क्या आक्रामकता ’धर्म’ है ?
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हमारा देश धर्मप्राण प्रवृत्ति के लोगों से भरा पड़ा है । एक पत्थर किसी भी दिशा में फेंकते ही कोई न कोई ’धर्मप्राण’ उसकी चपेट में आ जाता है । किन्तु खेल-खेल में या परम कर्तव्य समझकर पत्थर उछालना / फेंकना कुछ लोगों के लिए यही धर्म होता है । किंतु चूँकि संस्कृत भाषा के व्याकरण का लचीलापन (वर्सेटाइलिटी / फ़्लेक्सिबिलिटी) हर किसी के अपना अर्थ निकालने की स्वतंत्रता का सम्मान करती है, इसलिए कुछ लोगों के मत में ’धर्मप्राण’ होने का अर्थ है ’धर्म के प्राण लेना’ । फिर यह धर्म अपना हो या पराया इस बारे में उनका अपना मत हो सकता है ।
इन दिनों भारत की विविधता में एकता की परंपरा का उच्च स्वरों में घोष करते हुए विभिन्न ’धार्मिक’-स्थलों पर अनेक आयोजन हो रहे हैं । ऐसे ही कुछ आयोजन मेरे घर के आसपास हो रहे हैं, जिससे मुझे कोई आपत्ति नहीं है किंतु उन उच्चस्वरों में लॉउड-स्पीकर से फ़िल्मी गानों की धुनों पर गाये सुनाए जानेवाले से धर्म के प्राणों की कितनी रक्षा होती है या संगीत और कला, भक्ति के माध्यम से प्राण लेने का उपक्रम किया जाता होगा, मैं नहीं कह सकता ।
मेरी समस्या यह है कि उन ध्वनियों में मेरे अत्यंत ज़रूरी फ़ोन की रिंग-टोन भी मुझे सुनाई नहीं पड़ती, और यदि अटैंड कर भी लूँ तो बात करना / सुनना मुश्किल होता है । ऐसे ही एक आयोजन के कर्ता-धर्ता से मैंने अपनी समस्या का उल्लेख किया तो (आक्रामक होकर) बोले : आप हिंदू हैं या मुसलमान ?
मेरा जन्म जिस परिवार में हुआ, समाज में उसे हिन्दू कहा जाता है । किंतु यदि मेरा जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ होता तो भी क्या मेरी यह समस्या (फ़ोन पर किसी से संपर्क करने में कठिनाई होना) समाप्त हो जाती ? क्या मेरी इस समस्या का संबंध मेरे हिन्दू या मुसलमान होने से है? इसलिए हिन्दू हो या कोई अन्य परंपरा, ’तकनीक’ का उपयोग कहाँ तक उचित है? धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर मनमानी छूट लेकर धर्म को अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सहारा बनाना क्या धर्म है?
मान लीजिए मैं मुसलमान होता और ऐसे किसी आयोजन के कर्ता-धर्ता से अपनी समस्या कहता और वह इसे हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखता तो वह चाहे हिन्दू होता या मुसलमान, अगर मुझसे "आप हिंदू हैं या मुसलमान ?" यही प्रश्न करता, तो भी मेरी समस्या हल नहीं हो सकती थी ।
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हमारा देश धर्मप्राण प्रवृत्ति के लोगों से भरा पड़ा है । एक पत्थर किसी भी दिशा में फेंकते ही कोई न कोई ’धर्मप्राण’ उसकी चपेट में आ जाता है । किन्तु खेल-खेल में या परम कर्तव्य समझकर पत्थर उछालना / फेंकना कुछ लोगों के लिए यही धर्म होता है । किंतु चूँकि संस्कृत भाषा के व्याकरण का लचीलापन (वर्सेटाइलिटी / फ़्लेक्सिबिलिटी) हर किसी के अपना अर्थ निकालने की स्वतंत्रता का सम्मान करती है, इसलिए कुछ लोगों के मत में ’धर्मप्राण’ होने का अर्थ है ’धर्म के प्राण लेना’ । फिर यह धर्म अपना हो या पराया इस बारे में उनका अपना मत हो सकता है ।
इन दिनों भारत की विविधता में एकता की परंपरा का उच्च स्वरों में घोष करते हुए विभिन्न ’धार्मिक’-स्थलों पर अनेक आयोजन हो रहे हैं । ऐसे ही कुछ आयोजन मेरे घर के आसपास हो रहे हैं, जिससे मुझे कोई आपत्ति नहीं है किंतु उन उच्चस्वरों में लॉउड-स्पीकर से फ़िल्मी गानों की धुनों पर गाये सुनाए जानेवाले से धर्म के प्राणों की कितनी रक्षा होती है या संगीत और कला, भक्ति के माध्यम से प्राण लेने का उपक्रम किया जाता होगा, मैं नहीं कह सकता ।
मेरी समस्या यह है कि उन ध्वनियों में मेरे अत्यंत ज़रूरी फ़ोन की रिंग-टोन भी मुझे सुनाई नहीं पड़ती, और यदि अटैंड कर भी लूँ तो बात करना / सुनना मुश्किल होता है । ऐसे ही एक आयोजन के कर्ता-धर्ता से मैंने अपनी समस्या का उल्लेख किया तो (आक्रामक होकर) बोले : आप हिंदू हैं या मुसलमान ?
मेरा जन्म जिस परिवार में हुआ, समाज में उसे हिन्दू कहा जाता है । किंतु यदि मेरा जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ होता तो भी क्या मेरी यह समस्या (फ़ोन पर किसी से संपर्क करने में कठिनाई होना) समाप्त हो जाती ? क्या मेरी इस समस्या का संबंध मेरे हिन्दू या मुसलमान होने से है? इसलिए हिन्दू हो या कोई अन्य परंपरा, ’तकनीक’ का उपयोग कहाँ तक उचित है? धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर मनमानी छूट लेकर धर्म को अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सहारा बनाना क्या धर्म है?
मान लीजिए मैं मुसलमान होता और ऐसे किसी आयोजन के कर्ता-धर्ता से अपनी समस्या कहता और वह इसे हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखता तो वह चाहे हिन्दू होता या मुसलमान, अगर मुझसे "आप हिंदू हैं या मुसलमान ?" यही प्रश्न करता, तो भी मेरी समस्या हल नहीं हो सकती थी ।
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