Elements of The Unknown.
अज्ञात / कर्म के तत्त्व
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प्रेरणा, इच्छा, बाध्यता, स्वतंत्रता, प्रारब्ध, नियति
जिसे व्यवहार में "कर्म" शब्द से निरूपित किया जाता है, उसके घटित होने में उपरोक्त छः तत्त्व निर्विवाद रूप से अपरिहार्यतः कम या अधिक महत्वपूर्ण "कारण" माने ही जाते हैं। और यद्यपि उपरोक्त छः तत्त्वों के स्वरूप के बारे में किसी प्रकार का संशय और मतभेद परस्पर नहीं होता है, या शायद होता भी हो तो इस पर कभी शायद ही किसी का ध्यान जाता है। किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण जो कारण प्रत्यक्षतः अनुभव किया जाता है, वह प्रेरणा ही है। "ज्ञात" के रूप में "अज्ञात" की यही प्रत्यक्ष और प्रथम अभिव्यक्ति होता है।
इस सब पर विचार करते हुए "कृत्य", "कर्तृत्व", "कर्ता", और "कर्तव्य" आदि शब्दों या उनका संभावित तात्पर्य क्या हो सकता है इस सब पर शायद ही किसी का ध्यान कभी जाता हो। यहाँ तक कि "कर्म" के घटित होने से पहले या बाद में भी प्रायः किसी के लिए कोई कल्पना ही नहीं होती है। "कर्म" के घटित होने या घटित किए जाने के प्रयासरूपी "कृत्य" पर अवश्य ही थोड़ी बहुत या शायद अत्यन्त जटिल और गंभीर विवेचना भी की जाती हो, और उसे "कौन" करता है, "किसने" किया या नहीं किया, "कौन" कर सकता है, "कौन" नहीं कर सकता, "किसका" "कर्तव्य", "दायित्व" आदि है यह सब भी प्रत्यक्षतः सभी को विदित होता ही है, किन्तु "कर्ता" वस्तुतः सदैव अनुमानित ही रह जाता है, जिसे किसी न किसी मूर्त वस्तु, व्यक्ति, या अमूर्त अवधारणा (abstract concept) पर आरोपित कर दिया जाता है, जैसे परिस्थिति, मौसम, भाग्य, विचार या कोई वैचारिक सिद्धांत आदि। उदाहरण के लिए समाज, सरकार, बुद्धि, संस्कार, प्रवृत्ति, चरित्र, राजनीति, धर्म, भगवान, समुदाय इत्यादि। स्पष्ट है इन विभिन्न, अमूर्त अवधारणाओं और मान्यताओं को न तो पूरी तरह से प्रमाणित ही किया जा सकता है, और न ही अप्रमाणित, या उन पर संदेह या प्रश्न ही उठाया जा सकता है।
फिर भी अपने आपको या किसी और वास्तविक व्यक्ति, समुदाय, समूह, या अमूर्त कारक (agent) या कारण (cause) को निमित्त मानकर उसे ही एकमात्र "कर्ता" की तरह से स्वीकार कर लिया जाता है।
इस प्रकार उस "अज्ञात और अनुमानित कर्ता" की सभी घटनाओं, कार्यों, कृत्यों के रूप में पहचान को सर्वप्रथम तो "प्रेरणा" का नाम दिया जा सकता है।
प्रेरणा के जागृत होने के बाद ही उसे इच्छा, बाध्यता, स्वतंत्रता, प्रारब्ध और नियति कह दिया जाता है। "प्रेरणा" तो सदैव "चेतन" ही होती है, जो सदैव और अपरिहार्यतः यद्यपि वर्तमान और नित्य भी होती है, किन्तु "कृत्य", "घटना", "कर्म", "कर्ता", "कर्तृत्व", "कर्तव्य" "अकर्तव्य" आदि सदैव "स्मृति" या "अतीत" या कल्पित "भविष्य" में ही हो सकते हैं। पातञ्जल योगसूत्र के शंकराचार्य तृण भाष्य में अतीत की व्याख्या स्मृति और भविष्य की अनुमान (प्रमाण के रूप में) दोनों ही प्रकार से "वृत्ति" कहकर की गई है। वृत्तिमात्र ही मूलत घटना, कार्य या कृत्य है, और स्वतंत्रता, कर्म, करतया, कर्तृत्व कर्तव्य और कृत्य की मान्यता / अवधारणा भी पुनः विचार / (thought) भी पुनः विचार या वृत्ति ही है
यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि वेदान्त के सभी ग्रन्थों में "विचार" पद / शब्द का व्यवहार अनुसन्धान के अर्थ में किया जाता है, जबकि वृत्ति पद / शब्द का व्यवहार चित्त की गतिविधि के प्रकार के अर्थ में।
इसीलिए जब "कर्ता" के रूप में स्वयं को इंगित किया जाता है तो एक विरोधाभास पैदा होता है। तर्क की दृष्टि से भी "स्वयं" के द्वारा अपने आपको "इंगित" करना संभव ही नहीं। इसीलिए जब भी व्यवहार के धरातल पर कोई औपचारिकतः ही सही, केवल आवश्यक होने पर ऐसा करता भी है, तो भी "स्वयं" / "आत्मा" द्वैत में परिणत नहीं हो जाती। "स्वयं" को त्रुटिपूर्ण ढंग से इस प्रकार परिभाषित करना ही अज्ञान है, और इस अज्ञान पर ध्यान न जा पाने को ही :
"प्रमाद" / In-attention
कहा जा सकता है।
यह "प्रमाद" / In-attention
भी पुनः दो रूपों में हुआ करता है :
तादात्म्य / वृत्तिसारूप्य / Identification,
और अन्यमनस्कता / absent-mindedness.
"प्रमाद" / In-attention, जन्मजात होता है और इससे ही ग्रस्त "चित्त" / "consciousness" इच्छा और द्वेष आदि द्वन्द्वों में फँसा होता है। गीता अध्याय ७ Gita chapter 7, verse 27 के अनुसार :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।
इसी प्रकार जन्म से ही सभी मोहग्रस्त होते हैं।
इसी से ग्रस्त चित्त में विषयों से तादात्म्य होने के कारण ही चित्त कभी सुखी, दुःखी, उद्विग्न, अशान्त, व्याकुल और कभी कभी किसी भी विषय से तादात्म्य न हो पाने की स्थिति में सुषुप्ति में शान्ति और सुख का भोग करता है, या जागृत दशा में अन्यमनस्क भी हो जाया करता है। इतना ही रोचक तथा ध्यान देने योग्य एक तथ्य यह भी है कि प्रत्येक मनुष्य सुषुप्ति deep dreamless sleep या अन्यमनस्कता absent-mindedness की दशा स्वयं ही जानता भी है। इसलिए प्रमाद पर ध्यान देना (attention of In-attention) ही वह एकमात्र उपाय है जिससे मनुष्य के लिए :
प्रेरणा, इच्छा, बाध्यता, स्वतंत्रता, प्रारब्ध और नियति, कर्म, कृत्य, कर्तृत्व, कर्तव्य यहाँ तक कि कर्मफल आदि सभी का प्रश्न ही असंगत हो जाता है।
गीता अध्याय ५ Gita chapter 5
के निम्न श्लोक दृष्टव्य हैं --
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।
नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
ज्ञानेन तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।१६।।
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