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October 21, 2014

आज की कविता : कोलकाता !

आज की कविता : कोलकाता
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जब तक इन्सान बिकाऊ है, ...
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जब तक,
इन्सान बिकाऊ है,
हर जगह / कहीं न कहीं,
चाहे फिर चलाए,
उसको इन्सान ही,
चाहे फिर बैठे भी,
उस पर इन्सान ही,
रिक्शा चलेगा,
गोल हो, या चौकोर,
सोने या चाँदी का,
काग़ज़ का, प्लास्टिक का,
या फ़िर हो चमड़े का,
सिक्का चलेगा ।
जब तक हैं घोड़े,
घोड़े से इन्सान,
युद्ध के मैदान में,
या फिर बारात में,
रेसकोर्स या स्ट्रीट पर,
इक्का चलेगा,
दोपहिया, चारपहिया,
रेल हो या जहाज,
घड़ी, कंप्यूटर, या फ़ैक्ट्री,
या कोई कल-कारखाना,
सरकार चलेगी ।
और तभी सरकार का,
दरबार भी चलेगा,
दरबार में सरकार का,
हुक्का चलेगा,
दलालों बिचौलियों का,
क़ारोबार चलेगा,
दुःखियारी जनता का,
घरबार चलेगा,
स्कूटर चलेगा,
टेम्पो चलेगा,
बाईक चलेगी,
मोबाइल चलेगा,
सिक्का चलेगा ।
सिक्का चलेगा,
तो बाज़ार चलेगा !
चक्का चलेगा,
तब तक चलेगा,
जब तक है बिकाऊ,
चाहे फिर चलाए,
उसको इन्सान ही,
चाहे फिर बैठे भी,
उस पर इन्सान ही,
रिक्शा चलेगा,
हर जगह / कहीं न कहीं,
हर समय, हर वक़्त,
चाहे चलाए उसे इन्सान ही,
चाहे बैठे उस पर इन्सान ही,
रिक्शा चलेगा,
--


August 02, 2009

ज़ख्म


ज़ख्म


आओ कि ज़ख्म हरे कर लें !

क्योंकि इस दुनिया की तमाम तकलीफों की वज़ह हम ही हैं !

क्योंकि हमारे दिलों में अब, वह कोना नहीं पाया जाता,

जो पहले कभी इंसानों के दिलों में हुआ करता था,

-हमेशा से ।

आओ कि ज़ख्म हरे कर लें ।

हमारे घर से गायब है,

-अब आँगन !

क्या आपने नहीं महसूस किया कभी ?

और गौरैया,गिलहरियाँ, कौवे भी !

और वैसे ही नहीं हैं अब हमारे दिल भी ।

हमारे जिस्म में ,

-जैसे कि पहले कभी लोगों में हुआ करते थे !

जहाँ हुआ करता था,

-एक दिल,

-एक दर्दे-दिल,

आँगन में तुलसी के बिरवे सा,

जिसके चौरे में,

बिटिया रखती थी हर साँझ,

-एक दीपक ।

आओ कि .... .... ....

वज़ह है,

घर में,

दर्द का वह हरा कोना,

-अब न होना !

मन के घर में उसका न होना ।

-घर में आँगन न होना,

घर के आँगन में उसका न होना !!

इसलिए ज़रूरी है,

मन के घर में उसका होना,

घर के आँगन में उसका होना !

आओ कि ज़ख्म हरे कर लें !

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