’जीवन’ एक अंतहीन बहस है?
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मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है किंतु बहस के लिए कोई राय / मत होना पूर्व-शर्त है । यह राय / मत विचार के ही रूप में हो सकता है और स्मृति / पहचान पर आधारित शब्द-समूह भर होता है । विचार का आगमन बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही होता है और बुद्धि सदा द्वन्द्व और दुविधा में होती है । वास्तविक जीवन न तो बुद्धि है, न विचार, न स्मृति है, न पहचान । ये सभी वास्तविकता पर बुद्धि, स्मृति, विचार, और पहचान का आवरण होते हैं । इसलिए वास्तविक जीवन का किसी बहस से कोई संबंध नहीं हो सकता । वस्तुओं का प्रयोजन / उपयोग होता है । विचार का विचार के दायरे तक सीमित एक (या अनेक) अर्थ होता है, जो पुनः विचार तक सीमित होता है । वस्तु का अर्थ नहीं होता और विचार किसी प्रयोजन / लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकता । अतः विचार के स्तर पर जिया जानेवाला ’जीवन’ अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है ...
विचार, बुद्धि या स्मृति को भूलवश ज्ञान कहा / समझा जाता है, जबकि ज्ञान वह है जिसकी प्रेरणा से विचार, बुद्धि या स्मृति सक्रिय हो उठते हैं । उपनिषद् कहता है : मन जिसका विचार करता / कर सकता है वह नहीं, बल्कि ज्ञान / ब्रह्म वह है जिसकी प्रेरणा से मन विचार, बुद्धि या स्मृति को प्रयोग करता है ।
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विचार और जीवन अलग है । पर विचार के बिना जीवन सम्भव है क्या?
क्या जीवन का अस्तित्व विचार पर निर्भर होता है?
इससे विपरीत, क्या जीवन के होने से ही विचार अस्तित्व में नहीं आता / आते?
इसलिए विचार के अभाव में जीवन है, जबकि जीवन के अभाव में विचार नहीं हो सकता । हम / आप जीवित हैं तो ही विचार कर (या नहीं कर) सकते । किंतु जीवित ही न हों तो विचार के सक्रिय होने का प्रश्न ही कहाँ होता है?
मस्तिष्क के अपेक्षा क्या हृदय ही जीवन और प्राणों के स्पन्दन का आधार नहीं होता? क्या भावनाएँ बुद्धि / विचार / स्मृति की तुलना में अधिक शक्तिशाली जीवंत नहीं होतीं?
क्या हृदय ’बहस’ करता है? वह बस आन्दोलित, क्षुब्ध, व्याकुल, उद्वेलित, हर्ष-विषाद से प्रभावित होकर सच्चे अर्थों में जीवित होता है / जीता है ।
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मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है किंतु बहस के लिए कोई राय / मत होना पूर्व-शर्त है । यह राय / मत विचार के ही रूप में हो सकता है और स्मृति / पहचान पर आधारित शब्द-समूह भर होता है । विचार का आगमन बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही होता है और बुद्धि सदा द्वन्द्व और दुविधा में होती है । वास्तविक जीवन न तो बुद्धि है, न विचार, न स्मृति है, न पहचान । ये सभी वास्तविकता पर बुद्धि, स्मृति, विचार, और पहचान का आवरण होते हैं । इसलिए वास्तविक जीवन का किसी बहस से कोई संबंध नहीं हो सकता । वस्तुओं का प्रयोजन / उपयोग होता है । विचार का विचार के दायरे तक सीमित एक (या अनेक) अर्थ होता है, जो पुनः विचार तक सीमित होता है । वस्तु का अर्थ नहीं होता और विचार किसी प्रयोजन / लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकता । अतः विचार के स्तर पर जिया जानेवाला ’जीवन’ अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है ...
विचार, बुद्धि या स्मृति को भूलवश ज्ञान कहा / समझा जाता है, जबकि ज्ञान वह है जिसकी प्रेरणा से विचार, बुद्धि या स्मृति सक्रिय हो उठते हैं । उपनिषद् कहता है : मन जिसका विचार करता / कर सकता है वह नहीं, बल्कि ज्ञान / ब्रह्म वह है जिसकी प्रेरणा से मन विचार, बुद्धि या स्मृति को प्रयोग करता है ।
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विचार और जीवन अलग है । पर विचार के बिना जीवन सम्भव है क्या?
क्या जीवन का अस्तित्व विचार पर निर्भर होता है?
इससे विपरीत, क्या जीवन के होने से ही विचार अस्तित्व में नहीं आता / आते?
इसलिए विचार के अभाव में जीवन है, जबकि जीवन के अभाव में विचार नहीं हो सकता । हम / आप जीवित हैं तो ही विचार कर (या नहीं कर) सकते । किंतु जीवित ही न हों तो विचार के सक्रिय होने का प्रश्न ही कहाँ होता है?
मस्तिष्क के अपेक्षा क्या हृदय ही जीवन और प्राणों के स्पन्दन का आधार नहीं होता? क्या भावनाएँ बुद्धि / विचार / स्मृति की तुलना में अधिक शक्तिशाली जीवंत नहीं होतीं?
क्या हृदय ’बहस’ करता है? वह बस आन्दोलित, क्षुब्ध, व्याकुल, उद्वेलित, हर्ष-विषाद से प्रभावित होकर सच्चे अर्थों में जीवित होता है / जीता है ।
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