आओ कि ज़ख्म हरे कर लें !
क्योंकि इस दुनिया की तमाम तकलीफों की वज़ह हम ही हैं !
क्योंकि हमारे दिलों में अब, वह कोना नहीं पाया जाता,
जो पहले कभी इंसानों के दिलों में हुआ करता था,
-हमेशा से ।
आओ कि ज़ख्म हरे कर लें ।
हमारे घर से गायब है,
-अब आँगन !
क्या आपने नहीं महसूस किया कभी ?
और गौरैया,गिलहरियाँ, कौवे भी !
और वैसे ही नहीं हैं अब हमारे दिल भी ।
हमारे जिस्म में ,
-जैसे कि पहले कभी लोगों में हुआ करते थे !
जहाँ हुआ करता था,
-एक दिल,
-एक दर्दे-दिल,
आँगन में तुलसी के बिरवे सा,
जिसके चौरे में,
बिटिया रखती थी हर साँझ,
-एक दीपक ।
आओ कि .... .... ....
वज़ह है,
घर में,
दर्द का वह हरा कोना,
-अब न होना !
मन के घर में उसका न होना ।
-घर में आँगन न होना,
घर के आँगन में उसका न होना !!
इसलिए ज़रूरी है,
मन के घर में उसका होना,
घर के आँगन में उसका होना !
आओ कि ज़ख्म हरे कर लें !
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बहुत सुन्दर रचना ।
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