September 12, 2025

The River.

नदी की आत्मकथा 

लौटती है नदी, लौटता है प्यार,

चल रही, चल रही, चल रही बयार!

जब चली थी पिघल, हो रही थी विकल,

ना पता थी राह, या कि क्या है मंजिल,

बस था उत्साह एक, एक ही थी उमंग,

पुलकित हृदय था, पुलकित था अंग अंग, 

सूर्य की रश्मि ने जब किया चुम्बन प्रथम, 

प्रेम का आह्लाद की अनुभूति तब हुई प्रथम,

एकला चालो की जब हृदय में स्फूर्ति उठी,

धरती ने बाँह गही, नभ ने दिया आशीष। 

सींचती रही धरा को, प्यास सूखे कंठ की,

तृप्त करती रही आतुर क्षुधा जन जन की, 

छंद बंध तोड़कर बह चली, वह बह चली!

फैल गई सिन्धु सी कभी विस्तार में, 

सुखकर काँटा हुई कभी जैसे थार में,

हार में या जीत में,  जीत में या हार में,

बह चली, बह चली, बह चली वह प्यार में!

घोर वन, दुर्गम अरण्य, भूलकर वह पाप पुण्य,

बँटती चली अथाह प्यार वह संसार को, 

और सागर से मिली, यूँ कि अपने प्यार को।

हो गई लावण्यमयी किन्तु पुनः फिर विकल, 

सूर्य की उत्तप्त राश्मि ने दिया संताप प्रबल,

हो उठी वाष्प तब, और उठी नभ की ओर,

मेघ बनकर फैल गई हर तरफ हर ओर! 

द्वार खड़े खड़े तरस गई आखिर आज बरस गई,

प्यासी बदरी सावन की, ऋतु आई मनभावन सी।

बस यही तो चलता रहा, नदिया यूँ बहती ही रही, 

जीवन के सारे ही सुख दुख तो यूँ सहती ही रही। 

उसकी खुशियाँ, उसके आँसू, उसका प्यार यही, 

उसका दामन, उसका आँचल, उसका संसार यही! 

***




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