December 19, 2016

आज की कविता / मीनाक्षी

आज की कविता / मीनाक्षी
(प्रथम दो पँक्तियाँ 18 दिसम्बर 2014 को लिखीं थीं)
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जो दिख रहा है, सो दुःख रहा है,
.... हाँ, हाँ, मैंने भी बहुत सहा है !
पर मैं आँखें बन्द नहीं कर सकता / सकती,
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
इसलिए मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
मछुआरे का जाल,
मच्छीमार की बंसी,
किंगफ़िशर की डुबकी,
मैं नहीं देख पाता / पाती,
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
और मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
हाँ !
और मैं आँखें खुली रखकर भी,
सो सकता / सकती हूँ,
तमाम घटाटोप में,
तमाम ख़तरों के बीच भी,
सुक़ून से !
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
और मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
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विनय वैद्य / 19/12/2016.

December 16, 2016

मुक्त-प्रेम / दिसंबर 2015

मुक्त-प्रेम / दिसंबर 2015
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कविता, जो दिसंबर 2015 में लिखी थी,
आज अचानक याद आई,
एक साल बाद !
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पगडंडियाँ सी टीलों पर !

December 07, 2016

आज की कविता / खेल

आज की कविता
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खेल
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तुम्हारे चश्मे का रंग,
दूसरों के चश्मों के रंग से,
मेल नहीं खाता,
तुम्हारे चश्मे का रंग,
वक़्त के चश्मों के रंग से,
मेल नहीं खाता,
लोग बदलते रहते हैं चश्मे,
कोई भी उनकी आँखों के रंग से,
मेल नहीं खाता,


कोई भी वक़्त के चश्मों के रंग से,
मेल नहीं खाता,
वक़्त खुद बदलता रहता है चश्मे,
कोई भी उसकी आँखों के रंग से,
मेल नहीं खाता,
किसने देखा है कभी,
वक़्त की आँखों में,
आँखें डालकर?
हर रंग जुदा है,
हर रंग अजनबी भी,
मुझे अजनबी होने का,
यह खेल नहीं भाता !
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देवास /०७/१२/२०१६ १०:२५ a.m.   

December 01, 2016

आज की कविता / सतह से उठता आदमी

आज की कविता / सतह से उठता आदमी
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अस्तित्व की कोख से,
अंकुर की तरह फूटता,
पेड़ की तरह चढ़ता,
पहाड़ की तरह फैलता,
हवाओं में क्षरित होता,
पानियों में बहता-घुलता,
कड़ी शीत में ठिठुरते हुए,
तेज़ धूप में जलता रहता,
आकाश छूने की अभीप्सा से,
संकीर्ण, पर विस्तीर्ण होता,
निथरता निखरता बिखरता,
निखरकर किरण-किरण होता,
अंततः अदृश्य हो जाता है,
लौट जाता है बीज में,
अस्तित्व की कोख में पुनः ।
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टिप्पणी : मुक्तिबोध की एक रचना,
(जिसे मैंने कभी नहीं पढ़ा)
से प्रेरित
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November 22, 2016

भूकंप

भूकंप
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अनामंत्रित अवाञ्छित अतिथि वे!
भूकंप कहकर क्यों नहीं आते ....?
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November 20, 2016

प्रीति की वह पराकाष्ठा

आज की कविता /
 मुद्रा और विमुद्रीकरण 
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भंगिमा ही देवप्रतिमा,
मुखमुद्रा सुसंगत,
भग्न नहीं अखंडित,
प्रीति की वह पराकाष्ठा ।
प्राणों की प्रतिष्ठा,
होती है प्रतिमा में,
देवता का आवाहन,
हो जाता है संपन्न ।
सहिष्णुता और सेवा
होते हैं अन्योन्याश्रित,
देवता तब पूजनीय,
देवता जब आत्मीय ।
एकानेक-विलक्षण
आत्मीय ईश्वरीय ।
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November 19, 2016

रूपामुद्रा

आशा
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मुद्रा का विमुद्रीकरण,
मुद्रा का नया रूपग्रहण
लोपामुद्रा की दीर्घ श्वास,
मुद्राराक्षस का अट्टहास,
हो जाएँगे शीघ्र ही,
अतीत का अरण्य-रोदन,
रूपामुद्रा उठेगी चमक,
दामिनी सी होगी दमक,
स्वर्ण-मुद्रा होगी खनक,
भारत के स्वर्ण-युग की !
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November 02, 2016

आज की कविता / चश्मे

आज की कविता / चश्मे
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चश्मे पानी के फ़ूटते हैं दिल से,
और आँखों में नमी सी हुआ करती है,
दिल में प्यार का सागर ग़र हो,
कौन सी ज़िन्दगी में कमी रहती है?
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चश्मे शीशे के फ़ूटते हैं जब,
दुनिया धुँधली दिखाई देती है,
प्यार की रौशनी हो आँखों में,
रूह फ़िर भी दिखाई देती है ।
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October 30, 2016

आज की कविता / दीप-ज्योति

आज की कविता / दीप-ज्योति
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साकार निराकार में घुलता हुआ,
निराकार साकार में खिलता हुआ,
रंग आकृतियों में पिघलता हुआ,
आकृतियाँ स्पर्श में फिसलती हुईं ।
स्पर्श सुरभि में उड़ते-उमड़ते हुए,
सुरभियाँ सुरों में उमगती-ढलती हुईं, 
सुर संगीत की स्वर-तरंगों में बहते हुए,
अनुभूति से हृदय तक पहुँचते हुए,
शब्दों के दीप जलें,
ज्योति-रश्मियाँ चलें,
तमस् भ्रान्ति शोक हरें
हृदयों में प्रेम पले !
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शुभ दीवाली !

October 11, 2016

आज की कविता / नारी

आज की कविता / नारी
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मूर्ति बनकर खड़ी हूँ झुककर तुम्हारे सामने
चिरकाल से श्रद्धावनत प्रियतम तुम्हारे सामने
संजोकर लाई हृदय वह कर दिया अर्पित तुम्हें
दीप कर के प्रज्वलित प्रस्तुत तुम्हारे सामने ।
तुमको माना परम प्रभु किंतु न जाना कभी
शीश यह था क्यों झुकाया मैंने शिला के सामने
यदि शिला भी आज होती पिघल जाती मोम सी
पर न तुम पिघले न टूटे पुरुष मेरे सामने !!
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October 09, 2016

