आज की कविता
दो कविताएँ /-
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1. ##########
सच्चाई !
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पहाड़ तोड़ तोड़ कर,
कर दिए खड़े,
रेत के पहाड़ कई ।
सब बहा ले गई नदी !
आसमाँ हँसता है मुझ पर,
जमीं उड़ाती है हँसी मेरी,
और मैं हो चला,
रेत-रेत ज़र्रा ज़र्रा !
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2. ##########
दहशत / साँप
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दो दिन पहले,
घर में निकल आया था,
देखा तो था सबने,
पर वह कहाँ छिप गया,
देख न सका कोई !
फिर तय हुआ,
कि वह चुपके से,
आँखों में धूल झोंक,
खिसककर निकल गया होगा ।
मुझे याद आया,
जैसे इंसाफ़ के बारे में कहते हैं,
कि इंसाफ़ होना ही काफ़ी नहीं,
होता हुआ दिखाई भी देना चाहिए,
वैसे ही,
उसका निकल आना / जाना,
काफ़ी न था,
अच्छा होता कि अगर,
उसका निकल कर चले जाना भी,
दिखलाई दे जाता !
और हम लक़ीर ही न पीटते रहते !
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दो कविताएँ /-
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1. ##########
सच्चाई !
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पहाड़ तोड़ तोड़ कर,
कर दिए खड़े,
रेत के पहाड़ कई ।
सब बहा ले गई नदी !
आसमाँ हँसता है मुझ पर,
जमीं उड़ाती है हँसी मेरी,
और मैं हो चला,
रेत-रेत ज़र्रा ज़र्रा !
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2. ##########
दहशत / साँप
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दो दिन पहले,
घर में निकल आया था,
देखा तो था सबने,
पर वह कहाँ छिप गया,
देख न सका कोई !
फिर तय हुआ,
कि वह चुपके से,
आँखों में धूल झोंक,
खिसककर निकल गया होगा ।
मुझे याद आया,
जैसे इंसाफ़ के बारे में कहते हैं,
कि इंसाफ़ होना ही काफ़ी नहीं,
होता हुआ दिखाई भी देना चाहिए,
वैसे ही,
उसका निकल आना / जाना,
काफ़ी न था,
अच्छा होता कि अगर,
उसका निकल कर चले जाना भी,
दिखलाई दे जाता !
और हम लक़ीर ही न पीटते रहते !
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