आज की कविता
क़लम
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क़लम का सर क़लम हो तो,
घिसती तो नहीं, रिसती तो है,
और बिखर जाती है बीज बनकर,
बनती है जड़ें नई, बुनियाद नये पौधों की,
खेतियाँ उग आती हैं कलमों की,
उग आती हैं तलवारें शर और तीक्ष्ण,
खड्ग शूल कृपाण कई!
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क़लम
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क़लम का सर क़लम हो तो,
घिसती तो नहीं, रिसती तो है,
और बिखर जाती है बीज बनकर,
बनती है जड़ें नई, बुनियाद नये पौधों की,
खेतियाँ उग आती हैं कलमों की,
उग आती हैं तलवारें शर और तीक्ष्ण,
खड्ग शूल कृपाण कई!
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वाह बहुत सुन्दर सृजन शब्दों का चयन सुदृढ़ तरीके से किया है
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