समसामयिक

समसामयिक / आकलन
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वह कोई छोटा-मोटा पत्रकार है । मुझसे मिलना चाहता था । मैं पत्रकारों से थोड़ा बचता ही हूँ, क्योंकि राजनीति किसी भी रूप में मेरा कार्य-क्षेत्र नहीं है, पर बहुत आग्रह करने पर उसे समय दिया तो उसने सीधे-सीधे बिना किसी औपचारिकता के मुझसे कहा :
दो प्रश्न मेरे मन हैं :
1. क्या पाकिस्तान टूट रहा है?
और यदि इसका उत्तर ’हाँ’ है तो,
2. पाकिस्तान क्यों टूट रहा है?
--
वह इतना पूछकर मेरे जवाब का इन्तज़ार करने लगा ।
बहरहाल मैंने इस बारे में सोचा और अपने विचार कुछ इस प्रकार से रखे -
इन दो प्रश्नों में से पहला तो एक सामान्य प्रश्न है जिसका जवाब शायद हर वह व्यक्ति अपने ढंग से दे सकता है जो अख़बार पढ़ता है, रेडिओ सुनता है, टीवी देखता है, या किसी काम से यहाँ वहाँ आता-जाता है । कुछ की नज़र में यह प्रश्न बस पाक-विद्वेषी किसी व्यक्ति के दिमाग़ में उठी खुराफ़ात भर है ।
सामान्य मनुष्य ’धारणाओं’ को हक़ीकत (यथार्थ) की तरह ग्रहण कर लेता है । हक़ीकत क्या है इसे जान पाना तो बहुत मुश्किल है क्योंकि जिसे हम हक़ीकत समझते हैं वह अवश्य ही किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय के परिप्रेक्ष्य में हुआ करती है । और वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है । इसलिए हम हक़ीकत (यथार्थ) को नहीं, बल्कि इन सबके संबंध में प्राप्त जानकारी और राय को हक़ीकत समझ बैठते हैं ।
’वस्तुएँ’ शुद्धतः ऐसे इन्द्रियगम्य भौतिक तथ्य होते हैं, जिनके बारे में भिन्न-भिन्न लोगों के बीच मतभेद नहीं होते । उनका भौतिक-सत्यापन भी किया जा सकता है । वे अनुकूल, प्रतिकूल, सुखद या दुःखद भी हो सकते हैं । किंतु वह गौण है । दूसरी ओर ’व्यक्ति’, ’विषय’, ’स्थान’, ’विचार’, ’घटना’ या ’समय’ अमूर्त धारणा होते हैं जो बुद्धि के कार्यशील होने के बाद ही अर्थपूर्ण / महत्वपूर्ण होते हैं । बुद्धिहीन मनुष्य को पशु कहने पर शायद ही किसी को आपत्ति हो । किंतु बुद्धि के सक्रिय होने पर बुद्धि पूरी तरह से दोषरहित और त्रुटिरहित हो, यह न तो सबके लिए संभव है न स्वाभाविक ही है । प्रायः व्यक्ति का वातावरण, परिवार, समाज, व्यवहार करने तथा सोचने की परंपराएँ बुद्धि को उसके अपने स्वाभाविक ढंग से विकसित नहीं होने देते । बुद्धि को हम ’मन’ भी कह सकते हैं, और यह बुद्धि या मन हमारे लिए एक अमूर्त धारणा के सिवा और क्या हो सकता है? क्या इस बुद्धि या मन की प्रामाणिकता हमारे लिए किसी भौतिक तथ्य की तरह निर्विवाद और सुनिश्चित हो सकती है? 'विज्ञान' इसकी प्रामाणिकता कैसे सुनिश्चित कर सकेगा? किंतु जिसे बुद्धि / मन कहा जाता है उसके व्यावहारिक प्रयोग से इनकार भी नहीं किया जा सकता । इस रूप में वह 'तथ्य' है । संक्षेप में, जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदन के स्थूल यन्त्र होती हैं, वैसे ही बुद्धि / मन संवेदन के सूक्ष्म तल पर कार्य करनेवाले उपकरण होते हैं । बुद्धि / मन से जुड़ी हमारी प्रतिक्रियाओं को हम भावना (इमोशन / emotion ) और अनुभूति (फ़ीलिंग / feeling ) कह सकते हैं । इनके संयोग को भावनाशीलता / sentiments . भावना और अनुभूति के बीच एक बारीक अन्तर यह किया जा सकता है कि भावना हमारे हृदय में स्वाभाविक रूप से उठती और विलीन होती रहती है, जबकि अनुभूति किसी बाह्य क्रिया का संवेदन तथा उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया होती है । यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होनेवाली बोधजन्य प्रक्रिया भी हो सकती है, या हमारे पूर्व अनुभवों की स्मृति से जुड़ी कोई जटिल प्रक्रिया भी हो सकती है । संचित अनुभव हमारी भावनाओं को विरूपित कर सकता है, और यदि हम इस बारे में सतर्क / सावधान नहीं हैं तो प्रायः कर ही देता है । इस प्रकार हमारी भावनाओं और अनुभूतियों का पारस्परिक व्यवहार हमारे बुद्धि / मन को और भी असंतुलित / अस्वस्थ/ रूपांतरित कर देता है । जिसका हमें अनुभव न हो उसके प्रति हममें कोई अच्छी या बुरी, सही या गलत भावना नहीं हो सकती । किसी वस्तु के संपर्क में आने पर, उसकी सुखद, दुःखद, प्रिय-अप्रिय अनुभूति ही हममें कोई भावना जगाती है । फिर इस अनुभूति की स्मृति और पुनरावृत्ति हमारे बुद्धि / मन में उस वस्तु के बारे में कोई पूर्वाग्रह स्थापित कर देते हैं । ऐसे असंख्य पूर्वाग्रह हमारे बुद्धि / मन को अत्यंत अव्यवस्थित, अस्थिर और विरूपित कर देते हैं और तब प्रतिक्रियास्वरूप असुरक्षा और भय की भावना हममें जन्म लेती है । तब हम ’अपने-जैसे’ प्रतीत होनेवाले लोगों में सुरक्षा और आशा की किरण देखते हैं । किंतु इसी आधार पर मानव-समाज में क्या ऐसे अनेक समुदाय भी अस्तित्व में नहीं आ जाते जिनके कुछ हित समान, तो दूसरे कुछ अनेक हित परस्पर विपरीत और विरोधी भी होते हैं ? परंपराएँ मनुष्य को वास्तव में क्या ऐसा ही कोई सुरक्षा-कवच प्रदान करती हैं, या वे केवल एक और नया अस्थायी विभ्रम भर होती हैं ?
क्या पाकिस्तान टूट रहा है?
’पाकिस्तान’ की धारणा का आधार ऐसे ही कुछ लोगों की सामुदायिक गतिविधि है, जो स्वयं को इस्लाम (नामक परंपरा) का अनुयायी कहते हैं । इसलिए पाकिस्तान (जिसे वे एक देश / राष्ट्र / नेशन कहते हैं) नामक राजनीतिक-सत्ता, उसकी मूल-शक्तियाँ, इस्लाम की परंपरा में ही हैं । अब यदि इस्लाम की परंपरा और इतिहास को देखें तो इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता अपने-आपको इस्लाम का अनुयायी घोषित करनेवाली सभी राजनीतिक सत्ताएँ निरपवाद रूप से विखंडित ही होती चली गईं  हैं । इस्लाम धर्म है या नहीं, यहाँ यह प्रश्न गौण है, इस बारे में यहाँ न तो कोई विचार, आकलन या विश्लेषण किया जा रहा है, न कोई निष्कर्ष या मत प्रस्तुत किया जा रहा है । यह स्पष्टीकरण इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि यहाँ ’परंपरा’ के बारे में कहा जा रहा है, न कि इस्लामी या हिन्दू, जैन, बौद्ध या ज्यू या पैगन    .... और इसे उसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए । मूल विचारणीय प्रश्न यह है कि परंपरा के रूप में क्या इस्लाम में ही कहीं ऐसे कारक-तत्व (फ़ैक्टर्स) तो नहीं हैं जो इसे अपनानेवालों में, इसके अनुयायियों में, असुरक्षा और भय के, परस्पर विभाजन के बीज बोते हों? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो शायद हमें ’क्या पाकिस्तान टूट रहा है’ इस प्रश्न को समझने में सहायता मिल सकती है । क्या इस्लाम (वह फिर धर्म या परंपरा क्या है, या दोनों है, या दोनों नहीं है, ... यहाँ इस बारे में न तो कोई मत दिया जा रहा है, न ही कोई प्रश्न उठाया जा रहा है ...) की स्थापना ही अलगाववाद की एक प्रखर अभिव्यक्ति की तरह नहीं हुई थी? क्या इस प्रकार यह समुदाय स्वयं ही अपने-आपको शेष विश्व से अलग-थलग नहीं करता रहा है? और क्या यह ’समुदाय’ वस्तुतः कभी एक छतरी तले आ भी सकता है?
और, क्या पाकिस्तान (नामक राजनीतिक-सत्ता जिसे कुछ लोग एक देश / राष्ट्र / नेशन कहते हैं) उसी क्रम की अगली कड़ी नहीं है?
--  
पर सोचता हूँ इसे कहीं ’आपत्तिजनक’ सामग्री तो नहीं कहा जाएगा?
बस इसीलिए ब्लॉग में पोस्ट करने के बारे में थोड़ा असमंजस है ।
... ...
        नमस्ते !

September 29, 2016

आज की कविता / बाल-लीला

आज की कविता
--
बाल-लीला
--
विषधर पयोधर पूतना के,
विष के कलश थे छलक रहे,
भुजदण्ड सर्पिल भुजंगों से,
मिलन के लिए मचल रहे ।
दृष्टि-शर विष-बुझे तीर,
श्याम-शिशु पर जब पड़े,
वात्सल्य की तरंग से,
विष-कलुष सारे धुल गए ।
श्याम के शिशु-स्पर्श से,
विष हुआ तत्क्षण अमिय,
पूतना की मुक्ति का,
उद्धार का बस यह रहस्य ।
हर नारी तब बनी गोपिका,
हर व्रज-ललना राधा हुई,
हर प्रीति ने पाया प्रियतम,
हर प्रेम तब हुआ पवित्र ।
--
(देवास, 29-09-2016)

