धूमकेतु धरती पर
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मूलतः facebook पर लिखा गया मेरा आज का 'Note'
धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है तो सिगरेट बनानेवाली फ़ैक्ट्रियों को बंद क्यों नहीं कर / करा दिया जाता?
एक वीभत्स सरल ऐतिहासिक सत्य / तथ्य यह है कि भारत-भूमि पर तम्बाकू का आगमन पुर्तगालियों के आने के बाद हुआ । मुखशुद्धि / मुखरंजकता, होठों को लालिमा देने हेतु जिस पदार्थ का प्रयोग किया जाता है उसे संस्कृत में ताम्बूल कहा जाता है । ताम्र अर्थात् ताम्बा, ताम्र का अपभ्रंश हुआ ताम्ब्र / ताम्बा (> अंग्रेज़ी में ’टम्ब्लर्’ / tumbler ) ताम्बूल का पत्ते का रस आयुर्वेद में ’अनुपान’ के रूप में हज़ारों वर्षों से उपयोग में लाया जाता रहा है । पुर्तगालियों ने हमें सिखाया पान के साथ तम्बाकू / तमाखू / tobacco का सेवन करना । मुगलों और उनकी देखादेखी राजपूतों ने हुक्के को अपनी ’शान’ का प्रतीक बनाया । अंग्रेज़ों ने पहले काग़ज में लपेटकर (‘रोल’ कर) सिगरेट का आविष्कार किया या भारतीयों ने बीड़ी का यह शोध का विषय हो सकता है किन्तु मैक्सिकन लोगों ने इससे पहले ही सिगार का प्रयोग किया था ।
भारत में यदि कभी तम्बाकू का प्रयोग अतीत में होता भी रहा हो, तो ऐसा औषधि के रूप में ही हुआ होगा, न कि व्यसन के रूप में । भारत में तम्बाकू और विलायती शराब के प्रचलन को अंग्रेज़ों ने ही बढ़ावा दिया । आयुर्वेदिक ’आसवों’ में विद्यमान अल्कोहल प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होनेवाला आसव (एथिल-अल्कोहल / ethyl-alcohol) होता है जिसे औषधियों तथा विभिन्न द्रव्यों को एक साथ उबालकर और निश्चित अंश शेष रहने पर ठंडा कर छानकर एकत्र किया जाता है, न कि ’डिस्टिल’ / distill करके, जैसा कि विलायती शराब foreign liquor के निर्माण में होता है ।
अंगूर (द्राक्ष) की ही तरह अर्जुन तथा अन्य औषधियों के आसव इस प्रकार बनाए जाते हैं । क्षत्रियों और ब्राह्मणेतर वर्ण ही मदिरा / मद्य के रूप में इसका सेवन कर सकते हैं, ब्राह्मण के लिए यह सर्वथा वर्ज्य है ।
इसी प्रकार गांजा, अफीम तथा भांग (सायकॉट्रोपिक ड्रग्ज़) आदि के बारे में भी है । देशी मदिरा इसी विलायती शराब का भारतीय संस्करण था / है अंग्रेज़ों ने ’आबकारी तथा मादक-द्रव्यों’ पर कर लगाकर जहाँ देशी मदिरा के प्रचलन को लगभग समाप्त कर दिया, वहीं विदेशी शराब को धनिकों की विलासिता बनाकर गौरवान्वित किया ।
तम्बाकू, मदिरा, गांजा cannabis, अफीम / opium तथा भांग आदि औषधि के रूप में किसी सीमा तक किसी के लिए उपयोगी हो सकते हैं किन्तु इनमें से भी केवल गांजा ही एक ऐसा पदार्थ है जिसका सेवन केवल वही साधु कर सकता है जो गृहस्थ न हो । तन्त्र के पञ्च-मकार के विषय में भी यह सत्य है । पञ्च मकार साधना भी बहुत इने-गिने साधकों के लिए होती है, केवल उन्हीं के लिए जो इन साधनों (मत्स्य-माँस-मदिरा-मुद्रा-मैथुन) को भोग-बुद्धि से नहीं ग्रहण करते । किन्तु ऐसा मनुष्य करोड़ों में कोई एक होता है ।
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सवाल उठता है कि क्या हम इस पूरी श्रँखला को समाप्त कर सकते हैं ?
तम्बाकू-जनित रोग, शराब-जनित रोग, तम्बाकू-उद्योग, शराब-उद्योग, ’पार्टी’-संस्कृति ...
एक ओर तो कैन्सर cancer, डायबिटीज़ / diabetes जैसे रोगों का ये ही प्रमुख कारण हैं, वहीं दूसरी ओर स्लेट-पेन्सिल या सीमेंट उद्योग, अल्युमीनियम उद्योग भी इसके प्रमुख कारण हैं । फिर ’चिकित्सा’-उद्योग जो पूर्णतः इस भयावह और दोषपूर्ण धारणा का परिणाम है कि हम ’टीकाकरण’ से अनेक रोगों को जड़ से मिटा सकते हैं । आयुर्वेद के किसी ग्रन्थ में वर्णन है कि सूची (नीडल् / needle) द्वारा किसी बाह्य पदार्थ को शरीर में प्रविष्ट inject किए जाने से शरीर की स्वाभाविक रोग-प्रतिरोधक क्षमता घटती चली जाती है । उसमें तो यहाँ तक वर्णन है कि अन्ततः मनुष्य की रोगप्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह नष्ट भी हो सकती है । सवाल यह है कि ’विकास’ के शोर में इन तथ्यों पर कौन ध्यान दे?
