समसामयिक / आकलन
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वह कोई छोटा-मोटा पत्रकार है । मुझसे मिलना चाहता था । मैं पत्रकारों से थोड़ा बचता ही हूँ, क्योंकि राजनीति किसी भी रूप में मेरा कार्य-क्षेत्र नहीं है, पर बहुत आग्रह करने पर उसे समय दिया तो उसने सीधे-सीधे बिना किसी औपचारिकता के मुझसे कहा :
दो प्रश्न मेरे मन हैं :
1. क्या पाकिस्तान टूट रहा है?
और यदि इसका उत्तर ’हाँ’ है तो,
2. पाकिस्तान क्यों टूट रहा है?
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वह इतना पूछकर मेरे जवाब का इन्तज़ार करने लगा ।
बहरहाल मैंने इस बारे में सोचा और अपने विचार कुछ इस प्रकार से रखे -
इन दो प्रश्नों में से पहला तो एक सामान्य प्रश्न है जिसका जवाब शायद हर वह व्यक्ति अपने ढंग से दे सकता है जो अख़बार पढ़ता है, रेडिओ सुनता है, टीवी देखता है, या किसी काम से यहाँ वहाँ आता-जाता है । कुछ की नज़र में यह प्रश्न बस पाक-विद्वेषी किसी व्यक्ति के दिमाग़ में उठी खुराफ़ात भर है ।
सामान्य मनुष्य ’धारणाओं’ को हक़ीकत (यथार्थ) की तरह ग्रहण कर लेता है । हक़ीकत क्या है इसे जान पाना तो बहुत मुश्किल है क्योंकि जिसे हम हक़ीकत समझते हैं वह अवश्य ही किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय के परिप्रेक्ष्य में हुआ करती है । और वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है । इसलिए हम हक़ीकत (यथार्थ) को नहीं, बल्कि इन सबके संबंध में प्राप्त जानकारी और राय को हक़ीकत समझ बैठते हैं ।
’वस्तुएँ’ शुद्धतः ऐसे इन्द्रियगम्य भौतिक तथ्य होते हैं, जिनके बारे में भिन्न-भिन्न लोगों के बीच मतभेद नहीं होते । उनका भौतिक-सत्यापन भी किया जा सकता है । वे अनुकूल, प्रतिकूल, सुखद या दुःखद भी हो सकते हैं । किंतु वह गौण है । दूसरी ओर ’व्यक्ति’, ’विषय’, ’स्थान’, ’विचार’, ’घटना’ या ’समय’ अमूर्त धारणा होते हैं जो बुद्धि के कार्यशील होने के बाद ही अर्थपूर्ण / महत्वपूर्ण होते हैं । बुद्धिहीन मनुष्य को पशु कहने पर शायद ही किसी को आपत्ति हो । किंतु बुद्धि के सक्रिय होने पर बुद्धि पूरी तरह से दोषरहित और त्रुटिरहित हो, यह न तो सबके लिए संभव है न स्वाभाविक ही है । प्रायः व्यक्ति का वातावरण, परिवार, समाज, व्यवहार करने तथा सोचने की परंपराएँ बुद्धि को उसके अपने स्वाभाविक ढंग से विकसित नहीं होने देते । बुद्धि को हम ’मन’ भी कह सकते हैं, और यह बुद्धि या मन हमारे लिए एक अमूर्त धारणा के सिवा और क्या हो सकता है? क्या इस बुद्धि या मन की प्रामाणिकता हमारे लिए किसी भौतिक तथ्य की तरह निर्विवाद और सुनिश्चित हो सकती है? 'विज्ञान' इसकी प्रामाणिकता कैसे सुनिश्चित कर सकेगा? किंतु जिसे बुद्धि / मन कहा जाता है उसके व्यावहारिक प्रयोग से इनकार भी नहीं किया जा सकता । इस रूप में वह 'तथ्य' है । संक्षेप में, जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदन के स्थूल यन्त्र होती हैं, वैसे ही बुद्धि / मन संवेदन के सूक्ष्म तल पर कार्य करनेवाले उपकरण होते हैं । बुद्धि / मन से जुड़ी हमारी प्रतिक्रियाओं को हम भावना (इमोशन / emotion ) और अनुभूति (फ़ीलिंग / feeling ) कह सकते हैं । इनके संयोग को भावनाशीलता / sentiments . भावना और अनुभूति के बीच एक बारीक अन्तर यह किया जा सकता है कि भावना हमारे हृदय में स्वाभाविक रूप से उठती और विलीन होती रहती है, जबकि अनुभूति किसी बाह्य क्रिया का संवेदन तथा उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया होती है । यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होनेवाली बोधजन्य प्रक्रिया भी हो सकती है, या हमारे पूर्व