September 26, 2016

अपने-राम

अपने-राम
--
कल आकाशवाणी पर एक अद्भुत् वक्तव्य सुना :
वे कह रहे थे :
"... ’धर्म-निरपेक्षता’ की परिभाषा को बहुत तोड़ा-मरोड़ा गया है ।"
अपने-राम वैसे तो राजनीति और धर्म के मामले में दखलन्दाज़ी करने से  बचने की भरसक क़ोशिश करते हैं, किन्तु भारत से प्रेम के चलते कभी-कभी झेलना असह्य हो जाता है । बोल ही पड़े :
"किस सफ़ाई से उन्होंने इस सवाल को उठने ही नहीं दिया कि क्या धर्म की परिभाषा को ही पहले से ही तोड़ा-मरोड़ा नहीं गया था? परंपराओं पर ’धर्म’ का लेबल किसने चिपकाया? कब और क्यों चिपकाया? उन्हें ’समान’ समझे जाने का आग्रह किसका था? परंपराएँ, - जिनके आदर्श, ’विश्वास’, ’मत’, उद्देश्य और आधारभूत सिद्धान्त, प्रवृत्तियाँ परस्पर अत्यन्त अत्यन्त भिन्न, यहाँ तक कि विपरीत और विरोधी हैं, उनके परस्पर समान होने का विचार ही मूलतः क्या एक भ्रामक अवधारणा नहीं है?"
वे कह रहे थे :
’धर्म-निरपेक्षता’ की परिभाषा को बहुत तोड़ा-मरोड़ा गया है ।
"किसने और कब और क्यों तोड़ा?"
यह प्रश्न हमारे मन में उठे, इससे पहले ही वे अपना वक्तव्य पूर्ण कर चुके होते हैं ।
वे कुशल राजनीतिज्ञ हैं इससे इनकार नहीं और कुशल राजनीतिज्ञ की यही पहचान है कि वह मौलिक प्रश्नों को दबा देता है, काल्पनिक (शायद ’आदर्शवादी’) प्रश्न पैदा कर लेता है और मूल प्रश्न से लोगों का ध्यान हटाकर काल्पनिक प्रश्नों और समस्याओं पर केन्द्रित कर लेता है । सभी कुशल राजनीतिज्ञ इस कला में निष्णात होते हैं ।
क्या राजनीतिक या कोरे बुद्धिजीवी, साहित्यकार, ’विद्वान’ तथाकथित ’विचारक’ और समाज में सफल कहे जानेवाले लोग कभी मूल प्रश्नों को सीधे देखने का प्रयास करते हैं?
वे किसी आदर्श, उद्देश्य, विचार / सिद्धान्त रूढ़ि, परंपरा से ही शक्ति प्राप्त करते हैं और उसी आधार पर अपनी ऊर्जा केन्द्रित करते हैं और किसी तरह जैसे-तैसे स्थापित हो जाते हैं । यदि वे ’असफल’ भी रह जाते हैं तो कहा जाता है कि उन्होंने अपना सब-कुछ संपूर्ण जीवन ही उस महान् उद्देश्य के लिए न्यौछावर, बलिदान, होम , कुर्बान कर दिया । 'त्याग' की उनकी मिसाल की राजनीतिक-प्रवृत्ति से प्रेरित कुछ दूसरे लोग फिर उनकी ’मशाल’ को जलाये रखते हैं । इस प्रकार अनेक भिन्न-भिन्न प्रकार की राजनीतिक प्रवृत्तियों की मशालें दिन-रात सतत जलती रहती हैं, और उन्हीं से हमारी दुनिया रौशन है, ... वरना तो हम अंधेरों में भटकते रहते !
अपने-राम सोचते हैं :
इस छोटी सी जिन्दगी में भजन करते हुए उम्र को जैसे-तैसे खींच ले जाएँ तो भी बहुत है ।
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September 17, 2016

हक़ीकत

हक़ीकत
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उम्र भर अंधेरों में ही भटकते रहे,
उम्र भर आँखें हमारी बन्द ही रहीं ।
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September 13, 2016

क्या आक्रामकता ’धर्म’ है ?

क्या आक्रामकता ’धर्म’ है ?
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हमारा देश धर्मप्राण प्रवृत्ति के लोगों से भरा पड़ा है । एक पत्थर किसी भी दिशा में फेंकते ही कोई न कोई ’धर्मप्राण’ उसकी चपेट में आ जाता है । किन्तु खेल-खेल में या परम कर्तव्य समझकर पत्थर उछालना / फेंकना कुछ लोगों के लिए यही धर्म होता है । किंतु चूँकि संस्कृत भाषा के व्याकरण का लचीलापन (वर्सेटाइलिटी / फ़्लेक्सिबिलिटी) हर किसी के अपना अर्थ निकालने की स्वतंत्रता का सम्मान करती है, इसलिए कुछ लोगों के मत में ’धर्मप्राण’ होने का अर्थ है ’धर्म के प्राण लेना’ । फिर यह धर्म अपना हो या पराया इस बारे में उनका अपना मत हो सकता है ।
इन दिनों भारत की विविधता में एकता की परंपरा का उच्च स्वरों में घोष करते हुए विभिन्न ’धार्मिक’-स्थलों पर अनेक आयोजन हो रहे हैं । ऐसे ही कुछ आयोजन मेरे घर के आसपास हो रहे हैं, जिससे मुझे कोई आपत्ति नहीं है किंतु उन उच्चस्वरों में लॉउड-स्पीकर से फ़िल्मी गानों की धुनों पर गाये सुनाए जानेवाले से धर्म के प्राणों की कितनी रक्षा होती है या संगीत और कला, भक्ति के माध्यम से प्राण लेने का उपक्रम किया जाता होगा, मैं नहीं कह सकता ।
मेरी समस्या यह है कि उन ध्वनियों में मेरे अत्यंत ज़रूरी फ़ोन की रिंग-टोन भी मुझे सुनाई नहीं पड़ती, और यदि अटैंड कर भी लूँ तो बात करना / सुनना मुश्किल होता है । ऐसे ही एक आयोजन के कर्ता-धर्ता से मैंने अपनी समस्या का उल्लेख किया तो (आक्रामक होकर) बोले : आप हिंदू हैं या मुसलमान ?
मेरा जन्म जिस परिवार में हुआ, समाज में उसे हिन्दू कहा जाता है । किंतु यदि मेरा जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ होता तो भी क्या मेरी यह समस्या (फ़ोन पर किसी से संपर्क करने में कठिनाई होना) समाप्त हो जाती ? क्या मेरी इस समस्या का संबंध मेरे हिन्दू या मुसलमान होने से है? इसलिए हिन्दू हो या कोई अन्य परंपरा, ’तकनीक’ का उपयोग कहाँ तक उचित है? धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर मनमानी छूट लेकर धर्म को अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सहारा बनाना क्या धर्म है?
मान लीजिए मैं मुसलमान होता और ऐसे किसी आयोजन के कर्ता-धर्ता से अपनी समस्या कहता और वह इसे हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखता तो वह चाहे हिन्दू होता या मुसलमान, अगर मुझसे "आप हिंदू हैं या मुसलमान ?" यही प्रश्न करता, तो भी मेरी समस्या हल नहीं हो सकती थी ।
--  

September 07, 2016

रिश्ते !

रिश्ते !
कुछ दर्द दोस्त होते हैं,
कुछ दर्द होते हैं दुश्मन,
कुछ दोस्त दर्द होते हैं,
कुछ दोस्त होते हैं दुश्मन ।
दर्द से दोस्ती का यह,
दोस्त से दुश्मनी का,
दर्द से दुश्मनी का भी,
कितना अजीब नाता है !
--

September 04, 2016

वृक्ष की संक्षिप्त आत्मकथा

वृक्ष की संक्षिप्त आत्मकथा
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कहीं भी जाने के लिए मैं हमेशा से ही इतना लालायित था कि एक पैर पर खड़ा तैयार रहता था, लेकिन दूसरा पैर न होने से कभी कहीं न जा सका । तब मैंने ढेरों पंख उगाए, पर तब तक जड़ें धरती में इतनी गहराई तक धँस चुकी थीं कि मैं धरती से उठ तक नहीं सकता था, उड़ना तो बस स्वप्न ही था । तब से बस यहीं हूँ ।
--    

September 01, 2016

2 छोटी कविताएँ

2 छोटी कविताएँ
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टकराते-टकराते,
टकराहट तक़रार ।
तक़रार से बेक़रारी,
रार, इक़रार, क़रार ।
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दो दिन तेरा-मेरा जीवन,
अनंत असीम पर प्यास,
जैसे क़श्ती, दरिया, सागर,
ढूँढे चंदा धरती आकाश !
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August 31, 2016

क्या ’जीवन’ एक अंतहीन बहस है?

’जीवन’ एक अंतहीन बहस है?
_________________________

मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है किंतु बहस के लिए कोई राय / मत होना पूर्व-शर्त है । यह राय / मत विचार के ही रूप में हो सकता है और स्मृति / पहचान पर आधारित शब्द-समूह भर होता है । विचार का आगमन बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही होता है और बुद्धि सदा द्वन्द्व और दुविधा में होती है । वास्तविक जीवन न तो बुद्धि है, न विचार, न स्मृति है, न पहचान । ये सभी वास्तविकता पर बुद्धि, स्मृति, विचार, और पहचान का आवरण होते हैं । इसलिए वास्तविक जीवन का किसी बहस से कोई संबंध नहीं हो सकता । वस्तुओं का प्रयोजन / उपयोग होता है । विचार का विचार के दायरे तक सीमित एक (या अनेक) अर्थ होता है, जो पुनः विचार तक सीमित होता है । वस्तु का अर्थ नहीं होता और विचार किसी प्रयोजन / लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकता । अतः विचार के स्तर पर जिया जानेवाला ’जीवन’ अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है ...
विचार, बुद्धि या स्मृति को भूलवश ज्ञान कहा / समझा जाता है, जबकि ज्ञान वह है जिसकी प्रेरणा से विचार, बुद्धि या स्मृति सक्रिय हो उठते हैं । उपनिषद् कहता है : मन जिसका विचार करता / कर सकता है वह नहीं, बल्कि ज्ञान / ब्रह्म वह है जिसकी प्रेरणा से मन विचार, बुद्धि या स्मृति को प्रयोग करता है ।      
--
विचार और जीवन अलग है । पर विचार के बिना जीवन सम्भव है क्या?
क्या जीवन का अस्तित्व विचार पर निर्भर होता है?
इससे विपरीत, क्या जीवन के होने से ही विचार अस्तित्व में नहीं आता / आते?
इसलिए विचार के अभाव में जीवन है, जबकि जीवन के अभाव में विचार नहीं हो सकता । हम / आप जीवित हैं तो ही विचार कर (या नहीं कर) सकते । किंतु जीवित ही न हों तो विचार के सक्रिय होने का प्रश्न ही कहाँ होता है?
मस्तिष्क के अपेक्षा क्या हृदय ही जीवन और प्राणों के स्पन्दन का आधार नहीं होता? क्या भावनाएँ बुद्धि / विचार / स्मृति की तुलना में अधिक शक्तिशाली जीवंत नहीं होतीं?
क्या हृदय ’बहस’ करता है? वह बस आन्दोलित, क्षुब्ध, व्याकुल, उद्वेलित, हर्ष-विषाद से प्रभावित होकर सच्चे अर्थों में जीवित होता है / जीता है ।
--