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मूलतः facebook पर लिखा गया मेरा आज का 'Note'
धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है तो सिगरेट बनानेवाली फ़ैक्ट्रियों को बंद क्यों नहीं कर / करा दिया जाता?
एक वीभत्स सरल ऐतिहासिक सत्य / तथ्य यह है कि भारत-भूमि पर तम्बाकू का आगमन पुर्तगालियों के आने के बाद हुआ । मुखशुद्धि / मुखरंजकता, होठों को लालिमा देने हेतु जिस पदार्थ का प्रयोग किया जाता है उसे संस्कृत में ताम्बूल कहा जाता है । ताम्र अर्थात् ताम्बा, ताम्र का अपभ्रंश हुआ ताम्ब्र / ताम्बा (> अंग्रेज़ी में ’टम्ब्लर्’ / tumbler ) ताम्बूल का पत्ते का रस आयुर्वेद में ’अनुपान’ के रूप में हज़ारों वर्षों से उपयोग में लाया जाता रहा है । पुर्तगालियों ने हमें सिखाया पान के साथ तम्बाकू / तमाखू / tobacco का सेवन करना । मुगलों और उनकी देखादेखी राजपूतों ने हुक्के को अपनी ’शान’ का प्रतीक बनाया । अंग्रेज़ों ने पहले काग़ज में लपेटकर (‘रोल’ कर) सिगरेट का आविष्कार किया या भारतीयों ने बीड़ी का यह शोध का विषय हो सकता है किन्तु मैक्सिकन लोगों ने इससे पहले ही सिगार का प्रयोग किया था ।
भारत में यदि कभी तम्बाकू का प्रयोग अतीत में होता भी रहा हो, तो ऐसा औषधि के रूप में ही हुआ होगा, न कि व्यसन के रूप में । भारत में तम्बाकू और विलायती शराब के प्रचलन को अंग्रेज़ों ने ही बढ़ावा दिया । आयुर्वेदिक ’आसवों’ में विद्यमान अल्कोहल प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होनेवाला आसव (एथिल-अल्कोहल / ethyl-alcohol) होता है जिसे औषधियों तथा विभिन्न द्रव्यों को एक साथ उबालकर और निश्चित अंश शेष रहने पर ठंडा कर छानकर एकत्र किया जाता है, न कि ’डिस्टिल’ / distill करके, जैसा कि विलायती शराब foreign liquor के निर्माण में होता है ।
अंगूर (द्राक्ष) की ही तरह अर्जुन तथा अन्य औषधियों के आसव इस प्रकार बनाए जाते हैं । क्षत्रियों और ब्राह्मणेतर वर्ण ही मदिरा / मद्य के रूप में इसका सेवन कर सकते हैं, ब्राह्मण के लिए यह सर्वथा वर्ज्य है ।
इसी प्रकार गांजा, अफीम तथा भांग (सायकॉट्रोपिक ड्रग्ज़) आदि के बारे में भी है । देशी मदिरा इसी विलायती शराब का भारतीय संस्करण था / है अंग्रेज़ों ने ’आबकारी तथा मादक-द्रव्यों’ पर कर लगाकर जहाँ देशी मदिरा के प्रचलन को लगभग समाप्त कर दिया, वहीं विदेशी शराब को धनिकों की विलासिता बनाकर गौरवान्वित किया ।
तम्बाकू, मदिरा, गांजा cannabis, अफीम / opium तथा भांग आदि औषधि के रूप में किसी सीमा तक किसी के लिए उपयोगी हो सकते हैं किन्तु इनमें से भी केवल गांजा ही एक ऐसा पदार्थ है जिसका सेवन केवल वही साधु कर सकता है जो गृहस्थ न हो । तन्त्र के पञ्च-मकार के विषय में भी यह सत्य है । पञ्च मकार साधना भी बहुत इने-गिने साधकों के लिए होती है, केवल उन्हीं के लिए जो इन साधनों (मत्स्य-माँस-मदिरा-मुद्रा-मैथुन) को भोग-बुद्धि से नहीं ग्रहण करते । किन्तु ऐसा मनुष्य करोड़ों में कोई एक होता है ।
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सवाल उठता है कि क्या हम इस पूरी श्रँखला को समाप्त कर सकते हैं ?
तम्बाकू-जनित रोग, शराब-जनित रोग, तम्बाकू-उद्योग, शराब-उद्योग, ’पार्टी’-संस्कृति ...
एक ओर तो कैन्सर cancer, डायबिटीज़ / diabetes जैसे रोगों का ये ही प्रमुख कारण हैं, वहीं दूसरी ओर स्लेट-पेन्सिल या सीमेंट उद्योग, अल्युमीनियम उद्योग भी इसके प्रमुख कारण हैं । फिर ’चिकित्सा’-उद्योग जो पूर्णतः इस भयावह और दोषपूर्ण धारणा का परिणाम है कि हम ’टीकाकरण’ से अनेक रोगों को जड़ से मिटा सकते हैं । आयुर्वेद के किसी ग्रन्थ में वर्णन है कि सूची (नीडल् / needle) द्वारा किसी बाह्य पदार्थ को शरीर में प्रविष्ट inject किए जाने से शरीर की स्वाभाविक रोग-प्रतिरोधक क्षमता घटती चली जाती है । उसमें तो यहाँ तक वर्णन है कि अन्ततः मनुष्य की रोगप्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह नष्ट भी हो सकती है । सवाल यह है कि ’विकास’ के शोर में इन तथ्यों पर कौन ध्यान दे?
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