January 23, 2016

मानवाधिकार और न्यायपालिका

मानवाधिकार और न्यायपालिका
हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों में आक्रोश है और उन्हें शिक़ायत है कि न्यायपालिका हिन्दुओं के रीति-रिवाजों के संबंध में मानवाधिकार, महिला-अधिकार आदि के या पशु-दया के हनन के आधार पर तो स्वतः संज्ञान लेते हुए, या किन्हीं लोगों द्वारा याचिका दायर करने पर अपने कर्तव्य के प्रति संविधानप्रदत्त मर्यादाओं में रहते हुए हस्तक्षेप करती है, किन्तु वहीं ऐसे ही मानवाधिकार के या पशु-दया के हनन के संबंध में हिन्दुओं से अन्य धर्म और रीति-रिवाजों के क्रियाकलापों के प्रति आँखें बन्द रखती है । वस्तुतः न्याय-पालिका से ऐसी अपेक्षा की जाती है और की जाना भी चाहिए कि वह धर्म या संप्रदाय के आधार पर नागरिकों में भेदभाव न करे और यदि नागरिकों के मन में ऐसी शंका उत्पन्न होती है कि न्यायपालिका द्वारा जाने-अनजाने संभवतः ऐसा हो रहा है तो उनकी शंका का निराकरण करे ।
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श्रीमद्भगवद्गीता 
अध्याय 2, श्लोक 24,

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
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(अच्छेद्यः अयम् अदाह्यः अयम् अक्लेद्यः अशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुः अचलः अयम् सनातनः ॥)
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भावार्थ :
यह आत्मा (संविधान और न्यायपालिका) अच्छेद्य है (जिसे काटा नहीं जा सकता, खण्डित नहीं किया जा सकता), यह आत्मा  अदाह्य है (जिसे जलाया नहीं जा सकता), अक्लेद्य है, (जिसे जल से भिगोया नहीं जा सकता), और इसी प्रकार अशोष्य (जिसे सुखाया नहीं जा सकता) । यह आत्मा नित्य ही सर्वगत (सबमें अवस्थित), स्थाणु (एक ही स्थान पर विद्यमान, ध्रुव),  और अचल है ।
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