अनुभवों की स्मृति से जुड़ी कोई जटिल प्रक्रिया भी हो सकती है । संचित अनुभव हमारी भावनाओं को विरूपित कर सकता है, और यदि हम इस बारे में सतर्क / सावधान नहीं हैं तो प्रायः कर ही देता है । इस प्रकार हमारी भावनाओं और अनुभूतियों का पारस्परिक व्यवहार हमारे बुद्धि / मन को और भी असंतुलित / अस्वस्थ/ रूपांतरित कर देता है । जिसका हमें अनुभव न हो उसके प्रति हममें कोई अच्छी या बुरी, सही या गलत भावना नहीं हो सकती । किसी वस्तु के संपर्क में आने पर, उसकी सुखद, दुःखद, प्रिय-अप्रिय अनुभूति ही हममें कोई भावना जगाती है । फिर इस अनुभूति की स्मृति और पुनरावृत्ति हमारे बुद्धि / मन में उस वस्तु के बारे में कोई पूर्वाग्रह स्थापित कर देते हैं । ऐसे असंख्य पूर्वाग्रह हमारे बुद्धि / मन को अत्यंत अव्यवस्थित, अस्थिर और विरूपित कर देते हैं और तब प्रतिक्रियास्वरूप असुरक्षा और भय की भावना हममें जन्म लेती है । तब हम ’अपने-जैसे’ प्रतीत होनेवाले लोगों में सुरक्षा और आशा की किरण देखते हैं । किंतु इसी आधार पर मानव-समाज में क्या ऐसे अनेक समुदाय भी अस्तित्व में नहीं आ जाते जिनके कुछ हित समान, तो दूसरे कुछ अनेक हित परस्पर विपरीत और विरोधी भी होते हैं ? परंपराएँ मनुष्य को वास्तव में क्या ऐसा ही कोई सुरक्षा-कवच प्रदान करती हैं, या वे केवल एक और नया अस्थायी विभ्रम भर होती हैं ?
क्या पाकिस्तान टूट रहा है?
’पाकिस्तान’ की धारणा का आधार ऐसे ही कुछ लोगों की सामुदायिक गतिविधि है, जो स्वयं को इस्लाम (नामक परंपरा) का अनुयायी कहते हैं । इसलिए पाकिस्तान (जिसे वे एक देश / राष्ट्र / नेशन कहते हैं) नामक राजनीतिक-सत्ता, उसकी मूल-शक्तियाँ, इस्लाम की परंपरा में ही हैं । अब यदि इस्लाम की परंपरा और इतिहास को देखें तो इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता अपने-आपको इस्लाम का अनुयायी घोषित करनेवाली सभी राजनीतिक सत्ताएँ निरपवाद रूप से विखंडित ही होती चली गईं हैं । इस्लाम धर्म है या नहीं, यहाँ यह प्रश्न गौण है, इस बारे में यहाँ न तो कोई विचार, आकलन या विश्लेषण किया जा रहा है, न कोई निष्कर्ष या मत प्रस्तुत किया जा रहा है । यह स्पष्टीकरण इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि यहाँ ’परंपरा’ के बारे में कहा जा रहा है, न कि इस्लामी या हिन्दू, जैन, बौद्ध या ज्यू या पैगन .... और इसे उसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए । मूल विचारणीय प्रश्न यह है कि परंपरा के रूप में क्या इस्लाम में ही कहीं ऐसे कारक-तत्व (फ़ैक्टर्स) तो नहीं हैं जो इसे अपनानेवालों में, इसके अनुयायियों में, असुरक्षा और भय के, परस्पर विभाजन के बीज बोते हों? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो शायद हमें ’क्या पाकिस्तान टूट रहा है’ इस प्रश्न को समझने में सहायता मिल सकती है । क्या इस्लाम (वह फिर धर्म या परंपरा क्या है, या दोनों है, या दोनों नहीं है, ... यहाँ इस बारे में न तो कोई मत दिया जा रहा है, न ही कोई प्रश्न उठाया जा रहा है ...) की स्थापना ही अलगाववाद की एक प्रखर अभिव्यक्ति की तरह नहीं हुई थी? क्या इस प्रकार यह समुदाय स्वयं ही अपने-आपको शेष विश्व से अलग-थलग नहीं करता रहा है? और क्या यह ’समुदाय’ वस्तुतः कभी एक छतरी तले आ भी सकता है?
और, क्या पाकिस्तान (नामक राजनीतिक-सत्ता जिसे कुछ लोग एक देश / राष्ट्र / नेशन कहते हैं) उसी क्रम की अगली कड़ी नहीं है?
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पर सोचता हूँ इसे कहीं ’आपत्तिजनक’ सामग्री तो नहीं कहा जाएगा?
बस इसीलिए ब्लॉग में पोस्ट करने के बारे में थोड़ा असमंजस है ।
... ...