August 30, 2016

भुजङ्ग

भुजङ्ग
--
क्षमा शोभती उस भुजङ्ग को,
जिसके पास गरल हो,
संधि-वचन संपूज्य उसी का,
जिसमें शक्ति-विजय हो ।
--
धरती के भुजङ्ग बाँध लेते हैं,  शिव को,
भर बाहों में करते हैं उनसे आलिंगन !
सुख इतना पाते हैं वे विषधर भी,
भूल जाते हैं वे फिर शीतल चंदन !
--
करते रहते भ्रमण सदा चतुर्दिक्
हर ओर सन्निकट शिव के,
डूबे निमग्न होकर जैसे समाधि में ,
वे  उग्र सशक्त शान्त रूप शंकर के ।
--

August 25, 2016

ब्रजभाषा का पद्य और संस्कृत अनुवाद !

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी पर .. 
ब्रजभाषा का एक पद्य और संस्कृत अनुवाद !
--
"मथुरा के कारे, फिरि जमुना के धारे, जिन्ह पूतना को तारे, मद कालिय पछारे हैं
गिरिवर धारे, जिन्ह कंसहू को मारे, रथ पारथ हँकारे, महाभारत सँवारे हैं 
सोई रतनारे जसुमति के दुलारे जुग नैनन के तारे सारे गोकुल के प्यारे हैं 
नन्दजू के द्वारे लखो भोरे-भिनुसारे सब सुरन्ह पधारे नभ छाए जयकारे हैं" 
_________________________________________________
११:३१ अपराह्न, बुधवार, २४ अगस्त २०१६, भुवनेश्वर, ओडिशा
--
मथुरायाः श्याम हे !

"मथुराकाराजात !..."



यमुनायाः धारक !
पूतनायाः तारक !
कालीयमदमर्दक  !
गिरिवरस्य धारक !
कंसस्य मारक !
पार्थसारथि हे !
महाभारता-नायक !
सैव रत्नार हे !
यशोदाया:लाल-ललन !
युगलनयनतारकौ !
गोकुलस्य प्रिय हे !
नन्दस्य द्वारे अद्य !
उषस्-प्रभाते सद्य !
आगताः सुरा: सर्वे !
जयकाराव्याप्तानि नभे !!
--
टिप्पणी 
--
रोचक भूल हो गई मुझसे ! 
मूल पद्य के रचयिता ने मेरा ध्यान और दिलाया कि की 'मथुरा के कारे' से उनका आशय 'मथुरा की कारा (कारागार) में जन्मे' था !
मैं ’कारा’ को ’काला’ समझ बैठा !

ख़ैर, संशोधन प्रस्तुत है :
इस भूल की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद !
॥ श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ! ॥ 

August 18, 2016

उलझन / सुलझन

उलझन / सुलझन
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उलझेंगे तो सुलझेंगे भी, उलझेंगे ही नहीं तो सुलझेंगे कैसे?
पर उलझे ही रहने में भी किसी किसी को सुख महसूस होता है और कुछ लोग इस डर से कि रहने दो, कौन उलझे, जिन्दगी भर / अन्त तक दुविधा में ही पड़े रहते हैं । अपनी अपनी प्रकृति है, कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन ! किन्तु कुछ लोग सिर्फ इसलिए भी उलझन में फँसे रहते हैं क्योंकि वे यथार्थ से पलायन करना चाहते हैं, यथार्थ को देखना तक नहीं चाहते । यथार्थ को जानना / समझना भी उन्हें अनावश्यक झमेला प्रतीत होता है ! सुविधापसंद ऐसे लोग भी अपने तरीके से सुखी / दुःखी होने के लिए मज़बूर / स्वतंत्र (?) तो होते ही हैं !  
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दिल का हिस्सा!

सुनीताजी की एक खूबसूरत कविता,
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नदी के हिस्से में सिर्फ शोर है
पहाड़ के हिस्से में ख़ामोशी
इंसानों के हिस्से में दिल है
पर अलग अलग रंग के दिल
उनमे से कुछ रंग शोर करते हैं
कुछ खामोश रहते हैं
अपने आँगन में इंसानों के तमाशे देख
नदी और पहाड़ भी अब
*एक्टिंग* की दुनिया में कदम रखने जा रहे हैं
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इसे मैं यह रूप देना चाहता हूँ !
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नदी के हिस्से में सिर्फ़ शोर है,
पहाड़ के हिस्से में सिर्फ़ खामोशी,
इंसानों के हिस्से में दिल है,
दिल के हिस्से में पहाड़-नदी,
दिल ये पहचान तक नहीं पाता,
कहाँ से शुरु होते हैं, कहाँ वे ख़त्म,
वो पहाड़ जो खामोश हुआ करते हैं,
वो नदी जो शोर हुआ करती है,
दिल के हिस्से में क़ाश न होता,
और कुछ भी, ... सिवा उन दोनों के !
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August 14, 2016

