रात के हमसफ़र
वह फरवरी 2023 की शाम रही होगी जब मैं उस जंगल हाउस में प्लास्टिक की डोरी से बनी हुई खाट पर खुले आकाश तले सो रहा था। वहाँ वह रॉक्सी भी थी जिससे अभी मेरी ठीक से पहचान नहीं हुई थी। थोड़ी दूर पर ही एक पलंग-पेटी थी जिस पर वह आदिवासी पति पत्नी युगल सोए होते थे। और अगर रात्रि में मुझे उठना होता था तो उस आदिवासी पुरुष को आवाज देकर जगाना होता था जो वहाँ एक कर्मचारी भी था, क्योंकि रॉक्सी से मुझे खतरा हो सकता था। वैसे रात में उसे खुला छोड़ दिया जाता था और वह उस पूरे क्षेत्र में बेख़ौफ घूमती रहा करती थी। हालाँकि हफ्ते भर में वह मुझे पहचानने लगी थी और कभी कभी तो मुझे सूँघने और चूमने चाटने की कोशिश भी करती थी। बाद में तो पूरे साल भर तक, जब तक मैं उस जंगल हाउस में रहा वह लगभग पूरे दिन भर और रात भर मेरे साथ रहती थी। वह एक बहुत ही खतरनाक नस्ल की कुतिया थी जिसे पालना कुछ देशों में तो प्रतिबंधित भी है। गर्मियाँ खत्म होते ही मैं जंगल हाउस की टीन शेड की छत के नीचे बने अपने कमरे में सोने लगा था और शाम से ही जंगली कीड़ों मकोड़ों का आक्रमण शुरू हो जाता था। बिजली कभी कभी दो दो दिनों तक बंद रहती थी, और मोबाइल की रोशनी से भी कीड़े बुरी तरह आकर्षित होते थे इसलिए शाम से सुबह तक कुछ खाना पीना भी जैसे मेरे लिए हराम होता था। कीड़ों से छुटकारा तो तभी होता था जब सर्दियाँ पड़ने लगती थीं। बस वे दो या तीन महीने ही, जब भीषण ठंड में मैं अपने पूरे कपड़े, ऊनी टोपी भी पहन लेता था और एक कंबल तथा चादर ओढ़कर उस खाट पर कुड़कुड़ाते हुए रात गुजारना होती थी। सुबह से शाम तक खुली धूप में घूमता रहता। अकसर हर दूसरे दिन ही दूध और अन्य जरूरी सामान लेने के लिए पास के गाँव तक जाना होता था। दो किलोमीटर दूर स्थित उस गाँव तक जाने के लिए मुझे तैयार देखते ही रॉक्सी भी मेरे पीछे पीछे आने की कोशिश करने लगती थी, लेकिन एक किलोमीटर चलने पर वह मुझे छोड़कर वापस लौट जाया करती थी। और उसका मालिक जो जंगल हाउस का चौकीदार था, और पास के ही दूसरे गाँव में रहता था, सुबह शाम रॉक्सी को वहाँ दिन भर के लिए बाँध दिया करता था ताकि वहाँ से आने जाने वाले लोगों को उससे खतरा न हो।
पुनः वर्ष 2024 की सर्दियों के प्रारंभ में जब मैं इस नये स्थान पर आया तो जंगल के कीड़ों का वही आतंक फिर यहाँ भी शुरू हो गया।
ये कीड़े ही यहाँ रात के मेरे हमसफ़र थे। 2025 की इन गर्मियों तक उनसे बुरी तरह त्रस्त रहा। अभी इस समय भी एक दो कीड़े आसपास मंडरा रहे हैं जिन्हें पकड़कर बाहर फेंक देना है। रात होने और शाम ढलने से पहले ही भोजन कर लेता हूँ और कभी या तो छत पर टहलता हूँ या कभी नींद आने पर सो जाता हूँ। दो घंटे सोकर जब उठता हूँ तो भी फिर मोबाइल बंद ही रखता हूँ। कुर्सी पर बैठा रहता हूँ।
"क्या कर रहे हो?"
उस तथाकथित मित्र का फोन आता है तो कहता हूँ :
"खाना खा लिया है, लाइट बंद है इसलिए चुपचाप अंधेरे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ।"
उसे समझ में नहीं आता। मुझे बरसों से यह आदत है। बिना किसी प्रकार के शारीरिक या मानसिक, बौद्धिक कार्य में संलग्न हुए चुपचाप टहलते रहना या बस सिर्फ बैठे रहना। पढ़ना, लिखना, किसी से बातचीत करना, जप आदि यह सब न करते हुए और कर्तृत्व की भावना तक से भी मुक्त रहते हुए। जैसा कि बचपन में अनायास होता था - सुबह नींद से उठने पर दरवाजे पर जाना, खड़े हो रहना आकाश को और अपने आसपास देखते रहना। तब मन में भाषा का अभाव था। और इसलिए सोच पाने की कोई संभावना भी नहीं थी। फिर धीरे धीरे कैसे भाषा और फिर विचार करने की बाध्यता उस शांत मनःस्थिति पर कब हावी हो गई यह तक पता न चला। सौभाग्य से बचपन से ही किसी से भी अपनापन कभी न बन पाया बल्कि सबसे कुछ दूर ओर अकेले ही रहना मुझे अधिक भाता रहा। जंगल हाउस में रहते हुए फिर वह बचपन लौट आया जब अकेलापन कभी कचोटता नहीं बल्कि सहलाता ही था। वह एकमात्र अनन्य साथी, जिसे अपने से अलग कर पाना वैसे भी संभव नहीं है।
याद अगर वो आए, ऐसे लगे तनहाई,
सूने शहर में जैसे, बजने लगे शहनाई,
आना हो, जाना हो, कैसा भी जमाना हो,
उतरे कभी न जो खुमार वो प्यार है!
वैसे ही यह अकेलापन जो एक ओर एकाकीपन भी है तो दूसरी ओर इसमें किसी प्रकार के अभाव का भी नितान्त अभाव है। सुख दुःख, चिन्ता या डर, आशा या निराशा, लोभ, आकर्षण-विकर्षण, आशंका या विरक्ति, आसक्ति, स्मृति और विस्मृति से भी रहित। शायद यही वह प्रेम है, जिसमें किसी दूसरे का भी अत्यन्त अभाव होता है। यह खुमारी जैसी कोई आने जाने वाली वस्तु नहीं है। न तो इसे पाया जा सकता है न खोया ही जा सकता है। इसका आविष्कार किया जाता है और किया जा सकता है।
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