September 04, 2016

वृक्ष की संक्षिप्त आत्मकथा

वृक्ष की संक्षिप्त आत्मकथा
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कहीं भी जाने के लिए मैं हमेशा से ही इतना लालायित था कि एक पैर पर खड़ा तैयार रहता था, लेकिन दूसरा पैर न होने से कभी कहीं न जा सका । तब मैंने ढेरों पंख उगाए, पर तब तक जड़ें धरती में इतनी गहराई तक धँस चुकी थीं कि मैं धरती से उठ तक नहीं सकता था, उड़ना तो बस स्वप्न ही था । तब से बस यहीं हूँ ।
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