May 07, 2024

भर्तृहरि और प्रेमचन्द

राजा भर्तृहरि और मुंशी प्रेमचन्द 

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मैं मानता हूँ कि इन दो महान व्यक्तियों की तुलना करना अनुचित और विचित्र भी है, दोनों समसामयिक भी नहीं थे, किन्तु रचनाकार की दृष्टि से शायद दोनों की तुलना की जा सकती है। 

राजा भर्तृहरि ने नीतिशतकम्, शृङ्गारशतकम् और शायद अन्त में वैराग्यशतकम् की रचना संस्कृत भाषा में की। 

मुंशी प्रेमचन्द ने साहित्यिक लेखन का प्रारम्भ उर्दू लिपि में हिन्दी भाषा में लिखने से किया। उन्होंने फिल्मों में भी भाग्य आजमाने की कोशिश की होगी ऐसा अनुमान है। पता नहीं इस कोशिश में कितने कामयाब हुए, या नहीं हुए लेकिन हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखना शुरू करने के बाद वे बेशक बहुत सफल हुए।

जब मैं 16-17 वर्ष की उम्र का था तो उनकी पुस्तकों से मेरा परिचय हुआ। छुट्टियों में फुरसत भी होती थी और मन भी लगा रहता था।

गोदान, मानसरोवर, प्रेमसदन(?), कहानियाँ और दूसरी रचनाएँ पढ़ने के बाद रंगभूमि और कर्मभूमि उपन्यास। और उनकी कुछ कहानियाँ जैसे - पंच परमेश्वर, कफ़न आदि स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में भी पढ़ने को मिलती थीं लेकिन मेरे मन में एक प्रश्न उठा करता था कि जैसे राजा भर्तृहरि ने नीतिशतक, शृङ्गारशतक और वैराग्यशतक की रचना की, क्या मुंशी प्रेमचन्द को योगभूमि या ज्ञानभूमि लिखने का खयाल कभी नहीं आया होगा!

क्या भारतीय संस्कृति, धर्म और अध्यात्म में कोई रुचि नहीं थी और वे केवल विशुद्ध भौतिकवादी राजनीतिक यथार्थ पर आधारित साहित्य की ही रचना करते थे?

मुझे नहीं मालूम कि साम्यवादी और समाजवादी सोच से प्रभावित होने के बावजूद स्वतंत्रता संग्राम के लिए क्या उन्होंने कोई सक्रिय या परोक्ष कार्य किया? मेरे प्रिय दो लेखक निर्मल वर्मा और गजानन माधव मुक्तिबोध थे। ये भी किसी हद तक कम्यूनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे, किन्तु दोनों का ही उससे मोहभंग हो गया, ऐसा प्रतीत होता है। रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वरनाथ रेणु ( परती परिकथा, मैला आँचल) जैसे लेखकों की रचनाएँ भी मुझे अच्छी लगती थीं, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय और शरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय भी वैसे ही लेखक थे। आनन्दमठ और पथ के दावेदार, निर्मल वर्मा द्वारा लिखी - एक चिथड़ा सुख, वे दिन, कौए और काला पानी मैंने अनेक बार पढ़े, आज भी मिल जाए तो अवश्य ही पुनः पढ़ना चाहूँगा, किन्तु मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखी ऐसी कोई पुस्तक हो, मुझे याद नहीं आता। 

कभी कभी यह सोचकर दुःख होता है कि ऐसे कितने ही प्रतिभाशाली हिन्दी-लेखक थे, जिन्होंने अपनी साहित्य साधना में क्या ऐसा कुछ अमूल्य पाया जिसे वे संसार, मानवता और देश को नहीं दे सकते थे?

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