दुःख का कारण
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महानन्दानगर के घर में मैं 05 फरवरी 2000 तक रहा। वहाँ रहना शुरू किया ही था और जब एक दिन पास के शॉपिंग कॉम्प्लेक्स से कुछ सामान खरीदार ले आया था, और दुकानदार ने जिस पुड़िया में सामान दिया था, उस पुड़िया को खोलकर सामान निकाल लेने के बाद उस कागज को देखा तो यह पता चला कि वह किसी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक का एक पृष्ठ था। और उस पर स्व. सुभद्रा कुमारी चौहान के द्वारा रचित कोई कविता लिखी थी। वह उनकी लाड़ली बिटिया के बारे में थी जो मुझे कुछ इस तरह से याद है :
बार बार आती है मुझको,
मधुर याद बचपन तेरी,
गया, ले गया, तू जीवन की,
सबसे बड़ी खुशी मेरी।
इस नये स्थान पर घर में काफी जगह है, पीछे की कच्ची भूमि पर अमरूद के दो बड़े पेड़ हैं जिन पर कुछ छोटे बड़े अमरूद लग रहे हैं। फूलों आदि के और भी पौधे हैं जैसे मीठी नीम, तुलसी, मिर्च जो शायद यूँ ही उग आए होंगे। मोगरा, जूही और चमेली के अलावा फूलों के कुछ ऐसे पौधे भी हैं जिनके नाम मैं नहीं जानता। एक दो बेलें करेले और सेम की भी हैं जिनके बीज जमीन में यूँ ही बो दिए थे। स्व. सुमित्रानंदन पंत की एक कविता :
"आः धरती कितना देती है ..."
उस समय याद आई थी।
और अभी अभी याद आए मीरा के पद्य :
अँसुअन जल सींच सींच प्रेम बेलि बोई
अब तो बेलि फेल गई आणंद फल होई।
मनी प्लांट की भी दो तीन बेलें हैं जिनकी जड़ें जमीन के भीतर ईंटों की बनी क्यारी से बाहर तक पैठ गई हैं। उन्हें उखाड़ कर वापस क्यारी में ठेल दिया तो वे एक दूसरे से कहती सुनाई दीं :
"ये अंकल तो बड़े निष्ठुर हृदय जान पड़ते हैं!"
अनेक स्मृतियों की अनेक बेलें, जिनकी जड़ें चित्त की भूमि में गहराई तक पैठी होती हैं। कुछ कटु, कुछ तिक्त, कुछ छुई-मुई नामक, लेकिन उगने के बाद बहुत कँटीली हो जाती हैं, जिन पर सुंदर लाल फूल बड़ी शान से तना खड़ा दिखाई देता है, जिसमें पँखुड़ियाँ नहीं, बस रोएँ ही होते हैं - बॉटल-ब्रश या वीपिंग विलो के फूलों जैसे।
सुभद्रा जी की कविता में अंत में कुछ यूँ था -
"... मिट्टी खाकर आई थी,
कुछ मुँह में, कुछ लिए हाथ में,
मुझे खिलाने आई थी!
मैंने पूछा यह क्या है,
भोलेपन से बोली वह,
माँ, लो तुम भी काओ!
मैंने कहा -तुम्हीं काओ!!"
बगीचे में घूमते हुए यह सब याद आया और मेरे मन में विचार आया काश! मुझे भी तो एक बार ऐसा ही जीवन जीने को मिलता।
यह कामना है - निर्दोष, निश्छल, निष्काम, निष्कपट।
फिर भी प्रायः तथाकथित महात्मा जाने क्यूँ जन्म-मृत्यु के चक्र को "दुःख" कहते हैं। और गीता में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण भी जीवन (या संसार) को
दुःखालयमशाश्वतम् ।।
कहते हैं, तो फिर, क्या इस कौतूहल और कामना के साथ मरने पर मुझे भी फिर से जन्म लेना पड़ेगा? इस छोटी सी एक कामना के कारण? क्या जीवन वस्तुतः दुःख है? या जीवन से आसक्ति ही दुःख और दुःख का एकमेव कारण है? गीता में ही पुनः भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं :
श्री भगवानुवाच -
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।।
गतासूनगतासूँश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।११।।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।।
न चैव भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१३।।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा।।
आगमापायिनोऽनित्या तान् तितिक्षस्व भारत।।१४।।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।१५।।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।
अध्याय २ के उपरोक्त ११ से १६ तक के श्लोकों का यही अर्थ हुआ कि जीवन नित्य, सनातन वास्तविकता है, जो अनेक देहों से, बचपन, यौवन और वृद्धावस्था से गुजरने के बाद भी जन्म-मृत्यु से रहित है। यदि यह सत्य है तो कामना भी उसी चक्र का अपरिहार्य अंग है। फिर कामना नहीं, आसक्ति ही निन्दनीय और बंधन (का) कारण है, सुखभोग या भोग की लालसा ही जन्म या पुनर्जन्म का कारण होने से निन्दनीय है, न कि स्वयं जीवन ।
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