August 02, 2009

ज़ख्म


ज़ख्म


आओ कि ज़ख्म हरे कर लें !

क्योंकि इस दुनिया की तमाम तकलीफों की वज़ह हम ही हैं !

क्योंकि हमारे दिलों में अब, वह कोना नहीं पाया जाता,

जो पहले कभी इंसानों के दिलों में हुआ करता था,

-हमेशा से ।

आओ कि ज़ख्म हरे कर लें ।

हमारे घर से गायब है,

-अब आँगन !

क्या आपने नहीं महसूस किया कभी ?

और गौरैया,गिलहरियाँ, कौवे भी !

और वैसे ही नहीं हैं अब हमारे दिल भी ।

हमारे जिस्म में ,

-जैसे कि पहले कभी लोगों में हुआ करते थे !

जहाँ हुआ करता था,

-एक दिल,

-एक दर्दे-दिल,

आँगन में तुलसी के बिरवे सा,

जिसके चौरे में,

बिटिया रखती थी हर साँझ,

-एक दीपक ।

आओ कि .... .... ....

वज़ह है,

घर में,

दर्द का वह हरा कोना,

-अब न होना !

मन के घर में उसका न होना ।

-घर में आँगन न होना,

घर के आँगन में उसका न होना !!

इसलिए ज़रूरी है,

मन के घर में उसका होना,

घर के आँगन में उसका होना !

आओ कि ज़ख्म हरे कर लें !

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