May 24, 2024

उस शहर में उन दिनों

भक्तिनगर 

--

वर्ष था 1985, और तारीख थी दिसंबर के पहले-दूसरे हफ्ते की।

तय हुआ कि अभी तो उज्जैन से जाना है।

बैंक में अर्जी दे दी कि व्यक्तिगत कारणों से मैं उज्जैन से अन्यत्र कहीं स्थानान्तरित होना चाहता हूँ।

अधिक प्रतीक्षा नहीं करना पड़ी। तीसरे ही दिन बैंक के  मुख्य विभागीय कार्यालय से फ़ोन भी आ गया कि मैं बात करूँ। उन दिनों एस टी डी पर बात होती थी। मुझसे पूछा गया कि राजकोट (गुजरात) या थाँदला (जिला झाबुआ, म. प्र.) में से किस स्थान पर मैं जाना चाहूँगा। मैंने बिना देर किए राजकोट के लिए सहमति दे दी। तीसरे दिन ही मेरे लिए वहाँ स्थानान्तरित होने का आदेश जारी हो गया और अगले ही दिन बैंक में जाते ही मुझे वहाँ जाने के लिए अपने आफिस से कार्यमुक्त किए जाने का पत्र (रिलीविंग लेटर) भी मिल गया।

दोपहर में मेरी विदाई के लिए छोटी सी फेयरवेल पार्टी भी रखी गई। 1985 के दिसंबर 14 के दिन। 

राजकोट में जाने के दूसरे ही दिन पता चला कि वहाँ पर रामकृष्ण मठ और मन्दिर है। एक वाचनालय भी है। जब तक भक्तिनगर के सामनेवाले घर में रहा, हर दिन ही एक या दो बार वहाँ जाया करता था। सुबह और / या शाम। वाचनालय में अख़बारों के अलावा ऐसा और कुछ पढ़ने के लिए नहीं था लेकिन अख़बारों में काफी रोचक लेख आदि मिलते थे। मैं प्रायः अधिक समय तो मठ-मन्दिर में ध्यान करने में ही बिताया करता था। वहीं एक गुजराती लड़की से दोस्ती हो गई लेकिन उसे पता था कि उसके और मेरे संबंधों की मर्यादा क्या है। इसलिए मन्दिर और मठ के बाहर शायद एक या दो ही बार उससे मुलाकात हो पाई। हम बस सीढ़ियों पर बैठे रहते या मन्दिर मठ से बाहर थोड़ी दूर तक वॉक करते रहते थे। उसका घर वहीं आसपास था लेकिन उसने कभी बुलाया तक नहीं। कभी कभी वह मेरे लिए घर पर बनी कोई चीज ले आती थी, मैं उसके साथ कभी कभी आइसक्रीम खाया करता था। उसकी एक बहन थी जो कभी कभी मन्दिर मठ में आती थी लेकिन पहचान होने पर भी मुझसे मिलने से कतराती थी। फिर एक दिन पता चला दोनों बहनों की शादी होने वाली थी। उसके बाद उससे मिलना जुलना पूरी तरह से  खत्म हो गया। कभी कभी लगता था कि उसे मुझसे प्रेम रहा होगा लेकिन न तो उसने न मैंने कोई पहल इस बारे में कभी की।

