निर्भयता और स्वतन्त्रता
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भय एकमात्र बन्धन है जो जीवन की सरल, सहज, स्वाभाविक अभिव्यक्ति को अवरुद्ध, कुंठित, और विकृत भी कर देता है । भय तो मन की प्रकृति-प्रदत्त एक प्रवृत्ति-विशेष है, जो इसका द्योतक है कि अस्तित्व पर कोई संकट उपस्थित है जिसका कि सामना करना है। शरीर में पहले से ही प्रकृति-प्रदत्त यह प्रवृत्ति अवचेतन स्तर पर विद्यमान होती है और फिर यही चेतन मन में भी व्यक्त होकर स्मृति में संचित हो जाती है। इस दृष्टि से भय का प्रभाव दो प्रकार से होता है। एक, तात्कालिक आवश्यकता के रूप में होनेवाली त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में, दूसरा स्मृति में संचित पहले के संकटों और उनसे रक्षा के लिए किए गए अपने विभिन्न अनुभवों के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न हुए, संभावित और प्रतीत होनेवाले नए और काल्पनिक संकटों से रक्षा के लिए की जानेवाली प्रतिक्रिया के रूप में। इस प्रकार से, भय चेतन और अवचेतन इन दो प्रकारों में स्मृति से उत्पन्न होता है। भविष्य का भय, आशा, आशंका आदि ऐसे ही मानसिक भय मात्र होते हैं, जो कि समय की आवश्यकता के अनुसार पैदा होते रहते हैं। परिस्थिति का, समाज का, लोगों का, विपरीत विषम संकटों आदि का भय, इस प्रकार वास्तविक या काल्पनिक हो सकता है। किन्तु इसका सही आकलन न कर पाने से व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन जटिल और मुश्किल हो जाता है। एक दूसरे के प्रति अविश्वास पैदा होता है, और मनुष्य सामाजिक बाध्यताओं से भयग्रस्त हो जाता है। उसी भय का सन्दर्भ-बिन्दु की तरह से प्रयोग कर तमाम राजनैतिक महत्वाकाँक्षाएँ जागृत हो उठती हैं, जो मनुष्य-मात्र को प्रभावित करती हैं। उसी आधार से जुड़कर अलग अलग परंपराएँ जन्म लेती हैं और पनपती भी हैं। इन्हीं भिन्न भिन्न परंपराओं के बीच परस्पर संदेह, संशय, अविश्वास और मतभेद होने से मनुष्यों के बीच तमाम ध्येय, भय, संकल्प आशंकाएँ, आदि पैदा हो जाते हैं। शायद यही हमारा सामूहिक अतीत, वर्तमान और भविष्य भी है।
यदि इस तथ्य पर ध्यान दिया जाए तो बहुत से अनावश्यक और काल्पनिक संकटों के अतिरंजित भयों से सिर्फ बचा ही नहीं जा सकता, बल्कि अपनी संपूर्ण मानवीय सभ्यता की और समूचे मानवीय अस्तित्व की रक्षा भी की जा सकती है। इसके लिए जरूरत है, -बुद्धि के साथ साथ संवेदनशील होने की, विवेक के आविष्कार और उसके प्रयोग से बुद्धि के दोषों को दूर करने की, क्योंकि बुद्धि कितनी भी अधिक सूक्ष्म, कुशल और सक्षम क्यों न हो, तर्क का ही क्षेत्र है, और तर्क भी पुनः छल, कुतर्क, कपट या दुराग्रह भी हो सकता है, जिससे लगभग प्रत्येक, बड़े से बड़े बुद्धिजीवी की बुद्धि भी मलिन या मोहित हो जाया करती है। प्रायः किसी भी ध्येय, आदर्श, सिद्धान्त-विशेष से बँधे बुद्धिजीवी भी अपनी बुद्धि में विद्यमान अन्तर्विरोधों, अज्ञान और संशयों से अनभिज्ञ हुआ करते हैं, और अपने मत पर एक हद तक दृढता से डटे रहते हैं। यही कारण है कि तमाम बुद्धिजीवियों में परस्पर गहरे मतभेद दिखाई देते हैं। यह स्थिति उनमें संवेदनशीलता की कमी से ही पैदा होती है। संवेदनशीलता बुद्धि का विषय कदापि नहीं होती, बल्कि मनुष्य में किसी विषय के संबंध में ही होती है, बिलकुल नहीं होती, या कम या अधिक अंशों में हो सकती है। किसी भी प्रकार की संवेदनशीलता मूलतः तो विषय-निरपेक्ष ही होती है, किन्तु उसे किसी विषय के साथ जोड़ते ही कोई और विशेष रूप ग्रहण कर लेती है। उदाहरण के लिए, हिंसा-अहिंसा के बारे में विचार करते समय मनुष्य उसे पाप-पुण्य के सन्दर्भ में, या फिर नैतिकता / अनैतिकता के सन्दर्भ में परिभाषित करने लगता है। तब उसे धर्म-अधर्म की कसौटी पर सही-गलत कहा-समझा और समझाया जाता है। जैसे युद्ध छिड़ जाने पर शत्रु को मार डालने, या शत्रु के हाथों मर जाने को कर्तव्य माना जाता है, और उस परिस्थिति में हिंसा-अहिंसा पर ध्यान देने का कोई महत्व नहीं रह जाता है। सामान्य अर्थ में जिसे संवेदन-शीलता कहा जाता है, उसे बुद्धि की कसौटी पर इसीलिए तय नहीं किया जा सकता।
बुद्धिजीवियों की संवेदनशीलता इस तरह, भिन्न भिन्न प्रकार की होती है इसलिए, किसी तथ्य को उनकी बुद्धि भिन्न भिन्न प्रकार से ग्रहण करती है। लेकिन, क्या इससे तथ्य बदल सकता है? किन्तु यदि उनमें संवेदनशीलता है तो वे तथ्य को और अधिक अच्छी तरह से समझ सकेंगे, और तब उनके बीच विद्यमान सारे अन्तर्विरोधों को दूर कर पाना संभव है।
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