September 09, 2025

At N H 44,

रेवा तीरे!! 

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जैसे कुछ पता ही नहीं चलता है,

कब उगता है दिन, कब ढलता है! 

सुबह से रात, रात से सुबह तक,

बादलों का समंदर बरसता है!

हवाएँ बहती, रुकती चलती हैं,

उम्मीद हृदय में मचलती है,

कभी तो बदलेगा ये मौसम भी,

जैसे हर चीज ही बदलती है!

दूर से आती है, दूर जाती है,

शोर करती है, गुनगुनाती है,

शिव की लाड़ली चंचल बेटी,

सबसे निर्लिप्त बहती जाती है!

यहाँ आया था उससे मिलने ही, 

उसका आशीष मुझपे रहता है,

हर घड़ी उसके स्वर, उसका रव,

मेरे कानों में पड़ता रहता है।

डूब जाता हूँ स्वरलहरियों में, 

और मैं भी लहर हो जाता हूँ,

अपना परिचय कि कौन हूँ मैं,

अनायास भूल जाता हूँ मैं,

और संसार भी खो जाता है,

उसकी पहचान भी खो जाती है,

फिर भी चलता है सुसंगत जीवन, 

न जाने कौन चलाता है इसे!

बस ये आदत ही हो गई है अब,

कोई अतीत या भविष्य नहीं,

बस ये वर्तमान रहा करता है, 

और जीवन इन्हीं तरंगों में, 

हर घड़ी मुग्ध बहा करता है!

(सत्-धारा सत्-चित्) 

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