(मेरे फेसबुक पेज पर 09 जून 2015 को मेरे द्वारा पोस्ट किया गया । )
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क्या अपने-आपको ’खुली क़िताब’ की तरह रख पाना मुमक़िन भी है?
दूसरों के लिए तो बाद की बात है, ख़ुद अपने लिए भी?
क्योंकि हम अपने-ख़ुद के लिए भी खुली किताब कहाँ होते हैं?
बहुत सी चीज़ें हम जाने-अनजाने सीख लेते हैं या मज़बूरी में हमें करना पड़ती हैं, हम झूठी प्रतिष्ठा पाकर गौरवान्वित दिखलाई देने की क़ोशिश करते हैं, और फ़िर वह हमारा ’दूसरा चरित्र’ हो जाता है । इसलिए मुझे लगता है कि इतना भी काफ़ी है कि यदि हम अपने-आप के लिए एक”खुली क़िताब’ हो सकें !
और जब हम अपने-ख़ुद को ही खुली क़िताब की तरह नहीं देख पाते / देखना चाहते, तो फ़िर दूसरों के लिए कोई कैसे खुली क़िताब हो सकता है ?
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क्या अपने-आपको ’खुली क़िताब’ की तरह रख पाना मुमक़िन भी है?
दूसरों के लिए तो बाद की बात है, ख़ुद अपने लिए भी?
क्योंकि हम अपने-ख़ुद के लिए भी खुली किताब कहाँ होते हैं?
बहुत सी चीज़ें हम जाने-अनजाने सीख लेते हैं या मज़बूरी में हमें करना पड़ती हैं, हम झूठी प्रतिष्ठा पाकर गौरवान्वित दिखलाई देने की क़ोशिश करते हैं, और फ़िर वह हमारा ’दूसरा चरित्र’ हो जाता है । इसलिए मुझे लगता है कि इतना भी काफ़ी है कि यदि हम अपने-आप के लिए एक”खुली क़िताब’ हो सकें !
और जब हम अपने-ख़ुद को ही खुली क़िताब की तरह नहीं देख पाते / देखना चाहते, तो फ़िर दूसरों के लिए कोई कैसे खुली क़िताब हो सकता है ?
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