नमस्ते !
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वह कोई छोटा-मोटा पत्रकार है । मुझसे मिलना चाहता था । मैं पत्रकारों से थोड़ा बचता ही हूँ, क्योंकि राजनीति किसी भी रूप में मेरा कार्य-क्षेत्र नहीं है, पर बहुत आग्रह करने पर उसे समय दिया तो उसने सीधे-सीधे बिना किसी औपचारिकता के मुझसे कहा :
दो प्रश्न मेरे मन हैं :
1. क्या पाकिस्तान टूट रहा है?
और यदि इसका उत्तर ’हाँ’ है तो,
2. पाकिस्तान क्यों टूट रहा है?
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वह इतना पूछकर मेरे जवाब का इन्तज़ार करने लगा ।
बहरहाल मैंने इस बारे में सोचा और अपने विचार कुछ इस प्रकार से रखे -
इन दो प्रश्नों में से पहला तो एक सामान्य प्रश्न है जिसका जवाब शायद हर वह व्यक्ति अपने ढंग से दे सकता है जो अख़बार पढ़ता है, रेडिओ सुनता है, टीवी देखता है, या किसी काम से यहाँ वहाँ आता-जाता है । कुछ की नज़र में यह प्रश्न बस पाक-विद्वेषी किसी व्यक्ति के दिमाग़ में उठी खुराफ़ात भर है ।
सामान्य मनुष्य ’धारणाओं’ को हक़ीकत (यथार्थ) की तरह ग्रहण कर लेता है । हक़ीकत क्या है इसे जान पाना तो बहुत मुश्किल है क्योंकि जिसे हम हक़ीकत समझते हैं वह अवश्य ही किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय के परिप्रेक्ष्य में हुआ करती है । और वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है । इसलिए हम हक़ीकत (यथार्थ) को नहीं, बल्कि इन सबके संबंध में प्राप्त जानकारी और राय को हक़ीकत समझ बैठते हैं ।
’वस्तुएँ’ शुद्धतः ऐसे इन्द्रियगम्य भौतिक तथ्य होते हैं, जिनके बारे में भिन्न-भिन्न लोगों के बीच मतभेद नहीं होते । उनका भौतिक-सत्यापन भी किया जा सकता है । वे अनुकूल, प्रतिकूल, सुखद या दुःखद भी हो सकते हैं । किंतु वह गौण है । दूसरी ओर ’व्यक्ति’, ’विषय’, ’स्थान’, ’विचार’, ’घटना’ या ’समय’ अमूर्त धारणा होते हैं जो बुद्धि के कार्यशील होने के बाद ही अर्थपूर्ण / महत्वपूर्ण होते हैं । बुद्धिहीन मनुष्य को पशु कहने पर शायद ही किसी को आपत्ति हो । किंतु बुद्धि के सक्रिय होने पर बुद्धि पूरी तरह से दोषरहित और त्रुटिरहित हो, यह न तो सबके लिए संभव है न स्वाभाविक ही है । प्रायः व्यक्ति का वातावरण, परिवार, समाज, व्यवहार करने तथा सोचने की परंपराएँ बुद्धि को उसके अपने स्वाभाविक ढंग से विकसित नहीं होने देते । बुद्धि को हम ’मन’ भी कह सकते हैं, और यह बुद्धि या मन हमारे लिए एक अमूर्त धारणा के सिवा और क्या हो सकता है? क्या इस बुद्धि या मन की प्रामाणिकता हमारे लिए किसी भौतिक तथ्य की तरह निर्विवाद और सुनिश्चित हो सकती है? 'विज्ञान' इसकी प्रामाणिकता कैसे सुनिश्चित कर सकेगा? किंतु जिसे बुद्धि / मन कहा जाता है उसके व्यावहारिक प्रयोग से इनकार भी नहीं किया जा सकता । इस रूप में वह 'तथ्य' है । संक्षेप में, जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदन के स्थूल यन्त्र होती हैं, वैसे ही बुद्धि / मन संवेदन के सूक्ष्म तल पर कार्य करनेवाले उपकरण होते हैं । बुद्धि / मन से जुड़ी हमारी प्रतिक्रियाओं को हम भावना (इमोशन / emotion ) और अनुभूति (फ़ीलिंग / feeling ) कह सकते हैं । इनके संयोग को भावनाशीलता / sentiments . भावना और अनुभूति के बीच एक बारीक अन्तर यह किया जा सकता है कि भावना हमारे हृदय में स्वाभाविक रूप से उठती और विलीन होती रहती है, जबकि अनुभूति किसी बाह्य क्रिया का संवेदन तथा उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया होती है । यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होनेवाली बोधजन्य प्रक्रिया भी हो सकती है, या हमारे पूर्व अनुभवों की स्मृति से जुड़ी कोई जटिल प्रक्रिया भी हो