संस्मरण / निहितार्थ और प्रतिफल -1

संस्मरण
निहितार्थ और प्रतिफल -1.
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इस शहर में मैं पहली बार आया हूँ । थोड़ा आश्चर्य हुआ यह जानकर कि 30 वर्षों पूर्व मैं जिस शहर में रहता था वह यहाँ से भले ही 900 किलोमीटर दूर हो, भले ही वहाँ हिंदी का प्रचलन कम हो, मनुष्य और उसकी मानसिकता और मानसिकता की परिपक्वता हर स्थान पर न्यूनाधिक एक जैसी ही होती है । आर्थिक समृद्धि, शिक्षा या उच्च-शिक्षा, भौतिक, राजनीतिक या कलात्मक प्रतिभा, विद्वत्ता, तथाकथित आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र आदि में उच्च स्थान पा लेने से, या वृद्ध हो जाने से भी किसी की मानसिकता बदल जाये ऐसा प्रायः कम ही होता है ।
वर्ष 1987 में जब मैं गुजरात के उस शहर (वेरावल) में था तो एक सस्ते किन्तु साफ़-सुथरे होटल (शायद श्रीनिवास लॉज) में रुका था, जहाँ बीस रुपये में एक साफ़-सुथरा कमरा मुझे रहने को मिला था । तब मैं राजकोट में एक बैंक में कार्यरत था होली की छुट्टी में जूनागढ़ (गिरनार) तथा वेरावल (सोमनाथ) घूमने का विचार था ।
शाम को भोजन के लिए लॉज से निकला ही था कि रास्ते में मेरी बैंक का एक ग्राहक जो युवक ही था, मेरी ओर आता दिखलाई दिया । वह राजकोट की किसी फ़ायनेंशियल फ़र्म में काम करता था, शायद शेयर-ब्रोकर के साथ ।
’अरे वेदभाई!’ उसने आवाज लगाई ।
चूँकि उसके साथ एक लड़की भी थी इसलिए मैं उसे नज़र-अंदाज़ करना चाहता था ।
मैंने मुस्कुराकर उसे ’हलो’ भर कहा ।
उसने अपने साथ की लड़की का परिचय देते हुए कहा,
"ये ..... है, मेरी गर्ल-फ़्रेंड!"
"ओह!"
मैं बस इतना ही कह सका ।
वह लड़की निरपेक्ष भाव से इधर-उधर देखती चुपचाप खड़ी रही ।
"आप वेरावल घूमने आए हैं?"
"हाँ, सोमनाथ जाना है ।"
"यहाँ कहाँ रुके हैं?"
"यहीं श्रीनिवास-लॉज में ।"
"ठीक है, फ़िर मिलेंगे...।"
कहकर वह चला गया ।
जब मैं भोजन कर क़रीब आठ बजे अपने कमरे पर लौटा तो कुछ मिनट बाद दरवाजे पर नॉक की आवाज हुई । मैंने सोचा बैरा होगा, इसलिए दरवाजा खोला तो देखा वह युवक खड़ा था ।
"आओ!"
मैंने सौजन्यतावश उसे भीतर आने के लिए कहा ।
"वेदभाई, हमें भी यहीं रूम मिल गया है । दर-असल आपको देखकर ही मैंने यहाँ रूम ले लिया क्योंकि आपसे कुछ बातें शेयर कर सकता हूँ । आपको राजकोट में भी बहुत कम लोग जानते हैं और वैसे भी आप लोगों से कम ही मिलते-जुलते हैं ।"
"मुझसे आप कौन सी बात शेयर करना चाहते हैं?
"दर-असल हम दोनों राजकोट से घर से भागकर आए हैं । हम शादी करना चाहते हैं लेकिन उसमें घरवालों को आपत्ति है । राजकोट में यह बहुत मुश्किल था । यहाँ दो-चार दिन रहकर हम कहीं और चले जाएँगे । लेकिन पहले कोर्ट-मैरिज कर लेंगे । यहाँ हम दोनों के कुछ परिचित हैं जिनसे मदद मिल जाएगी ।"
"हाँ..."
"दर-असल हम दोनों अलग-अलग जाति-धर्म के हैं, वैसे दोनों हिन्दू ही हैं ।"
उसने स्पष्टीकरण दिया ।
"मुझसे आपको क्या उम्मीद है?"
मैंने मुस्कुराते हुए पूछा ।
"बस यूँ ही दिल हल्का करने के लिए! आपसे मुझे कोई रिस्क भी नहीं है कि आप मेरे काम में बाधा खड़ी करेंगे । पर मेरे मन में एक प्रश्न यह है कि क्या हम जो कर रहे हैं वह ठीक है या नहीं ?"
"तुम शादी क्यों करना चाहते हो?"
"अजीब सवाल है आपका! क्या अपने पैरों पर खड़ा हो जाने के बाद शादी किसी जवान आदमी की ज़रूरत नहीं होती?"
"तुम्हारा मतलब है किसी स्त्री के साथ रहना और गृहस्थी बसाना?"
"जी!"
"तो इसके लिए विवाह करना ज़रूरी है?"
"बिना विवाह किए साथ रहना तो समाज में और भी मुश्किल है । फिर हमें एक दूसरे से प्यार भी है ।"
"क्या यह प्यार कुछ साल बाद भी ऐसा ही सच्चा प्यार बना रहेगा?"
"लेकिन फिर यह हमारा दायित्व हो जाएगा, फिर परिवार, बच्चे..., इनमें बँट जाएगा ।"
"लेकिन स्त्री हो या पुरुष, किसी का मन कब बदल जाए, कौन कह सकता है?"
"अभी तो यही लगता है, तब की तब देखी जाएगी ।"
"तुम कहते हो तुम दोनों हिंदू हो, इसका क्या मतलब है?"
"आपको पता है मैं जैन हूँ, और वह वैष्णव अग्रवाल । और आजकल इन सब बातों का क्या मतलब रह गया है? हम दोनों राजी हैं इससे ज़्यादा और क्या चाहिए?"
"तुम शादी क्यों करना चाहते हो?"
मैंने फिर एक बार प्रश्न दुहराया ।
"और मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर खुद देना चाहूँगा । वयस्क हो जाने पर स्त्री-पुरुष के बीच आकर्षण होना प्रकृति ही है, और इसका मूल प्रयोजन है संतानोत्पत्ति । जैसा कि तुमने कहा तुम दोनों हिंदू हो, तुम जैन, और वह अग्रवाल बनिया । अब जैन धर्म तो मूलतः तप और मुक्ति पर जोर देता है, श्रमण-धर्म है और इंद्रिय-निग्रह तथा संयम का आग्रह रखता है इसलिए विवाह के बारे में जैन धर्म सीधे कुछ नहीं कहता । परंपरागत जैन-धर्म में विवाह का समाज की ज़रूरत के अनुसार तालमेल कर लिया जाता है । रही हिन्दू धर्म की बात, तो हिन्दू-धर्म का भी एक तो परंपरागत रूप है जो विभिन्न संप्रदायों में सौहार्द्र को महत्व देता है, तो दूसरा वह रूप है जो सनातन-धर्म अर्थात् वेद को प्रमाण मानता है । दूसरे शब्दों में वर्णाश्रम-धर्म को आधारभूत धर्म स्वीकार करता है । जैन धर्म वर्णाश्रम धर्म के बारे में विशेष कुछ नहीं कहता इसलिए वर्णाश्रम धर्म को मानते या न मानते हुए भी जैन धर्म का आचरण किया जा सकता है । इस दृष्टि से दोनों धर्मों में कोई विरोध नहीं है । किंतु वैदिक वर्णाश्रम-धर्म के मतानुसार स्थिर स्वस्थ मानव समाज में चार प्रकार के वर्ण रहेंगे ही चाहे उसे वर्ण-व्यवस्था का नाम दिया जाए या न दिया जाए । पुनः ये ’वर्ण’ जाति-आधारित न होकर मनुष्यमात्र के ’गुण-कर्म’ से निर्धारित होते हैं और जिसमें जैसे संस्कार होंगे वह प्रकृति से उस वर्ण का होगा । स्वाभाविक है कि प्रारंभ में किसी काल में जब सनातन धर्म का अधिक महत्व था, विवाह की व्यवस्था वर्ण को शुद्ध बनाए रखने के लिए की गई होगी ताकि अपने-अपने वर्ण के स्वाभाविक कर्मों का निर्वाह करते हुए प्रत्येक मनुष्य जीवन के परम श्रेयस् को प्राप्त कर सके । इसलिए सनातन-धर्म की दृष्टि से अपने वर्ण से इतर वर्ण में विवाह करना न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए अनिष्टकारी है । दूसरी ओर आश्रम तो प्राणीमात्र को प्रकृति से ही प्राप्त होता है । अब तुम्हारी आयु गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की है ।"
"तो क्या मैं किसी ऐसी लड़की से केवल इसलिए विवाह कर लूँ कि वह मेरे वर्ण की है जिसे मैं जानता तक नहीं, और जो मुझे नहीं जानती?"
"लेकिन यह तो तुम्हारे ही वर्ण की हुई न! गुण-कर्म के आधार पर तो तुम दोनों वैश्य ही हो ।"
वह प्रसन्न हो उठा ।
बाद में जब विवाह कर वे सेटल हो गए तो एक दिन मुझे उसने विशेष रूप से अपने घर पर भोजन के लिए बुलाया ।
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July 26, 2016

दो कविताएँ /-

आज की कविता 
दो कविताएँ /-
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1. ##########
सच्चाई !
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पहाड़ तोड़ तोड़ कर,
कर दिए खड़े,
रेत के पहाड़ कई ।
सब बहा ले गई नदी !
आसमाँ हँसता है मुझ पर,
जमीं उड़ाती है हँसी मेरी,
और मैं हो चला,
रेत-रेत ज़र्रा ज़र्रा !
--
2. ##########
दहशत / साँप 
--
दो दिन पहले,
घर में निकल आया था,
देखा तो था सबने,
पर वह कहाँ छिप गया,
देख न सका कोई !
फिर तय हुआ,
कि वह चुपके से,
आँखों में धूल झोंक,
खिसककर निकल गया होगा ।
मुझे याद आया,
जैसे इंसाफ़ के बारे में कहते हैं,
कि इंसाफ़ होना ही काफ़ी नहीं,
होता हुआ दिखाई भी देना चाहिए,
वैसे ही,
उसका निकल आना / जाना,
काफ़ी न था,
अच्छा होता कि अगर,
उसका निकल कर चले जाना भी,
दिखलाई दे जाता !
और हम लक़ीर ही न पीटते रहते !
--                

July 19, 2016

संगठित-धर्म / धार्मिक-मत और विश्वास

संगठित-धर्म / धार्मिक-मत और विश्वास
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किसी भी मज़हब / जाति में जन्म होना (न होना) तो किसी के भी बस में नहीं है, किंतु संगठित-धर्म किसी वैचारिक आधार पर बना मनुष्यों का एक ऐसा समुदाय होता है जो किसी विश्वास / मत का अनुयायी होता है और चूँकि भौतिक और व्यावहारिक तल पर ऐसे किसी भी विश्वास की सत्यता (असत्यता) प्रमाणित नहीं की जा सकती इसलिए मनुष्य विश्वासों / मतों के एक समूह को छोड़कर दूसरे को अपना लेता है । इस प्रकार के संगठित मत / विश्वास हमेशा परस्पर संघर्षरत तथा अपने ही समुदाय में अन्तर्द्वन्द्वयुक्त होते हैं इसलिए समूची मनुष्य जाति निरंतर क्लेश से ग्रस्त रहती है । वर्चस्व की इस लड़ाई का आरंभ ही भय और असुरक्षा, परस्पर अविश्वास की गहरी भावना से होता है जो कट्टरता में बदल जाता है । इसे भले ही संस्कृति / भाषा / भौगोलिक भिन्नता के आवरण में छुपाया जाए, भीतर घृणा ही पनपती रहती है और मौक़ा मिलते ही हिंसा पर उतारु हो जाती है । यह अत्यन्त दुःखद तो है, लेक़िन जब तक हम इस पूरी गतिविधि को ठीक से देख-समझ नहीं लेते, वर्तमान अशान्ति और असन्तोष, असुरक्षा और भय और अधिक तीव्र और विकट रूप लेते रहेंगे इसमें सन्देह नहीं ।
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June 14, 2016

ग्रेस की एक अंग्रेज़ी कविता

अनुवादित कविता 
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क्या आपने नहीं देखा?
क्या आपका ध्यान इस ओर नहीं गया ?
विचार-प्रतिमाएँ,
कौंध उठती हैं यदृच्छया,
वे न तो पूर्वसंकल्प से प्रायोजित होती हैं,
और ज़रूरी नहीं,
कि सदा किसी चीज़ से जुड़ी ही होती हों!
वे आविर्भूत होती हैं,
और विलीन हो जाती हैं !
यद्यपि बाद के समय में,
तुम्हारे जागृत स्वप्न में
पुनः अवतरित हो जाती हैं ।
किसी तड़ित-द्युति सी ।
और तुम्हें याद रहता है कि,
अब वे बाह्य तल पर,
प्रकट होने जा रही हैं ।
’अरे! कैसे वह अनोखा विचार मुझे कल ही तो आया था!’
और यही नहीं,
मन भी तो काल में होते हुए भी,
काल से अछूता रह जाता है ।
सर्व में सर्व जैसा होना ।
एक असीम लय में,
सारे विचार और प्रतिमाएँ,
जागृत या सुषुप्त स्वप्न में,
परस्पर गुँथी होती हैं ।
एक अविरल कौंध,
प्रत्यक्ष होता हुआ पूर्वाभास,
देर से घटनेवाला प्रसंग...।
पर किससे जुड़ा होगा वह?
काल से?
किसी से नहीं?
या सबसे?
और उनके मध्य?
तुम्हारा धीरज सब कह देता है ।
सर्वव्यापित्व की कल्पना कर सकना भी,
साक्षात्कार है !
--
मूल अंग्रेज़ी कविता 
Are you noticing?

