संगठित-धर्म / धार्मिक-मत और विश्वास
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किसी भी मज़हब / जाति में जन्म होना (न होना) तो किसी के भी बस में नहीं है, किंतु संगठित-धर्म किसी वैचारिक आधार पर बना मनुष्यों का एक ऐसा समुदाय होता है जो किसी विश्वास / मत का अनुयायी होता है और चूँकि भौतिक और व्यावहारिक तल पर ऐसे किसी भी विश्वास की सत्यता (असत्यता) प्रमाणित नहीं की जा सकती इसलिए मनुष्य विश्वासों / मतों के एक समूह को छोड़कर दूसरे को अपना लेता है । इस प्रकार के संगठित मत / विश्वास हमेशा परस्पर संघर्षरत तथा अपने ही समुदाय में अन्तर्द्वन्द्वयुक्त होते हैं इसलिए समूची मनुष्य जाति निरंतर क्लेश से ग्रस्त रहती है । वर्चस्व की इस लड़ाई का आरंभ ही भय और असुरक्षा, परस्पर अविश्वास की गहरी भावना से होता है जो कट्टरता में बदल जाता है । इसे भले ही संस्कृति / भाषा / भौगोलिक भिन्नता के आवरण में छुपाया जाए, भीतर घृणा ही पनपती रहती है और मौक़ा मिलते ही हिंसा पर उतारु हो जाती है । यह अत्यन्त दुःखद तो है, लेक़िन जब तक हम इस पूरी गतिविधि को ठीक से देख-समझ नहीं लेते, वर्तमान अशान्ति और असन्तोष, असुरक्षा और भय और अधिक तीव्र और विकट रूप लेते रहेंगे इसमें सन्देह नहीं ।
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किसी भी मज़हब / जाति में जन्म होना (न होना) तो किसी के भी बस में नहीं है, किंतु संगठित-धर्म किसी वैचारिक आधार पर बना मनुष्यों का एक ऐसा समुदाय होता है जो किसी विश्वास / मत का अनुयायी होता है और चूँकि भौतिक और व्यावहारिक तल पर ऐसे किसी भी विश्वास की सत्यता (असत्यता) प्रमाणित नहीं की जा सकती इसलिए मनुष्य विश्वासों / मतों के एक समूह को छोड़कर दूसरे को अपना लेता है । इस प्रकार के संगठित मत / विश्वास हमेशा परस्पर संघर्षरत तथा अपने ही समुदाय में अन्तर्द्वन्द्वयुक्त होते हैं इसलिए समूची मनुष्य जाति निरंतर क्लेश से ग्रस्त रहती है । वर्चस्व की इस लड़ाई का आरंभ ही भय और असुरक्षा, परस्पर अविश्वास की गहरी भावना से होता है जो कट्टरता में बदल जाता है । इसे भले ही संस्कृति / भाषा / भौगोलिक भिन्नता के आवरण में छुपाया जाए, भीतर घृणा ही पनपती रहती है और मौक़ा मिलते ही हिंसा पर उतारु हो जाती है । यह अत्यन्त दुःखद तो है, लेक़िन जब तक हम इस पूरी गतिविधि को ठीक से देख-समझ नहीं लेते, वर्तमान अशान्ति और असन्तोष, असुरक्षा और भय और अधिक तीव्र और विकट रूप लेते रहेंगे इसमें सन्देह नहीं ।
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