Question प्रश्न 73.
मनुष्यता के ज्ञात-अज्ञात इतिहास में, किस घटना को एकमात्र भूल कह सकते हैं?
What could be pointed out as the only wrong in the whole History the Mankind?
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व्यक्ति, समूह और समष्टि मनुष्य की चेतना का विकास और उत्परिवर्तन तीन विधियों से हो सकता है। इन तीन विधियों को क्रमशः ज्ञान, योग और तंत्र कहा जाता है।
ज्ञान वह विधि या उपाय है, जो अवलोकन, अन्वेषण और अनुसन्धान पर अवलम्बित होता है। इस उपाय से घटित उत्परिवर्तन (mutation of body-mind) साँख्य ज्ञान कहलाता है, जिसमें संपूर्ण काल और स्थान सहित, ज्ञात और अज्ञात अस्तित्व को प्रथमतः तो प्रकृति और पुरुष और उनके ज्ञान, अर्थात् क्रमशः ज्ञाता, ज्ञेय (ज्ञात एवं अज्ञात) तथा ज्ञान इन तीन कोटियों में वर्गीकृत कर दिया जाता है जो पुनः अवलोकन, अन्वेषण और अनुसन्धान की तरह की ही एक प्रस्थानत्रयी है।
इस त्रयी को दृग्, दृश्य एवं दर्शन की त्रयी में रूपांतरित करने के पश्चात इस प्रकार प्राप्त विवेक के प्रयोग से पुनः तीनों का विलय केवल दृग् में कर दिया जाता है। यही साँख्य दर्शन में वर्णित चेतन पुरुष है।
दूसरी विधि या उपाय में इस चेतन पुरुष को अन्य पुरुष, मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष इस प्रकार से वर्गीकृत कर दिया जाता है क्योंकि इन्ही तीन सर्वनामों का प्रयोग वह, तुम और मैं अर्थात् क्रमशः तत्, युष्मद् और अस्मद्, - इन तीन रूपों में किया जा सकता है।
पुनः इस आभासी भिन्नता का विलय उत्तम पुरुष में कर दिया जाता है अर्थात् उन तीन का परस्पर विलय कर दिया जाता है। इसे ही योग कहते हैं। दोनों उपाय यद्यपि भिन्न प्रतीत होते हैं किन्तु चूँकि उनसे एक ही फल प्राप्त किया जाता है इसलिए उन्हें एक दूसरे का पर्याय कहा जाता है -
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।
(अध्याय ३)
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमपि आस्थितं सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
(अध्याय ५)
उपरोक्त दोनों से भिन्न तीसरा उपाय है तन्त्र का जिसमें आचरण की शुद्धता के प्रयोग से परम श्रेयस् की प्राप्ति की जाती है।
ज्ञानरूपी उपाय के अधिष्ठाता देवता ब्रह्मा हैं, योगरूपी उपाय के अधिष्ठाता देवता विष्णु हैं और तन्त्ररूपी उपाय के अधिष्ठाता देवता शिव हैं।
तीनों ही उपायों का अधिकारी भिन्न भिन्न हो सकते हैं और अपने अधिकार और पात्रता के अनुसार ही कोई किसी एक का अधिकारी या अनधिकारी हो सकता है। और इसी प्रकार से इन उपायों का शिक्षक या आचार्य भी अधिकारी या अनधिकारी हो सकता है।
वेद में "विवाह" नामक व्यवस्था का उद्देश्य वर्ण आश्रम की परंपरा को शुद्ध रखने और इस प्रकार से सामाजिक नैतिकता और आचरण के आदर्श के निर्वाह के ध्येय की प्राप्ति के लिए निर्धारित किया जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक दृष्टव्य है -
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।
तयोस्तु कर्तारं मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
(अध्याय ४)
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।११।।
(अध्याय ७)
इस प्रकार किसी भी एक प्रकार की निष्ठा से वैदिक धर्म के आचरण (आचार) से मनुष्य को सर्वोत्तम ध्येय श्रेयस् की प्राप्ति हो सकती है।
किन्तु विधि-निषेध और वर्ण-आश्रम से भिन्न सामाजिक व्यवस्था में वाम-तन्त्र के अनुसार उस कर्म के अनुष्ठान को अभिचार या वाम-तन्त्र कहा जाता है जिससे किन्हीं दूसरे शुभ अथवा ध्येयों की प्राप्ति की जा सकती है। जैसे मारण, मोहन, उच्चाटन, स्तंभन, विद्वेषन, मूर्च्छनम् आदि। इनका प्रयोग करनेवाले को इसका कर्मफल भी अवश्य प्राप्त होता है जिसका भोग भी अभिचार क्रिया करनेवाले को अवश्य ही भोगना होता है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
तन्त्र की व्यवस्था में इस प्रकार के वैदिक विवाह का न तो निषेध है, न ही आग्रह है किन्तु तन्त्र को भी वाम-तन्त्र और दक्षिण-तन्त्र के दो प्रकारों के तन्त्र में वर्गीकृत किया जा सकता है। दक्षिण-तन्त्र वैदिक सिद्धान्त पर आधारित होने से "विवाह" को नैष्ठिक संस्कार के रूप में मान्यता प्रदान करता है। वाम-तन्त्र में विवाह का न तो निषेध है और न ही आग्रह है। फिर भी दोनों के लिए चित्त की शुद्धि अपरिहार्यतः आवश्यक है। चित्त की इस प्रकार से शुद्धि होने पर ही कोई मनुष्य वाम-तन्त्र का अधिकारी हो सकता है।
वैदिक हो या तान्त्रिक, दोनों प्रकार के उपाय का प्रयोग करनेवाला भी चित्त की अशुद्धि होने से चित्त में उत्पन्न विकार के कारण इस प्रकार से विकृत-चित्त हो जाता है, और मिश्रित-चित्त के प्रभाव से लक्ष्यच्युत होकर विनष्ट हो जाता है।
इस विकृतचित्त से होनेवाले अभिचार को ही व्यभिचार कहा जाता है। परंपरा के दूषित होने के ही कारण ऐसे मनुष्य और मनुष्यों के समूह धर्म के नाम पर आडम्बर और दंभ से ग्रस्त हो जाते हैं और स्वयं के साथ संसार के भी अधःपतन का कारण बन जाते हैं।
भौतिक स्वतंत्रता के नाम पर ऐसा उद्दाम और उच्छृंखल आचरण करनेवाले अज्ञानी, धर्म में श्रद्धा से रहित, संशय रखनेवाले मनुष्यों के लिए ही निम्नलिखित श्लोक कहा जाता है :
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।
यूँ तो मनुष्य के सांस्कृतिक इतिहास में ऐसी भूल समय समय पर होती रही है किन्तु वर्तमान में यह पराकाष्ठा पर पहुँची हुई है। मनोरंजन और ज्ञान के आजकल के प्रमुख माध्यम इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग ने दिन दूनी रात चौगुनी की गति से इसे संभव कर दिया है।
अपरिपक्व मन-मस्तिष्क, दूषित संस्कारयुक्त मन इस प्रकार द्रुत गति से इस प्रवंचना का शिकार हो रहे हैं।
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