क्या उसकी 'मृत्यु' हो जाएगी!
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Question / प्रश्न 75.
औरों की ही तरह उसकी भी सामान्य और असामान्य सी एक जीवन कथा है। एक पुरुष और एक स्त्री के परस्पर टकराने से स्त्री के गर्भ में एक मांस-पिण्ड बना। अब यह जाहिर ही है कि गर्भ स्त्री में ही हो सकता है, न कि पुरुष में, यद्यपि जैसा श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णन है, और भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है, यह भी सत्य होगा :
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।।
जहाँ प्रकृतिरूपी महत्तत्व को ही योनि कहा गया है और जिससे समस्त व्यक्त जगत उत्पन्न होता है।
तात्पर्य यह हुआ कि पुरुषोत्तम परमात्मा परम-पुरुष, उत्तम-पुरुष के द्वारा गर्भाधान किए जाने पर प्रकृतिरूपी योनि में जगत-बीज का गर्भ के रूप में जन्म हुआ करता है। यहाँ अहं / अहम् नाम उस तत्व का है जो कि महत्तत्व प्रकृति से भी उच्चतर है, क्योंकि शुद्ध प्रकृति तो जड तत्व होने से रूपान्तरित तो हो सकती है, स्वतन्त्र रूप से किसी नए अस्तित्व की रचना नहीं कर सकती, उसे जन्म नहीं दे सकती। उसका ही प्रत्येक अंश (या ऐसे ही सभी असंख्य अंशों में से प्रत्येक ही) जड होता है, और जगत के एक अंश के रूप में रूपान्तरित तो हो सकता है चेतन नहीं होता। उसमें स्वतन्त्र चेतना और ज्ञान का उन्मेष उत्तम पुरुष के स्पर्श होने पर ही हो पाता है।
इस प्रकार प्रकृति के एक अति सूक्ष्म अंश में जीवन का स्पर्श होने पर अहं-चेतना का स्फुरण हुआ, तो यह चेतना विकसित होकर व्यष्टि-चेतना की तरह जगत चेतना का अंश होते हुए भी अपने आपके स्वतन्त्र अस्तित्व होने की मिथ्या प्रतीति से बद्ध होकर जीव-विशेष हुई।
तत्पश्चात उस मांस-पिण्ड की पहचान इस प्रकार से एक प्राणी विशेष के रूप में उस जैसे ही असंख्य दूसरे अंशों की तरह स्थापित हुई।
इस नई पहचान के आगमन से पहले भी यह बोध उसमें विद्यमान था किन्तु तब वह समष्टि प्रकृति और पुरुषोत्तम से भी अनन्य ही था, और इस रूप में परमात्मा ही था।
क्या इस नई पहचान के उद्भव के बाद वह परमात्मा से विच्छिन्न हो गया?
किन्तु इस पहचान ने ही उसकी स्मृति में परिणत होकर उसमें यह भ्रम पैदा कर दिया कि वह अपने इस जगत में नितान्त अकेला और अपूर्ण है और इस अपूर्णता-बोध के उत्पन्न होने पर ही उसमें पूर्ण हो सकने की कामना और पूर्ण न हो पाने की आशंका ने जन्म लिया। उसे लगा कि कोई ईश्वर वह है जो पूर्ण अर्थात् परम पूर्ण है, और वह यह न देख सका कि यदि वह उससे पृथक् हो तो दोनों में से प्रत्येक ही अधूरा और अपूर्ण है।
इस मिथ्या अनुमान से उसे उस परम पूर्ण और कल्पित ईश्वर से ईर्ष्या होने लगी। वह उस ईश्वर से भयभीत रहने लगा और भयभीत होने से वह उसे प्रसन्न करने की चेष्टा, उसकी प्रार्थना करने लगा :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।
इस प्रकार इच्छा और द्वेष के संयुक्त प्रभाव से जन्म से ही उसमें संमोह (प्रमाद) उत्पन्न हुआ, जिससे अनभिज्ञ होने से वह और भी दुःखी होने लगा। तब उसने ईश्वर के बारे में सोचना बन्द कर दिया और संकल्प तथा श्रम से इस जगत में ही संघर्ष करते हुए सांसारिक संपत्ति और वस्तुओं की प्राप्ति करने का यत्न करने लगा। इस यत्न में वह कभी तो सफल तो कभी असफल भी होता रहा। धीरे धीरे उसकी इन्द्रियाँ क्षीण होने लगी उसके बल और शक्ति का ह्रास होता रहा। वह क्रमशः जरा-जीर्ण होकर मृत्यु की बाट जिसने लगा। फिर भी संसार के आकर्षण, भूख और प्यास, रोग और व्याधि, निर्धनता और उपेक्षा से पीड़ित होता हुआ अंततः एक दिन वह चल बसा। वह यह तक कभी न समझ पाया कि क्या औरों की तरह उसकी भी एक दिन मृत्यु हो जाएगी! क्या तब वह समाप्त हो जाएगा! यदि ऐसा ही होना है, तो उसकी इस सामान्य या असामान्य जीवन-कथा का, इस नाटक का क्या तात्पर्य, और क्या प्रयोजन था!
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