आज की कविता
असंबद्ध
--
एक पर बैठा हुआ है,
बाकी अन्धेरे में,
देखते हैं वो अन्धेरे,
अन्धेरा उनको देखता है ।
एक उन सबसे अलग है,
अन्धेरों को नहीं देख पाता,
उजाले से हुआ मोहित,
चंद्र से चकोर सा ।
एक पर बैठा हुआ है,
बाकी उसे दिखते नहीं,
वह भी उनको नहीं दिखता,
देखते हैं वे अन्धेरे,
अन्धेरा उनको देखता है
देखते हैं जो अन्धेरे ।
उजाले ने अन्धेरे को है कब देखा?
अन्धेरे ने उजाले को है कब देखा?
--
हर शाख पर बैठा हुआ है,
अन्धेरे में या उजाले में,
अलग अपने ही विश्व में,
अपरिचित प्रतिविश्व से !
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असंबद्ध
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एक पर बैठा हुआ है,
बाकी अन्धेरे में,
देखते हैं वो अन्धेरे,
अन्धेरा उनको देखता है ।
एक उन सबसे अलग है,
अन्धेरों को नहीं देख पाता,
उजाले से हुआ मोहित,
चंद्र से चकोर सा ।
एक पर बैठा हुआ है,
बाकी उसे दिखते नहीं,
वह भी उनको नहीं दिखता,
देखते हैं वे अन्धेरे,
अन्धेरा उनको देखता है
देखते हैं जो अन्धेरे ।
उजाले ने अन्धेरे को है कब देखा?
अन्धेरे ने उजाले को है कब देखा?
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हर शाख पर बैठा हुआ है,
अन्धेरे में या उजाले में,
अलग अपने ही विश्व में,
अपरिचित प्रतिविश्व से !
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