आज की कविता / सतह से उठता आदमी
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अस्तित्व की कोख से,
अंकुर की तरह फूटता,
पेड़ की तरह चढ़ता,
पहाड़ की तरह फैलता,
हवाओं में क्षरित होता,
पानियों में बहता-घुलता,
कड़ी शीत में ठिठुरते हुए,
तेज़ धूप में जलता रहता,
आकाश छूने की अभीप्सा से,
संकीर्ण, पर विस्तीर्ण होता,
निथरता निखरता बिखरता,
निखरकर किरण-किरण होता,
अंततः अदृश्य हो जाता है,
लौट जाता है बीज में,
अस्तित्व की कोख में पुनः ।
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टिप्पणी : मुक्तिबोध की एक रचना,
(जिसे मैंने कभी नहीं पढ़ा)
से प्रेरित
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अस्तित्व की कोख से,
अंकुर की तरह फूटता,
पेड़ की तरह चढ़ता,
पहाड़ की तरह फैलता,
हवाओं में क्षरित होता,
पानियों में बहता-घुलता,
कड़ी शीत में ठिठुरते हुए,
तेज़ धूप में जलता रहता,
आकाश छूने की अभीप्सा से,
संकीर्ण, पर विस्तीर्ण होता,
निथरता निखरता बिखरता,
निखरकर किरण-किरण होता,
अंततः अदृश्य हो जाता है,
लौट जाता है बीज में,
अस्तित्व की कोख में पुनः ।
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टिप्पणी : मुक्तिबोध की एक रचना,
(जिसे मैंने कभी नहीं पढ़ा)
से प्रेरित
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