May 15, 2024

72. प्रेरणा का उद्गम

Question / प्रश्न  72.

पिछले Question / प्रश्न 71 के क्रम से-- आगे --

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प्रकृति और जीवन

जीवन स्वयं ही जीवन का प्रारंभ और अंत भी है और इस प्रारंभ और अंत के बीच विद्यमान "कोई" , जो उस प्रकृति का ही एक अंश होते हुए भी मानों उससे अपने आपको जीवन से पृथक्

"जीनेवाला कोई" और "मैं"  जानता है। माता के गर्भ में स्थित "कोई" शिशु जन्म लेने से पहले जैसे माता से अभिन्न और अपृथक् होता है, किन्तु उसका जन्म हो जाने के बाद जिसमें माता से भिन्न और पृथक् होने और अपने स्वतंत्र रूप से "मैं" की तरह होने का भान प्रकट होता है। माता के रूप में अपने 'होने'  का यह भान उसमें तब भी विद्यमान होता है जिस समय वह माता के गर्भ में होता है, किन्तु क्या उस समय उसमें माता से अपने भिन्न और स्वतंत्र होने की भावना भी रही होगी? शायद इसका कोई सुनिश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। जब तक वह शरीर माता के गर्भ में था तब तक वह पूरी तरह से माता पर ही आश्रित और परतंत्र ही था।वैज्ञानिकों के मतानुसार भी तब भी उसमें स्वयं के माता से भिन्न और पृथक् किन्तु अपने माता पर आश्रित होने की भावना विद्यमान थी ही। जन्म हो जाने के उपरान्त माता के प्रति यह भावना भी विलीन हो जाती है। ठीक इसी प्रकार से शरीर प्रकृति रूपी गर्भ में उत्पन्न होकर भी बाद में प्रकृति से भिन्न "मन" होकर उस माध्यम से अपना स्वतंत्र अस्तित्व होने की भावना से युक्त हो जाता है। जैसे गर्भ में शिशु गर्भनाल से अपनी माता से पोषण प्राप्त कर विकसित होता है, उसी प्रकार से जन्म हो जाने के उपरान्त प्रकृति से रूपी माता से पोषण प्राप्त करता रहता है और उससे अपने भिन्न और पृथक्, स्वतंत्र होने की कल्पना कर लेता है। अन्न, जल, वायु आदि प्रकृति के ही तो तत्व हैं जिन्हें ग्रहण कर, उनसे शक्ति तथा पोषण प्राप्त करता है। चूँकि समस्त जीवन प्रकृति और प्रकृति ही समस्त जीवन है, इसलिए उससे अपना भिन्न और पृथक्, स्वतंत्र अस्तित्व होने की यह कल्पना मूलतः "मन" का वैचारिक विभ्रम ही होता है।

इसी "मन" को यद्यपि पुनः पुनः "मैं के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है किन्तु उसके आश्रय और अधिष्ठान रूपी प्रकृति का विस्मरण हो जाता है। "मन" ही "मैं", "प्रेरणा", है जिसे "इच्छा" और "संकल्प" के रूप में जाना जाता है, और  यह "जाननेवाला" भी पुनः यही "मन"  अर्थात् समस्त "ज्ञात" / "मैं"

इस प्रकार से व्यक्ति स्वयं के जन्म और मृत्यु से ग्रस्त होने की कल्पना कर लेता है, कल्पना भी क्षणिक वैचारिक मान्यता भर होती है, जिसे अनवधानता / प्रमादवश ही सत्य समझ लिया जाता है। तो फिर सत्य  क्या है? 

न त्वेवाहं जातु नासं

न त्वं नेमे जनाधिपाः।।

न चैव भविष्यामः

सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

(गीता अध्याय २)

तो जिसे व्यक्ति समझा जाता है वह नहीं,  बल्कि वही सत्य है जो काल से अछूता, अबाध, नित्य, सनातन और शाश्वत भी है। उसकी तुलना में "व्यक्तिरूपी"/"स्वयं"  क्षणिक और अनित्य वैचारिक कल्पना है, जो कि क्षण क्षण उठती और विलीन होती रहती है। स्मृतिक्रम और स्मृतिभ्रम के ही आधार से इसे सत्यता प्रदान कर दी जाती है। इस प्रकार काल और कल्पना से रहित और अबाधित वास्तविकता ही स्वरूपतः हम हैं - सर्वे वयमतः परम्।। 

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