March 01, 2016

अश्वमेध यज्ञ (कविता)

अश्वमेध यज्ञ 
(कविता)
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हाँ, मैंने भी किया था एक बार,
अश्वमेध यज्ञ!
मैंने भी पाई थी एक बार,
विजय विश्व पर !
किंतु यह भी सत्य है,
कि मैं ही वह अश्व था,
और मैं ही अश्वारोही!
मैं ही था वह विश्व,
और मैं ही विश्वविजयी !
और यह भी सच है,
कि इस विश्व-विजय के बाद,
इस थके-माँदे अश्व की बलि भी,
मैंने ही दी थी,
यज्ञ की पूर्णाहुति के रूप में !
और किया था सेवन,
यज्ञशिष्टामृत अन्न का ।
हाँ यज्ञशिष्टाशी हूँ मैं !
किन्तु फिर यह भी इतना ही सत्य है,
कि वाजश्रवा की तरह,
जिसने सोम या वरुण की तरह,
दिक्पाल होने के लिए
चढ़ाई थी या,
हिरण्यकशिपु ने
जिसने प्रयास किया था,
सारी धरती के एकछत्र साम्राज्य का,
स्वामी होने के लिए!
मैंने नहीं चढाई बलि,
अपने पुत्र की !
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सन्दर्भ 
यज्ञशिष्टामृत गीता अध्याय 4, श्लोक 24,
वाजश्रवा - कठोपनिषद् 1/1,
सोम, वरुण - श्रीवाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग 84,

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