Imagery-thoughts flash at random times, 
No will or attachment to them. 
Not always associated with anything. 
They come, they go. 
They manifest in the after,
in your waking dream. 
Like lightening 
you remember 
when they seem to appear 
on the outside...

'Oh wow that thought just came to me yesterday?'

Even mind is timeless in time. 
Its the All in all. 
In an endless rhyme
All thoughts & images 
in dreams, waking or sleeping 
are related...
A seamless flash
Appearing premonition...
A belated
...happening, 
just what will it relate to? 
Time. 
Nothing. 
Everything.
And in between. 
Patience reveals.

Imagining Omnipresence 
is Revelation.

June 09, 2016

खुली क़िताब

(मेरे फेसबुक पेज पर 09 जून 2015 को मेरे द्वारा पोस्ट किया गया । )
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क्या अपने-आपको ’खुली क़िताब’ की तरह रख पाना मुमक़िन भी है?
दूसरों के लिए तो बाद की बात है, ख़ुद अपने लिए भी?
क्योंकि हम अपने-ख़ुद के लिए भी खुली किताब कहाँ होते हैं?
बहुत सी चीज़ें हम जाने-अनजाने सीख लेते हैं या मज़बूरी में हमें करना पड़ती हैं, हम झूठी प्रतिष्ठा पाकर गौरवान्वित दिखलाई देने की क़ोशिश करते हैं, और फ़िर वह हमारा ’दूसरा चरित्र’ हो जाता है । इसलिए मुझे लगता है कि इतना भी काफ़ी है कि यदि हम अपने-आप के लिए एक”खुली क़िताब’ हो सकें !
और जब हम अपने-ख़ुद को ही खुली क़िताब की तरह नहीं देख पाते / देखना चाहते, तो फ़िर दूसरों के लिए कोई कैसे खुली क़िताब हो सकता है ?
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June 02, 2016

धूमकेतु धरती पर !

धूमकेतु धरती पर
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मूलतः facebook  पर लिखा गया मेरा आज का 'Note'

धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है तो सिगरेट बनानेवाली फ़ैक्ट्रियों को बंद क्यों नहीं कर / करा दिया जाता?
एक वीभत्स सरल ऐतिहासिक सत्य / तथ्य यह है कि भारत-भूमि पर तम्बाकू का आगमन पुर्तगालियों के आने के बाद हुआ । मुखशुद्धि / मुखरंजकता, होठों को लालिमा देने हेतु जिस पदार्थ का प्रयोग किया जाता है उसे संस्कृत में ताम्बूल कहा जाता है । ताम्र अर्थात् ताम्बा, ताम्र का अपभ्रंश हुआ ताम्ब्र / ताम्बा (> अंग्रेज़ी में ’टम्ब्लर्’ / tumbler ) ताम्बूल का पत्ते का रस आयुर्वेद में ’अनुपान’ के रूप में हज़ारों वर्षों से उपयोग में लाया जाता रहा है । पुर्तगालियों ने हमें सिखाया पान के साथ तम्बाकू / तमाखू / tobacco का सेवन करना । मुगलों और उनकी देखादेखी राजपूतों ने हुक्के को अपनी ’शान’ का प्रतीक बनाया । अंग्रेज़ों ने पहले काग़ज में लपेटकर (‘रोल’ कर) सिगरेट का आविष्कार किया या भारतीयों ने बीड़ी का यह शोध का विषय हो सकता है किन्तु मैक्सिकन लोगों ने इससे पहले ही सिगार का प्रयोग किया था ।
भारत में यदि कभी तम्बाकू का प्रयोग अतीत में होता भी रहा हो, तो ऐसा औषधि के रूप में ही हुआ होगा, न कि व्यसन के रूप में । भारत में तम्बाकू और विलायती शराब के प्रचलन को अंग्रेज़ों ने ही बढ़ावा दिया । आयुर्वेदिक ’आसवों’ में विद्यमान अल्कोहल प्राकृतिक रूप से  उत्पन्न होनेवाला आसव (एथिल-अल्कोहल / ethyl-alcohol) होता है जिसे औषधियों तथा विभिन्न द्रव्यों को एक साथ उबालकर और निश्चित अंश शेष रहने पर ठंडा कर छानकर एकत्र किया जाता है, न कि ’डिस्टिल’ / distill करके, जैसा कि विलायती शराब foreign liquor के निर्माण में होता है ।
अंगूर (द्राक्ष) की ही तरह अर्जुन तथा अन्य औषधियों के आसव इस प्रकार बनाए जाते हैं । क्षत्रियों और ब्राह्मणेतर वर्ण ही मदिरा / मद्य के रूप में इसका सेवन कर सकते हैं, ब्राह्मण के लिए यह सर्वथा वर्ज्य है ।
इसी प्रकार गांजा, अफीम तथा भांग (सायकॉट्रोपिक ड्रग्ज़) आदि के बारे में भी है । देशी मदिरा इसी विलायती शराब का भारतीय संस्करण था / है अंग्रेज़ों ने ’आबकारी तथा मादक-द्रव्यों’ पर कर लगाकर जहाँ देशी मदिरा के प्रचलन को लगभग समाप्त कर दिया, वहीं विदेशी शराब को धनिकों की विलासिता बनाकर गौरवान्वित किया ।
तम्बाकू, मदिरा, गांजा cannabis, अफीम / opium तथा भांग आदि औषधि के रूप में किसी सीमा तक किसी के लिए उपयोगी हो सकते हैं किन्तु इनमें से भी केवल गांजा ही एक ऐसा पदार्थ है जिसका सेवन केवल वही साधु कर सकता है जो गृहस्थ न हो । तन्त्र के पञ्च-मकार के विषय में भी यह सत्य है । पञ्च मकार साधना भी बहुत इने-गिने साधकों के लिए होती है, केवल उन्हीं के लिए जो इन साधनों (मत्स्य-माँस-मदिरा-मुद्रा-मैथुन) को भोग-बुद्धि से नहीं ग्रहण करते । किन्तु ऐसा मनुष्य करोड़ों में कोई एक होता है ।
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सवाल उठता है कि क्या हम इस पूरी श्रँखला को समाप्त कर सकते हैं ?
तम्बाकू-जनित रोग, शराब-जनित रोग, तम्बाकू-उद्योग, शराब-उद्योग, ’पार्टी’-संस्कृति ...
एक ओर तो कैन्सर cancer, डायबिटीज़ / diabetes  जैसे रोगों का ये ही प्रमुख कारण हैं, वहीं दूसरी ओर स्लेट-पेन्सिल या सीमेंट उद्योग, अल्युमीनियम उद्योग भी इसके प्रमुख कारण हैं । फिर ’चिकित्सा’-उद्योग जो पूर्णतः इस भयावह और दोषपूर्ण धारणा का परिणाम है कि हम ’टीकाकरण’ से अनेक रोगों को जड़ से मिटा सकते हैं । आयुर्वेद के किसी ग्रन्थ में वर्णन है कि सूची (नीडल् / needle) द्वारा किसी बाह्य पदार्थ को शरीर में प्रविष्ट inject किए जाने से शरीर की स्वाभाविक रोग-प्रतिरोधक क्षमता घटती चली जाती है । उसमें तो यहाँ तक वर्णन है कि अन्ततः मनुष्य की रोगप्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह नष्ट भी हो सकती है । सवाल यह है कि ’विकास’ के शोर में इन तथ्यों पर कौन ध्यान दे?
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उम्मीद !

क्षणिका 
उम्मीद !
मुसीबतें ही सही, वक़्त कट तो जाता है,
मुसीबत वक़्त से, बड़ी कोई क्या होगी?
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मुसीबतें ही सही, वक़्त कट तो जाता है,
वक़्त सा बेरहम और कौन होता है?
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May 21, 2016

आधुनिक शास्त्र :

आधुनिक शास्त्र :
शास्त्र कहते हैं,
धन की तीन ही गतियाँ हैं :
दान, भोग, और नाश,
एक और गति है निवेश (इन्वेस्टमेन्ट/ investment)!
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May 18, 2016

नर्मदे हर !

