कविता : 18-12-2021
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नववर्ष
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फिर से आकर खड़ा हुआ है द्वार पर मेरे,
नववर्ष, या कि, मैं ही यहाँ तक आ गया हूँ!
हाँ समय फिर से है, अतीत के अवलोकन का,
वैसे गन्तव्य तो अपना भी अब मैं पा चुका हूँ!
पर समय की भूमि पर, गन्तव्य भी प्रारम्भ है,
और चलना नियति ही है, कर्म ही प्रारब्ध है!
कर्म का आधार, लेकिन दृष्टि-दर्शन ही तो है,
धर्म तो है चलते रहना, लक्ष्य ही अनुबन्ध है!
लक्ष्य ही तो प्रेरणा है, लक्ष्य ही संकल्प भी,
और दर्शन दृष्टि है, विकल्प ही प्रतिबन्ध है!
दृष्टि ही जब तक नहीं, विकल्प का ही व्यूह है,
अभिमन्यु हो या हो अर्जुन, यही तो चक्रव्यूह है!
अभिमन्यु संकल्प है, पर दिशाहीन, दृष्टिहीन,
पार्थ ही ऋजु-दृष्टि है, दर्शन भी संशयविहीन!
मार्ग दो ही समक्ष हैं, विश्वास का या ज्ञान का,
वही आधार धर्म-दर्शन, कर्म के अनुष्ठान का!
धर्म की यह परंपरा विश्वास, नीति, संधान है,
कर्म की जो प्रेरणा, या आत्म-अनुसंधान है!
दो ही निष्ठाएँ हैं यहाँ, जो स्तुत्य भी हैं श्रेष्ठ भी,
एक तो है कर्म की, अन्य है अनुसन्धान की!
कर्म है विश्वास-निष्ठा, पर कर्म ही कर्तव्य है,
जो नहीं कर्तव्य है वह, भ्रान्ति अकर्तव्य है!
जो नहीं है किन्तु सक्षम, और किंकर्तव्यमूढ,
वह भी है सौभाग्यशाली, यदि नहीं अत्यन्त मूढ!
जीव का, जगत का भी, कोई विधाता है अवश्य,
निष्काम होकर कर्म करो, कर समर्पित उसे कर्म!
कर्म यदि निष्काम होगा, फल की आशा या कामना,
कैसे उठेगी हृदय में जब, इस लक्ष्य से हो सामना!
किन्तु "यह कर्ता है कौन?" मन में उठे यदि प्रश्न यह,
तो करो अनुसंधान, जिज्ञासा, खोज लो फिर मार्ग वह!
दो ही निष्ठाएँ हैं यहाँ पर, कर्म की भी, ज्ञान की,
एक निष्ठा खोज लो, त्यागकर अभिमान की!
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