पिछले दिनों (28-04-2016)
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यूँ ही कुछ दिन पहले घर के बाजू में खड़े गूलर के वृक्ष के पीछे सन्ध्या के आलोक में सफ़ेद बादल देखते-देखते बिमल रॉय की ’बिराज बहू’ फ़िल्म की याद हो आई जिसे मैंने वर्ष 1966-67 में तीन चार बार देखा था । ’उपरहटी’ रीवा (म.प्र.) के स्कूल में वह एक फ़िल्म और दूसरी ’दोस्ती’ फ़िल्म ही कभी कभी दिखाई जाती थी । फिर दिलचस्पी हुई इस फ़िल्म की कथा के बारे में विस्तारपूर्वक जानने की । ’सर्च’ किया तो पता चला कि इस फ़िल्म की पटकथा शरत्-बाबू के बेहद मर्म-स्पर्शी उपन्यास ’बिराज बहू’ उपन्यास पर आधारित थी । बचपन में न तो समझ में आई थी यह फ़िल्म, और न बाद में कभी देखने-पढ़ने का मौका मिला । अब भी उस कथानक से अभिभूत हूँ । पता नहीं ’नारी-विमर्श’ पर धुआँधार बहस करनेवालों की क्या राय होगी उस बारे में ! मेरे लिए तो यह अभी अभी ताजा लिखी रचना है, जिसकी स्याही भी नहीं सूखी !
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यूँ ही कुछ दिन पहले घर के बाजू में खड़े गूलर के वृक्ष के पीछे सन्ध्या के आलोक में सफ़ेद बादल देखते-देखते बिमल रॉय की ’बिराज बहू’ फ़िल्म की याद हो आई जिसे मैंने वर्ष 1966-67 में तीन चार बार देखा था । ’उपरहटी’ रीवा (म.प्र.) के स्कूल में वह एक फ़िल्म और दूसरी ’दोस्ती’ फ़िल्म ही कभी कभी दिखाई जाती थी । फिर दिलचस्पी हुई इस फ़िल्म की कथा के बारे में विस्तारपूर्वक जानने की । ’सर्च’ किया तो पता चला कि इस फ़िल्म की पटकथा शरत्-बाबू के बेहद मर्म-स्पर्शी उपन्यास ’बिराज बहू’ उपन्यास पर आधारित थी । बचपन में न तो समझ में आई थी यह फ़िल्म, और न बाद में कभी देखने-पढ़ने का मौका मिला । अब भी उस कथानक से अभिभूत हूँ । पता नहीं ’नारी-विमर्श’ पर धुआँधार बहस करनेवालों की क्या राय होगी उस बारे में ! मेरे लिए तो यह अभी अभी ताजा लिखी रचना है, जिसकी स्याही भी नहीं सूखी !
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