कविता
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हो गई होगी कुछ कम अब तक तुम्हारी बेचैनी,
टल गई होगी होने से पहले ही वह अनहोनी ।
जलजले तो रोज ब रोज ही आया करते हैं,
थम गई होगी जमीं, ठहरने से पहले ज़िन्दगी।
सिलसिला हर ख़त्म होता है वक्त आने पर,
हुआ था, होता है शुरू जैसे वक्त आने पर !
सोचते हैं हम कि क़ाश, न ख़त्म होता ये कभी,
पर ये सोचना, ख़त्म हो जाता है वक्त आने पर!
सिलसिला क्या वाक़ई शुरू होता भी है कभी?
और क्या किसी तरह, ख़त्म भी होता है कभी?
सिलसिला, क्या सिर्फ़ वहम, या ख़याल ही नहीं!
शुरू या ख़त्म होना क्या महज़ इत्तफा़क़ नहीं?
लम्हा भी क्या लमहों का सिलसिला ही नहीं!
देख लो तो फ़िर कोई शिकवा या गिला भी नहीं!
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