प्रेमास्पद प्रेम है भक्ति
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1987 के सितंबर माह में मेरा प्रमोशन हो गया और मेरा पोस्टिंग और स्थानान्तरण सूरत (गुजरात) में हो गया। वहाँ के प्रबंधक के ही प्रयासों से मुझे सूरत में पोस्टिंग मिली थी। किन्तु उन्होंने पहले ही इस बारे में मेरी इच्छा क्या है यह मुझसे पूछ लिया था। मैं उनसे हाँ भी कहने की मनःस्थिति में नहीं था और ना भी कह पाना संभव न था। वे चाहते थे कि मैं शीघ्र से शीघ्र वहाँ जॉइन कर लूँ और मैं यथासंभव अधिक से अधिक समय तक राजकोट में रहने का इच्छुक था। अंततः यह तय हुआ कि नए वर्ष के प्रथम दिन अर्थात् 1 जनवरी 1988 को मुझे राजकोट छोड़कर सूरत जॉइन करना होगा। मुझे इस हेतु जॉइनिंग पीरियड भी मिला ।
सूरत में अभी जॉइन किए कुछ ही दिन हुए थे। एक दिन मुझे उसकी शादी का निमंत्रण पत्र मिला। दोनों ही बहनों की शादी की तिथि एक ही थी। एक वह जो कि मुझसे मिलती रहती थी, दूसरी वह जो हमेशा मुझसे कतराती रहती थी। उस दिन भी मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या विवाह का यह निमंत्रण-पत्र कहीं किसी भूल से ही तो मुझे नहीं भेज दिया गया था। करीब एक माह बाद जब उसका पत्र आया तब जाकर मुझे यह स्पष्ट हुआ।
भट्टाचार्य जी!
मैं नहीं जानती कि आपको मेरे विवाह का निमंत्रण पत्र मिला या नहीं। मेरे विवाह में आपके आने की संभावना भी कम ही थी। फिर एक दो बार श्रीरामकृष्ण मठ भी गई थी। किसलिए? ठाकुर और माँ शारदा को निमंत्रित करने के लिए। तब आँखें आपको ढूँढ रही थीं। अनेक भावनाओं के भँवर में शायद ही मेरी मनःस्थिति को कोई जान या समझ पाया होगा। जब वहाँ से लौट रही थी तो रास्ते में रेडियो पर कहीं यह गीत बजता सुनाई दिया :
मिलने की खुशी,
न मिलने का ग़म,
ख़त्म ये झगड़े हो जाएँ,
मैं मैं ना रहूँ, तू तू ना रहे,
इक दूजे में खो जाएँ,
इक दूजा में खो जाएँ।
मैं भी पल भर छोड़ूँ ना दामन,
तू भी पल भर रूठे ना,
प्यार का बन्धन,
जनम का बन्धन
जनम का बन्धन टूटे ना,
प्यार का बन्धन टूटे ना!
मिलते हैं जहाँ धरती ये गगन,
...
...
...
उस समय मैं बैंक में था तो खोलकर पढ़ने की फुरसत ही कहाँ थी!
जब घर पर लौटकर आराम से पढ़ा तो मन ठिठककर रह गया। दो तीन दिनों तक तो एक अजीब स्थिति बनी रही, फिर धीरे धीरे सब कुछ स्मृति में बहते बहते अंततः कहीं खो गया।
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