ऐसे ही किसी दिन मैं भगवान् श्री ठाकुर की प्रतिमा के समक्ष किन्तु बहुत दूर उस हॉल में बैठा आँखें बन्द किए जप करता हुआ बैठा हुआ था। हॉल में प्रायः हर सत्र में दर्शकों के लिए मन्दिर के पट खुलते ही तीन चार भक्त हार्मोनियम और एक दो अन्य वाद्य उपकरण लेकर आया करते थे। फिर अत्यन्त कोमल स्वरों में किसी भक्तिगीत या प्रार्थना आदि का गान या पाठ करते थे। लगभग दस से बीस मिनट बाद अपना साजो-सामान उठाकर वहाँ से चल देते थे। मैं उस समूह से पर्याप्त दूर किसी जगह पर बैठकर जप, ध्यान आदि करता रहता था। ऐसे ही एक दिन सुबह जब ध्यान हो जाने के बाद आँखें खोलीं तो देखा कि वह थोड़ी दूर पर बैठे हुए मुझे उड़ती दृष्टि से देख रही थी। पहले भी एक बार ऐसा ही हुआ था। इससे मन में संदेह उत्पन्न हुआ कि शायद वह मुझे जानती हो। लेकिन राजकोट में मेरा परिचय इतने कम लोगों से था कि इसकी संभावना कम ही थी। मन्दिर में श्रीरामकृष्ण (ठाकुर) और माँ शारदा की प्रतिमाओं के साथ एक और प्रतिमा स्वामी विवेकानन्द की भी थी। अब मुझे ठीक से याद नहीं। प्रायः दर्शन कर लेने के बाद मैं लौटने से पूर्व कक्ष की प्रदक्षिणा करता था और प्रदक्षिणा के ही रास्ते पर रखे चीनी मिट्टी के एक पात्र से चरणामृत लेकर चला जाता था। ऐसे ही एक बार वह मेरे पीछे पीछे आ रही थी और मैं चरणामृत लेने के लिए जब रुका तो उसने मुझसे पहले उसे चरणामृत प्रदान करने का अनुरोध किया। मैंने उसका अनुरोध स्वीकार कर लिया। संभवतः एक बहाना रहा होगा परिचय स्थापित करने का। लेकिन इस बारे में मैंने कभी नहीं सोचा। फिर एक दिन जब मैं ध्यान करने के बाद सीढ़ियों पर कुछ मिनट के लिए बैठा ही था कि वह भी पास आकर बैठ गई। मुझसे बोली : "आप बाहर से आए हुए लगते हैं।"

मैंने उत्तर में सिर हिलाकर "हाँ" कहा।

"आप बहुत समय तक ध्यानमग्न रहते हैं!"

पता नहीं यह जानकारी थी, या प्रश्न। 

किन्तु मैंने इसका कोई उत्तर उसे नहीं दिया।

फिर प्रायः वह मुझसे मिलने और बातें करने लगी, किन्तु हमने एक दूसरे का नाम तक जानने का प्रयास भी कभी नहीं किया। बस एक मंद स्मित से वह मेरा स्वागत किया करती और मैं भी उतनी ही मंद मुस्कान से उसे प्रत्युत्तर देता। याद नहीं कब तक यह सिलसिला ऐसा ही चलता रहा। वहाँ प्रार्थना आदि करनेवाले भक्तवृन्द में से एक थे जितेन्द्र भाई। जो बैंक में प्रायः आते थे। जब अपने बैंक के किसी काम के लिए किसी और को बैंक में भेजते तो उसे मेरा परिचय "भट्टाचार्य बाबू" के नाम से दिया करते थे। बहुत समय बाद मुझे किसी ने बताया कि मेरे बारे में इसलिए ऐसा हुआ क्योंकि उन दिनों टी वी पर प्रसारित होनेवाले  "ये जो है जिन्दगी" नामक धारावाहिक में एक पात्र का नाम "भट्टाचार्य" ही होता था। सतीश कौशिक इस पात्र का अभिनय करते थे। हालाँकि मेरे पास कभी टी वी था ही नहीं इसलिए भी इस रहस्य से मैं अनभिज्ञ ही रहा। इसका एक कारण तो संभवतः यह था कि मैं किसी हद तक उसके जैसा दिखाई देता था, दूसरा यह भी कि मैं श्रीरामकृष्ण मठ में भी जाया करता था। तो मुझे बंगाली समझा जाता होगा। यह एक संयोग ही था।

उस लड़की से यदा कदा ध्यान और आध्यात्मिक साधना के ही बारे में थोड़ी बहुत बातचीत हुआ करती थी। इसके अलावा बात करने के लिए हमारे पास कोई अन्य विषय था भी नहीं। दोनों ओर से संकोच के ही कारण दोनों में से किसी ने आगे बढ़ने के लिए पहल नहीं की।

*** 



No comments:

Post a Comment