<<<<<<<<<<<<<<<<<उन दिनों -25.>>
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उन दिनों - 26.
अविज्नान 'अवस्था' की etymology बतलाने लगा ।
फ़िर मैंने चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए पूछा , :
'अच्छा, तो क्या अवस्था के इस स्वरूप का दर्शन करना कोई 'अनुभव' है ?'
'यही तो समस्या है ! यद्यपि सारी अनुभव इसी की पृष्ठ-भूमि में होने से घटित होते हैं, किंतु यह 'पृष्ठ-भूमि' किसी किस्म का अनुभव है, ऐसा कहना अनुचित होगा । फ़िर भी, अनुभवों की श्रंखला के अवरुद्ध होते ही वह अवस्था अकस्मात् प्रत्यक्ष हो उठती है , बस इतना ज़रूर कह सकते हैं । '
हम फ़िर मौन हो गए । मैं पूछना तो और भी बहुत कुछ चाहता था, लेकिन उसके चारों और 'मौन' का जो प्रभामंडल मुझे आलिंगित कर रहा था उसमें मेरे सारे प्रश्न मुझे निपट अर्थहीन लगने लगे थे ।
उस मौन में टिके रहना फ़िर भी मेरे लिए कुछ कठिन था । मेरा अपना ही मन मुझे उसमें डूबने में बाधा बन रहा था । जैसे सुबह-सुबह बहुत अच्छी नींद आ रही हो, और सड़क का शोर आपको सोने न दे ।
लेकिन तब मैं सो भी कहाँ रहा था ? तब मैं बिल्कुल जागृत था, -ऐसी जागृति तो कभी-कभी ही हुआ करती है ।
उस मौन में टिके रहना कठिन इसलिए भी था, क्योंकि तब चित्त में कुछ कौंध रहा था । यह शोर तो नहीं था, लेकिन मन की ही पुरानी मूर्खताओं के क्रम की एक कड़ी था ।
यह कुछ वैसा था, जब सूरज क्षितिज पर होता है, और आप तय नहीं कर पाते की अब सुबह होने जा रही है, या शाम ।
लेकिन अविज्नान मानों मेरे मन तथा चित्त को भी खुली किताब की भाँति पढ़ रहा हो । उसने ही मौन भंग किया, वह बोला, :
"कभी-कभी ऐसा होता है कि आपका चित्त समय को धोखा देकर अस्तित्त्व के गहनतर स्तरों को छूने के लिए व्याकुल होता है, और 'मन' के विचार, ऐसा होने में खलल डालते हैं । फ़िर भी कभी-कभी खुशकिस्मती से , चित्त समय को (या मन को) धोखा दे पाने में सफल हो जाता है, और उन स्तरों से 'एकात्म' हो जाता है । उस विभोर स्थिति में अनायास उस अवस्था के दर्शन हो सकते हैं, जो सम्पूर्ण अस्तित्त्व का सारतम सत्य है , -जो विचार या मन कदापि नहीं है । मन या विचार तो उस पर छाये बादल या आवरण मात्र हैं । फ़िर उस 'सत्य' का दर्शन 'किसे ' हुआ / होता है, यह प्रश्न भी एक असंगत प्रश्न जान पड़ता है ।
मैं उसे 'प्रज्ञा' कहना चाहूंगा । क्योंकि विचार या मन के न होने पर 'मैं' जैसी कोई चीज़, - अस्तित्त्व से अपनी कोई पृथक 'पहचान ही कहाँ शेष रह जाती है ?
लेकिन इसीलिये तब आप 'कहीं-और' होते हों, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । आप स्वप्न में, नशे में, निद्रा में, या बेहोशी में नहीं होते, आप किसी कल्पना में भी निमग्न नहीं होते । "
"क्या यह आत्म-साक्षात्कार (enlightenment) है ? " -मेरे मन में तुंरत ही प्रश्न उठा, लेकिन एक दूसरा प्रश्न उसे किनारे करता हुआ प्रबल हो उठा ।
"फ़िर अविज्नान के साथ ही ऐसा क्यों होता है ? वह अजनबी माहौल में लोगों को उस विशेष दृष्टि से क्यों देखने लगता है, जो लोगों को स्तब्ध कर देती है ?" -मैंने अपने भीतर, और उससे भी सवाल किया ।
"हाँ, मैंने ख़ुद भी इस पर सोचा है, और 'सोचा है' कहने से बेहतर होगा, यह कहना कि मैंने इसका पता लगाने की कोशिश की है । "
मैं चुपचाप सुनने लगा, इंतज़ार कर रहा था मैं, उसके जवाब का ।
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October 10, 2009
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sundar atyant sundar
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