सकती है । संचित अनुभव हमारी भावनाओं को विरूपित कर सकता है, और यदि हम इस बारे में सतर्क / सावधान नहीं हैं तो प्रायः कर ही देता है । इस प्रकार हमारी भावनाओं और अनुभूतियों का पारस्परिक व्यवहार हमारे बुद्धि / मन को और भी असंतुलित / अस्वस्थ/ रूपांतरित कर देता है । जिसका हमें अनुभव न हो उसके प्रति हममें कोई अच्छी या बुरी, सही या गलत भावना नहीं हो सकती । किसी वस्तु के संपर्क में आने पर, उसकी सुखद, दुःखद, प्रिय-अप्रिय अनुभूति ही हममें कोई भावना जगाती है । फिर इस अनुभूति की स्मृति और पुनरावृत्ति हमारे बुद्धि / मन में उस वस्तु के बारे में कोई पूर्वाग्रह स्थापित कर देते हैं । ऐसे असंख्य पूर्वाग्रह हमारे बुद्धि / मन को अत्यंत अव्यवस्थित, अस्थिर और विरूपित कर देते हैं और तब प्रतिक्रियास्वरूप असुरक्षा और भय की भावना हममें जन्म लेती है । तब हम ’अपने-जैसे’ प्रतीत होनेवाले लोगों में सुरक्षा और आशा की किरण देखते हैं । किंतु इसी आधार पर मानव-समाज में क्या ऐसे अनेक समुदाय भी अस्तित्व में नहीं आ जाते जिनके कुछ हित समान, तो दूसरे कुछ अनेक हित परस्पर विपरीत और विरोधी भी होते हैं ? परंपराएँ मनुष्य को वास्तव में क्या ऐसा ही कोई सुरक्षा-कवच प्रदान करती हैं, या वे केवल एक और नया अस्थायी विभ्रम भर होती हैं ?
क्या पाकिस्तान टूट रहा है?
’पाकिस्तान’ की धारणा का आधार ऐसे ही कुछ लोगों की सामुदायिक गतिविधि है, जो स्वयं को इस्लाम (नामक परंपरा) का अनुयायी कहते हैं । इसलिए पाकिस्तान (जिसे वे एक देश / राष्ट्र / नेशन कहते हैं) नामक राजनीतिक-सत्ता, उसकी मूल-शक्तियाँ, इस्लाम की परंपरा में ही हैं । अब यदि इस्लाम की परंपरा और इतिहास को देखें तो इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता अपने-आपको इस्लाम का अनुयायी घोषित करनेवाली सभी राजनीतिक सत्ताएँ निरपवाद रूप से विखंडित ही होती चली गईं हैं । इस्लाम धर्म है या नहीं, यहाँ यह प्रश्न गौण है, इस बारे में यहाँ न तो कोई विचार, आकलन या विश्लेषण किया जा रहा है, न कोई निष्कर्ष या मत प्रस्तुत किया जा रहा है । यह स्पष्टीकरण इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि यहाँ ’परंपरा’ के बारे में कहा जा रहा है, न कि इस्लामी या हिन्दू, जैन, बौद्ध या ज्यू या पैगन .... और इसे उसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए । मूल विचारणीय प्रश्न यह है कि परंपरा के रूप में क्या इस्लाम में ही कहीं ऐसे कारक-तत्व (फ़ैक्टर्स) तो नहीं हैं जो इसे अपनानेवालों में, इसके अनुयायियों में, असुरक्षा और भय के, परस्पर विभाजन के बीज बोते हों? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो शायद हमें ’क्या पाकिस्तान टूट रहा है’ इस प्रश्न को समझने में सहायता मिल सकती है । क्या इस्लाम (वह फिर धर्म या परंपरा क्या है, या दोनों है, या दोनों नहीं है, ... यहाँ इस बारे में न तो कोई मत दिया जा रहा है, न ही कोई प्रश्न उठाया जा रहा है ...) की स्थापना ही अलगाववाद की एक प्रखर अभिव्यक्ति की तरह नहीं हुई थी? क्या इस प्रकार यह समुदाय स्वयं ही अपने-आपको शेष विश्व से अलग-थलग नहीं करता रहा है? और क्या यह ’समुदाय’ वस्तुतः कभी एक छतरी तले आ भी सकता है?
और, क्या पाकिस्तान (नामक राजनीतिक-सत्ता जिसे कुछ लोग एक देश / राष्ट्र / नेशन कहते हैं) उसी क्रम की अगली कड़ी नहीं है?
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पर सोचता हूँ इसे कहीं ’आपत्तिजनक’ सामग्री तो नहीं कहा जाएगा?
बस इसीलिए ब्लॉग में पोस्ट करने के बारे में थोड़ा असमंजस है ।
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नमस्ते !
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