इस बार 
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संभवतः प्रथम शिप्रा-स्नान मैंने 1956 के सिंहस्थ में किया होगा । क्योंकि तब मेरी आयु 2 या ढाई वर्ष के लगभग थी और आगर से उज्जैन आना छोटी लाइन की रेलगाड़ी से होता था । यह बहुत संभव है कि आगर से माता (माई)-पिता (अण्णा) और भाई बहनों के साथ मेरा उज्जैन आना हुआ हो । पर कुछ याद नहीं आता ।
कभी किसी से पूछा हो, या किसी ने बताया हो, यह भी याद नहीं । 
1980 में दूसरे, 1992 में तीसरे और 2004 में चौथे सिंहस्थ में मैं उज्जैन में था । इस सिंहस्थ में माँ नर्मदा ने मुझसे कहा : "बेटा! इस सिंहस्थ में मैं स्वयं ही उज्जैन जा रही हूँ इसलिए तुम उज्जैन छोड़कर यहाँ मेरे पास ही आ जाओ !" 
और मैं माँ नर्मदा की आज्ञा कैसे टाल सकता था ?
इसलिए मैं यहाँ (नावघाट-खेड़ी ग्राम) आ गया ।
और माई की ऐसी कृपा कि यहाँ आने के बाद कुछ दिनों में ही माई की स्तुति में यह रचना  मुझसे बन पड़ी ! 
एक संकेत देना चाहूँगा :
'अहं-स्फूर्ति' और 'अहं-वृत्ति' का सन्दर्भ श्री रमण महर्षि के उपदेशों के तारतम्य में दृष्टव्य है ।     
माई की महिमा मैं बालक क्या जान सकता हूँ ?
और वर्णन तो बड़े बड़े ज्ञानी ध्यानी भी कहाँ कर पाते हैं ??
नर्मदे हर !
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May 03, 2016

’बिराज बहू’ / बिमल रॉय / शरत्-बाबू

पिछले दिनों (28-04-2016)
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यूँ ही कुछ दिन पहले घर के बाजू में खड़े गूलर के वृक्ष के पीछे सन्ध्या के आलोक में सफ़ेद बादल देखते-देखते बिमल रॉय की ’बिराज बहू’ फ़िल्म की याद हो आई जिसे मैंने वर्ष 1966-67 में तीन चार बार देखा था । ’उपरहटी’ रीवा (म.प्र.) के स्कूल में वह एक फ़िल्म और दूसरी ’दोस्ती’ फ़िल्म ही कभी कभी दिखाई जाती थी । फिर दिलचस्पी हुई इस फ़िल्म की कथा के बारे में विस्तारपूर्वक जानने की । ’सर्च’ किया तो पता चला कि इस फ़िल्म की पटकथा शरत्-बाबू के बेहद मर्म-स्पर्शी उपन्यास ’बिराज बहू’ उपन्यास पर आधारित थी । बचपन में न तो समझ में आई थी यह फ़िल्म, और न बाद में कभी देखने-पढ़ने का मौका मिला । अब भी उस कथानक से अभिभूत हूँ । पता नहीं ’नारी-विमर्श’ पर धुआँधार बहस करनेवालों की क्या राय होगी उस बारे में ! मेरे लिए तो यह अभी अभी ताजा लिखी रचना है, जिसकी स्याही भी नहीं सूखी !
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April 14, 2016

आज की कविता -- प्रदक्षिणा

आज की कविता
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प्रदक्षिणा
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(सन्दर्भ :
तव तत्वं न जानामि
कीदृशोऽसि महेश्वर ।
यादृशोऽसि महादेव
तादृशाय नमोनमः)
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उत्स से उत्साह उत्थित,
प्राण-मन को व्याप लेता ।
तोड़कर सीमान्त सारे,
व्योम-दिग् सब नाप लेता ।
जब न पाता और कुछ भी
जिसको कि वह छू भी सके ।
करके नमन तब उत्स को वह,
उत्स ही में लौट जाता ॥
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March 12, 2016

आज की कविता / असंबद्ध

आज की कविता
असंबद्ध
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एक पर बैठा हुआ है,
बाकी अन्धेरे में,
देखते हैं वो अन्धेरे,
अन्धेरा उनको देखता है ।
एक उन सबसे अलग है,
अन्धेरों को नहीं देख पाता,
उजाले से हुआ मोहित,
चंद्र से चकोर सा ।
एक पर बैठा हुआ है,
बाकी उसे दिखते नहीं,
वह भी उनको नहीं दिखता,
देखते हैं वे अन्धेरे,
अन्धेरा उनको देखता है
देखते हैं जो अन्धेरे ।
उजाले ने अन्धेरे को है कब देखा?
अन्धेरे ने उजाले को है कब देखा?
--
हर शाख पर बैठा हुआ है,
अन्धेरे में या उजाले में,
अलग अपने ही विश्व में,
अपरिचित प्रतिविश्व से !
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March 08, 2016

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर

आज की कविता
--
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर 
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उसने कहा था :
अपने जीवन में कई बार ऐसा लगा कि औरत होना मेरा एक ज़ुर्म था... !
जवाब में ये दो पंक्तियाँ बन पड़ीं :
वह न तुम्हारा ज़ुर्म था कोई और न कोई मज़बूरी ।
वह केवल गहरी करुणा थी, जिससे तुम जनमी नारी!
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March 07, 2016

आज की कविता / नज़्म

आज की कविता / नज़्म
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फ़िक्र होती है तो होने दो उसे,
फ़िक्र करने लगो ये ठीक नहीं ।
प्यार होता है तो होने दो उसे,
प्यार करने लगो ये ठीक नहीं ।
बहा ले जाए रवानी तो बह जाओ उसमें,
बहते दरिया में उतरने लगो ये ठीक नहीं ।
ये हयात, ये वज़ूद और ये हस्ती,
इससे बचने लगो, ये ठीक नहीं ।
रोग आदत है ज़िस्म की जैसे,
प्यार वैसे है रोग मन का एक,
प्यार होता है तो होने दो उसे,
प्यार करने लगो ये ठीक नहीं ।
प्यार जैसे है एक रोग मन का,
वैसे होते हैं रोग और कई ।
कभी अकेले किसी भी इंसां को,
कभी कुछ को, तो कभी सबको भी ।
रोग को आदत मत बन जाने दो,
और आदत को मत बनने दो रोग ।
फ़िक्र होती है तो होने दो उसे,
फ़िक्र करने लगो ये ठीक नहीं ।
प्यार होता है तो होने दो उसे,
प्यार करने लगो ये ठीक नहीं ।
वैसे अच्छी हो या बुरी आदत,
जैसे आई थी चली जाती है,
छोड़ जाती है तनहाई पीछे,
बनके तनहाई ठहर भी जाती है ।
क़ुफ्र होता है तो हो जाने दो क़ुफ्र,
क़ुफ्र करने लगो, ये ठीक नहीं ।
एक तनहाई वो भी थी जब तुम न थे,
एक तनहाई वो भी थी जब मैं न था,
एक वो भी तो थी कभी ज़रूर,
हमसे पहले कि जब हम न थे ।
एक दिन द्वार खटखटाएगी,
लौट जाएगी हमें लेकर,
जहाँ अपनी ख़बर न होगी हमें,
सुक़ूनदेह, पुरसुक़ून तनहाई ।
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March 01, 2016

अश्वमेध यज्ञ (कविता)

अश्वमेध यज्ञ 
(कविता)
--
हाँ, मैंने भी किया था एक बार,
अश्वमेध यज्ञ!
मैंने भी पाई थी एक बार,
विजय विश्व पर !
किंतु यह भी सत्य है,
कि मैं ही वह अश्व था,
और मैं ही अश्वारोही!
मैं ही था वह विश्व,
और मैं ही विश्वविजयी !
और यह भी सच है,
कि इस विश्व-विजय के बाद,
इस थके-माँदे अश्व की बलि भी,
मैंने ही दी थी,
यज्ञ की पूर्णाहुति के रूप में !
और किया था सेवन,
यज्ञशिष्टामृत अन्न का ।
हाँ यज्ञशिष्टाशी हूँ मैं !
किन्तु फिर यह भी इतना ही सत्य है,
कि वाजश्रवा की तरह,
जिसने सोम या वरुण की तरह,
दिक्पाल होने के लिए
चढ़ाई थी या,
हिरण्यकशिपु ने
जिसने प्रयास किया था,
सारी धरती के एकछत्र साम्राज्य का,
स्वामी होने के लिए!
मैंने नहीं चढाई बलि,
अपने पुत्र की !
--
सन्दर्भ 
यज्ञशिष्टामृत गीता अध्याय 4, श्लोक 24,
वाजश्रवा - कठोपनिषद् 1/1,
सोम, वरुण - श्रीवाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग 84,

