विकल्पवाद
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बहुत पहले कभी लिखा था, जो मेरे लिए आज भी उतना ही सत्य है :
तुम्हारे लिए मैं दुःखी हूँ, पर निराश नहीं,
अपने लिए मैं निराश हूँ, पर दुःखी नहीं ।
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जब मैं अपनी दुनिया में अपनी दुनिया से बातें करता हूँ तो कुछ यही भाव / दर्शन होता है मेरा ।
यह कोई विचार या भावुकता नहीं, मेरी दुनिया के बारे में मेरी समझ, सहानुभूति और संवेदनशीलता होती है । जब तक मैं और मेरी दुनिया एक चुम्बकीय अस्तित्व के दो ध्रुवों की तरह एक दूसरे से दूर होते हैं यह संवेदनशीलता उनके ’चुंबकीय-क्षेत्र’ की तरह व्यक्त / प्रकट रहती है, जब दोनों ध्रुव परस्पर मिलकर एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं तब यह प्रच्छन्न हो रहती है । मैं, मेरी दुनिया, और हम दोनों का यह अंतरंग संबंध नितान्त वैयक्तिक होता है और अनुमान करना स्वाभाविक होगा कि मेरी दुनिया में मेरे संपर्क में आनेवाले असंख्य लोगों में से प्रत्येक ही मेरे जैसा ही एक और व्यक्ति है और उसके साथ भी बिल्कुल यही सब होता होगा । और मज़े की बात यह है कि इसके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता... !
यह समझ में आने के बाद मेरे लिए कोई वैयक्तिक अतीत, वर्तमान या भविष्य कहाँ शेष रह जाता है, जिसे मैं ’अपना’ कह सकूँ ? किन्तु तब मेरे अपने लिए मुझे कोई आशा भी नहीं होती और मैं निराश तो होता हूँ किन्तु आशा न होने से दुःखी होने के लिए भी कोई वज़ह नहीं होती ।
किन्तु जब मैं ’अपनी’ दुनिया के उन असंख्य लोगों को देखता हूँ जो नितान्त व्यर्थ स्वकल्पित दुःख झेल रहे हैं और आशा करते हैं कि कहीं किसी भविष्य में अपने दुःखों से मुक्ति पा लेंगे और इस स्वस्वीकृत विभ्रम में ’अपनी-अपनी’ दुनिया के दूसरे लोगों से पूरी शक्ति से संलग्न होकर संघर्षरत रहते हैं, और स्वयं भी शोकग्रस्त रहते हुए ’दूसरों’ को भी त्रस्त करते रहते हैं, तो मैं दुःखी होता हूँ, किन्तु निराश नहीं होता क्योंकि मुझे इस बारे में रंचमात्र भी संशय नहीं कि इन असंख्य लोगों में से प्रत्येक कभी न कभी अपने नितान्त व्यर्थ स्वकल्पित दुःख और उससे उत्पन्न होनेवाली आशा की व्यर्थता / निरर्थकता (absurdity) को देख सकेंगे । और यही एकमात्र अवश्यम्भावी ’भविष्य’है सबका । इसलिए ’उनके’ लिए मैं दुःखी हूँ, पर निराश नहीं ।
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बहुत पहले कभी लिखा था, जो मेरे लिए आज भी उतना ही सत्य है :
तुम्हारे लिए मैं दुःखी हूँ, पर निराश नहीं,
अपने लिए मैं निराश हूँ, पर दुःखी नहीं ।
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जब मैं अपनी दुनिया में अपनी दुनिया से बातें करता हूँ तो कुछ यही भाव / दर्शन होता है मेरा ।
यह कोई विचार या भावुकता नहीं, मेरी दुनिया के बारे में मेरी समझ, सहानुभूति और संवेदनशीलता होती है । जब तक मैं और मेरी दुनिया एक चुम्बकीय अस्तित्व के दो ध्रुवों की तरह एक दूसरे से दूर होते हैं यह संवेदनशीलता उनके ’चुंबकीय-क्षेत्र’ की तरह व्यक्त / प्रकट रहती है, जब दोनों ध्रुव परस्पर मिलकर एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं तब यह प्रच्छन्न हो रहती है । मैं, मेरी दुनिया, और हम दोनों का यह अंतरंग संबंध नितान्त वैयक्तिक होता है और अनुमान करना स्वाभाविक होगा कि मेरी दुनिया में मेरे संपर्क में आनेवाले असंख्य लोगों में से प्रत्येक ही मेरे जैसा ही एक और व्यक्ति है और उसके साथ भी बिल्कुल यही सब होता होगा । और मज़े की बात यह है कि इसके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता... !
यह समझ में आने के बाद मेरे लिए कोई वैयक्तिक अतीत, वर्तमान या भविष्य कहाँ शेष रह जाता है, जिसे मैं ’अपना’ कह सकूँ ? किन्तु तब मेरे अपने लिए मुझे कोई आशा भी नहीं होती और मैं निराश तो होता हूँ किन्तु आशा न होने से दुःखी होने के लिए भी कोई वज़ह नहीं होती ।
किन्तु जब मैं ’अपनी’ दुनिया के उन असंख्य लोगों को देखता हूँ जो नितान्त व्यर्थ स्वकल्पित दुःख झेल रहे हैं और आशा करते हैं कि कहीं किसी भविष्य में अपने दुःखों से मुक्ति पा लेंगे और इस स्वस्वीकृत विभ्रम में ’अपनी-अपनी’ दुनिया के दूसरे लोगों से पूरी शक्ति से संलग्न होकर संघर्षरत रहते हैं, और स्वयं भी शोकग्रस्त रहते हुए ’दूसरों’ को भी त्रस्त करते रहते हैं, तो मैं दुःखी होता हूँ, किन्तु निराश नहीं होता क्योंकि मुझे इस बारे में रंचमात्र भी संशय नहीं कि इन असंख्य लोगों में से प्रत्येक कभी न कभी अपने नितान्त व्यर्थ स्वकल्पित दुःख और उससे उत्पन्न होनेवाली आशा की व्यर्थता / निरर्थकता (absurdity) को देख सकेंगे । और यही एकमात्र अवश्यम्भावी ’भविष्य’है सबका । इसलिए ’उनके’ लिए मैं दुःखी हूँ, पर निराश नहीं ।
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