न जाने किस पल
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(अवचेतन)
मौसम मेरा दोस्त था,
-उन दिनों ।
उस मौसम में टूरिस्ट वहाँ नहीं आते ।
और मुझे सस्ती दर पर 'एकोमोडेशन' मिल जाता है ।
'ऑफ़-सीज़न' में।
उस शांत नीरव रात्रि में,
होटल के कमरे में,
-जहाँ मैं ठहरा था,
देर रात गए,
वैसे तो बहुत ही अच्छा लग रहा था,
और जब आभास तक नहीं था किसी अनहोनी का,
न जाने किस पल एक खूबसूरत तितली,
किसी रौशनदान से,
भीतर चली आई थी ।
कमरे में नाईट-लैंप की मंद रौशनी में,
इधर-उधर भटकती रही ।
उसे देखता हुआ,
न जाने किस पल, मैं एक कच्ची नींद में चला गया था ।
किसी अर्ध-जाग्रत स्वप्न में ।
टेबल पर रखे गुलदस्ते में,
यूँ तो कई फूल थे,
लेकिन एक सुर्ख गुलाब,
जो कुछ स्याह भी था,
लाजवाब था ।
न जाने किस पल,
मैं सोफे से उठा,
उसे धीरे-धीरे गुलदस्ते से आजाद किया,
हाँ, वह बहुत खूबसूरत था,
-मेरी साँसें तेज़ हो चलीं थीं।
यह इतना खूबसूरत क्यों हैं ?
-मैं सोचने लगा था,
मेरा शरीर ,
उत्तेजना से काँपने लगा था,
उँगली से एक लकीर खून की छलक पड़ी थी ।
मैं उसे चूमता रहा देर तक ।
न जाने कब खो गया था,
-निविड़ अन्धकार में,
सुबह उठते ही ,
वह सपना याद आया था ।
और मैं हड़बड़ाकर,
दौड़ पड़ा था टेबल की ओर,
वहाँ गुलदस्ते को देखकर तसल्ली हुई,
उठते ही जो शर्म, और ग्लानि,
अपराध और अवसाद, और अफ़सोस सा महसूस हुआ था,
वह खो गया था,
उस गुलाब को सही-सलामत देखकर ।
और फ़िर पलटा ही था,
कि नज़र गयी,
खिड़की के कोने के ऊपर,
जहाँ एक मोटी सी, लिजलिजी छिपकिली,
कोशिश कर रही थी,
स्विच-बोर्ड के पीछे छिप जाने की,
और मेरे पैरों के पास, फर्श पर,
दिखलाई दिए थे,
'मोनार्क' के पंख,
चार टुकड़ों में ।
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October 21, 2009
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सुन्दर रचना बधाई
ReplyDeletePankajbhaaii,
ReplyDeleteComment ke liye dhanyawaad.
Oh ....ant to vishad de gya ....par rachna bhot sunder tarike se piroi aapne ....!!
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