February 19, 2016

बुद्धिजीवी और खरबूजे

आज की कविता
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कुछ बुद्धिजीवी देखकर यह,
रह गए हैं दंग,
खरबूजा खरबूजे को देखकर क्यों,
बदलता है रंग?
कुछ खरबूजे देखकर यह,
हैं थोड़े अजूबे में,
क्या कुछ फ़र्क़ होता है,
बुद्धिजीवी और खरबूजे में !
खानेवाले के लिए होता है जैसे,
मुर्गी में या मुर्गे में,
काटनेवाले के लिए,
बकरे में या चूज़े में !
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(अपनी बात : वैसे मुझे लगता है, यह बेसिर-पैर की कविता है पढ़कर हँसा जा सकता है,
 बस इतना ही फ़ायदा है इसका !)
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February 15, 2016

आज की कविता / क़लम

आज की कविता 
क़लम
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क़लम का सर क़लम हो तो,
घिसती तो नहीं, रिसती तो है,
और बिखर जाती है बीज बनकर,
बनती है जड़ें नई, बुनियाद नये पौधों की,
खेतियाँ उग आती हैं कलमों की,
उग आती हैं तलवारें शर और तीक्ष्ण,
खड्ग शूल कृपाण कई!
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February 08, 2016

ख़बरें / नया कुछ

कोलकाता पुस्तक-मेला :
(सौजन्य : डॉ कविता वाचक्नवी)
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पठितव्यम् , अवलोकनीयम् .. 
शुभकामनाएँ
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January 31, 2016

प्रेम नहीं, स्नेह

प्रेम नहीं, स्नेह
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बहुत साल पहले
सुनील गंगोपाध्याय का उपन्यास प्रेम नहीं स्नेह पढ़ा था । एक परिचिता को पढ़ने को दिया तो उसने कहा कि नायिका की कोई ग़लती नहीं थी । मुझे हैरत हुई यह सुनकर, क्योंकि यह एक स्त्री के द्वारा की गई ’संक्षिप्त, सारगर्भित समीक्षा’ थी । बरसों बाद उस परिचिता की शादी हो गई और उसके बरसों बाद पुनः उससे मिलना हुआ तो अब भी उसकी यही राय थी । मुझे और अधिक हैरत हुई । फिर उसने कहा कि स्त्री तो प्रकृति होती है, न स्वतन्त्र न परतन्त्र । और तब मुझे समझ में आया कि (लेखक के अनुसार) जिसे नायक प्रेम समझता था वह निखालिस स्नेह था, जबकि रऊफ़ जिसे प्रेम समझता था वह स्त्री के लिए स्वाभाविक प्रकृति है ।
"क्या स्त्री प्रेम और स्नेह के अंतर को भी नहीं जानती ?"
मैंने पूछा ।
"वह अंतर करती ही नहीं ।"
उत्तर मिला ।
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नायक जिसे उपन्यास के अन्तिम पैराग्राफ़्स में अनुभव करता है, वैसा ही कुछ-कुछ मुझे आज की आधुनिक स्त्री को देखकर अनुभव होता है, मुझे लगता है उस परिचिता का कहना असत्य नहीं था । और मैं तय नहीं कर पाता कि मुझे स्त्री से प्रेम है या स्नेह ।
(चलते-चलते : बहरहाल आदर ज़रूर है ।)
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January 25, 2016

विकल्पवाद

विकल्पवाद 
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बहुत पहले कभी लिखा था, जो मेरे लिए आज भी उतना ही सत्य है  :
तुम्हारे लिए मैं दुःखी हूँ, पर निराश नहीं,
अपने लिए मैं निराश हूँ, पर दुःखी नहीं ।
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जब मैं अपनी दुनिया में अपनी दुनिया से बातें करता हूँ तो कुछ यही भाव / दर्शन होता है मेरा ।
यह कोई विचार या भावुकता नहीं, मेरी दुनिया के बारे में मेरी समझ, सहानुभूति और संवेदनशीलता होती है । जब तक मैं और मेरी दुनिया एक चुम्बकीय अस्तित्व के दो ध्रुवों की तरह एक दूसरे से दूर होते हैं यह संवेदनशीलता उनके ’चुंबकीय-क्षेत्र’ की तरह व्यक्त / प्रकट रहती है, जब दोनों ध्रुव परस्पर मिलकर एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं तब यह प्रच्छन्न हो रहती है । मैं, मेरी दुनिया, और हम दोनों का यह अंतरंग संबंध नितान्त वैयक्तिक होता है और अनुमान करना स्वाभाविक होगा कि मेरी दुनिया में मेरे संपर्क में आनेवाले असंख्य लोगों में से प्रत्येक ही मेरे जैसा ही एक और व्यक्ति है और उसके साथ भी बिल्कुल यही सब होता होगा । और मज़े की बात यह है कि इसके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता... !
यह समझ में आने के बाद मेरे लिए कोई वैयक्तिक अतीत, वर्तमान या भविष्य कहाँ शेष रह जाता है, जिसे मैं ’अपना’ कह सकूँ ? किन्तु तब मेरे अपने लिए मुझे कोई आशा भी नहीं होती और मैं निराश तो होता हूँ किन्तु आशा न होने से दुःखी होने के लिए भी कोई वज़ह नहीं होती ।
किन्तु जब मैं ’अपनी’ दुनिया के उन असंख्य लोगों को देखता हूँ जो नितान्त व्यर्थ स्वकल्पित दुःख झेल रहे हैं और आशा करते हैं कि कहीं किसी भविष्य में अपने दुःखों से मुक्ति पा लेंगे और इस स्वस्वीकृत विभ्रम में ’अपनी-अपनी’ दुनिया के दूसरे लोगों से पूरी शक्ति से संलग्न होकर संघर्षरत रहते हैं, और स्वयं भी शोकग्रस्त रहते हुए ’दूसरों’ को भी त्रस्त करते रहते हैं, तो मैं दुःखी होता हूँ, किन्तु निराश नहीं होता क्योंकि मुझे इस बारे में रंचमात्र भी संशय नहीं कि इन असंख्य लोगों में से प्रत्येक कभी न कभी अपने नितान्त व्यर्थ स्वकल्पित दुःख और उससे उत्पन्न होनेवाली आशा की व्यर्थता / निरर्थकता (absurdity) को देख सकेंगे । और यही एकमात्र अवश्यम्भावी ’भविष्य’है सबका । इसलिए ’उनके’ लिए मैं दुःखी हूँ, पर निराश नहीं ।
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January 23, 2016

मानवाधिकार और न्यायपालिका

मानवाधिकार और न्यायपालिका
हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों में आक्रोश है और उन्हें शिक़ायत है कि न्यायपालिका हिन्दुओं के रीति-रिवाजों के संबंध में मानवाधिकार, महिला-अधिकार आदि के या पशु-दया के हनन के आधार पर तो स्वतः संज्ञान लेते हुए, या किन्हीं लोगों द्वारा याचिका दायर करने पर अपने कर्तव्य के प्रति संविधानप्रदत्त मर्यादाओं में रहते हुए हस्तक्षेप करती है, किन्तु वहीं ऐसे ही मानवाधिकार के या पशु-दया के हनन के संबंध में हिन्दुओं से अन्य धर्म और रीति-रिवाजों के क्रियाकलापों के प्रति आँखें बन्द रखती है । वस्तुतः न्याय-पालिका से ऐसी अपेक्षा की जाती है और की जाना भी चाहिए कि वह धर्म या संप्रदाय के आधार पर नागरिकों में भेदभाव न करे और यदि नागरिकों के मन में ऐसी शंका उत्पन्न होती है कि न्यायपालिका द्वारा जाने-अनजाने संभवतः ऐसा हो रहा है तो उनकी शंका का निराकरण करे ।
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श्रीमद्भगवद्गीता 
अध्याय 2, श्लोक 24,

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
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(अच्छेद्यः अयम् अदाह्यः अयम् अक्लेद्यः अशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुः अचलः अयम् सनातनः ॥)
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भावार्थ :
यह आत्मा (संविधान और न्यायपालिका) अच्छेद्य है (जिसे काटा नहीं जा सकता, खण्डित नहीं किया जा सकता), यह आत्मा  अदाह्य है (जिसे जलाया नहीं जा सकता), अक्लेद्य है, (जिसे जल से भिगोया नहीं जा सकता), और इसी प्रकार अशोष्य (जिसे सुखाया नहीं जा सकता) । यह आत्मा नित्य ही सर्वगत (सबमें अवस्थित), स्थाणु (एक ही स्थान पर विद्यमान, ध्रुव),  और अचल है ।
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January 03, 2016

पल-दो-पल का रोमाँच

पल-दो-पल का रोमाँच
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उम्र के दिन गए हैं लद
देखता है दाँए बाँए ऊँट,
देखता हूँ मैं भी उसको,
बैठेगा आख़िर किस करवट !
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January 02, 2016

आज की कविता / शिल्पकार

आज की कविता
02-01-2016.
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शिल्पकार
कविता,
कोई शग़ल नहीं,
एक दोधारी तलवार है,
जिसे चलाते हुए कवि,
करता है आहत खुद को,
और होता है आहत खुद भी,
रचता भी है वह खुद को,
और रचा जाता भी है वही खुद,
जैसे छैनी हथौड़ी चलाता हुआ,
कोई मूर्तिकार,
उभारता है शिल्प कोई,
उकेरता है खुद को भी ।
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