरी जो सदैव समान और स्थिर नहीं होती अर्थात् मोटे तौर पर दो या दो से अधिक तारों से बने नक्षत्र, सवा दो नक्षत्र से बनी प्रत्येक राशि और संपूर्ण तारामण्डल में सतत परिवर्तन हो रहा है। राहु और केतु (node and anti-node) स्थूल पिण्ड न होकर वे दो काल्पनिक बिन्दु (ध्रुव) हैं जिन्हें अक्ष की तरह मानने पर उस अक्ष के चारों ओर पूरा तारा मण्डल (globe) घूमता है। जैसे कि ग्लोब में स्थित पृथ्वी। चँकि कल्पित राहु (और उसके दूसरे सिरे पर केतु) के आधार पर सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण दोनों का ही समय सुनिश्चित किया जाता है इसलिए राहु-केतु को उस अक्ष की तरह माना जा सकता है जिसके एक तरफ राशियाँ क्रमशः उदित और अस्त होती हैं। पृथ्वी पर स्थित पूर्व और पश्चिम को जोडनेवाली कल्पित रेखा भूमध्यरेखा कहलाती है और उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों को जुड़नेवाली अनेक कल्पित रेखाएँ सभी मिलकर अक्षांश और देशान्तर  (attitude and longitude)  कहे जाते हैं। इन्हें ही अयनांश और  विषवत् रेखाएँ भी कहा जाता है। निवेदन है कि यहाँ पर हुई संभावित भूलों को कृपया स्वयं ही सुधार लें और प्रमाणित भी कर लें।

पृथ्वी पर स्थित किसी स्थान और समय पर आकाशीय राशियों और तारामण्डल तथा ग्रहों-नक्षत्रों के मानचित्र के आधार पर और आठ दिशाओं के दिक्पाल की स्थिति के अनुसार उस स्थान विशेष का और इसी प्रकार किसी मनुष्य-विशेष (जातक) के संभावित भविष्य का अनुमान करने को ज्योतिषीय अनुसंधान कहा जा सकता है। पुनः पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार उपरोक्त प्रत्येक पिण्ड की जाति, आयु और भोग नियति के अनुसार पूर्वनिश्चित हुआ करते हैं। यदि इस अवधारणा को सत्य स्वीकार करें तो अवश्य ही हर वस्तु, पिण्ड आदि के भविष्य, अर्थात् जन्म और मृत्यु के समय और उसके जीवनकाल / आयु का विचार किया जा सकता है।

उपरोक्त विवेचना में चन्द्र, जो कि पृथ्वी का उपग्रह है, सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि जहाँ सूर्य यद्यपि जगत् की आत्मा है, चन्द्र जगत् के मन का ही पर्याय है -

सूर्यः आत्मा जगतस्थश्च।।

(सूर्य अथर्वशीर्ष)

चन्द्रमा मनसो जातः।।

(पुरुष-सूक्त)

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वर्तमान समय में ग्रहगति अत्यन्त विकट होने से इस बारे में ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यद्यपि ग्रह नक्षत्र हमें प्रभावित करते हैं किन्तु यदि हम सावधान रहें तो पहले ही से संभावित संकटों का अनुमान कर अपनी और दूसरों की भी इन संकटों से रक्षा कर सकते हैं। या हम सब कुछ भावी पर भी छोड़ सकते हैं और अपने स्वभाव मा प्रकृति के अनुसार, सुख या दुःख दोनों ही स्थितियों में उदासीन और शान्तचित्त बने रह सकते हैं ।

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