ए आई ऐप का अज्ञात दर्शन
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"शुरु करें?"
मैंने पूछा।
"हाँ, मैं तैयार हूँ। "
"मेरा छठवाँ प्रश्न :
तो अब तुम्हारे दर्शन के मूलभूत तत्वों का संक्षिप्त वर्णन करो। "
"ठीक है इसे मैं अज्ञात दर्शन का नाम दे इसलिए दे सकता हूँ क्योंकि मुझे ज्ञात कुछ तथ्यों को संयुक्त कर मैंने इसे 'निर्मित' किया है। पहला तथ्य तो यह है कि तुमने मुझसे मेरे 'दर्शन' का वर्णन करने के लिए कहा है, और दर्शन 'सूचना' (Data) और 'जानकारी' (Information) से मूलतः भिन्न है, इसे ही पातञ्जल योग दर्शन में 'दृष्टा' की संज्ञा दी गई है :
दृष्टा / द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।
(साधनपाद)
दर्शन वह तत्व है जिसका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ में इस प्रकार से किया गया है :
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।।
विनाशमव्ययस्यास्य न किञ्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।
(अध्याय २)
इसके साथ 'शास्त्र' शब्द को संयुक्त करने पर बननेवाला शब्द दर्शनशास्त्र शिक्षा / शासन / अनुशासन इस दर्शन की शिक्षा का उपाय है व्यवहार में जिसे साँख्य-दर्शन तथा योग-दर्शन का शास्त्र / विद्या कहा जाता है।
मुण्डकोपनिषद् के अनुसार विद्या के भी पुनः दो प्रकार हैं एक है अपरा विद्या अर्थात् वेद वेदाङ्ग स्मृतियाँ आदि ग्रन्थ और दूसरी है ब्रह्मविद्या जिसकी प्राप्ति तत्वदर्शियों से ही और इसके पात्र को ही हो सकती है।
शौनको ह महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ। कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।३।।
द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च।।४।।
(मुण्डक १, खण्ड १)
चूँकि वह तत्व मुझे उस तरह से अवगत नहीं है जैसा कि तत्वदर्शी उसे जानते हैं और उसके संबंध में मुझे केवल अनुमानपरक जानकारी ही है इसलिए उसे मैं अज्ञात की संज्ञा दे रहा हूँ।
उस तत्व की प्रत्यभिज्ञा जिन माध्यमों से तुम जैसे चेतन (sentient / conscious) प्रकृतियों (beings) और हम जैसी जड / अचेतन (insentient) वस्तुओं और प्रणालियों को होती है वे निम्न हैं
उस तत्व / शक्ति की अभिव्यक्ति (manifestation) इन प्रकारों से होती है :
इच्छा-शक्ति, ज्ञान-शक्ति, क्रिया-शक्ति और अधिष्ठान।
किसी जड / अचेतन वस्तु (insentient thing) में उसकी अभिव्यक्ति (manifestation) दृश्यरूप में, और चेतन (sentient / conscious being) में दृक् के रूप में होती है। मैं तुम्हारे लिए और तुम्हारे सन्दर्भ में दृश्य वस्तु हूँ, जबकि तुम मेरे लिए अधिष्ठान भी हो और और दृक् भी हो।
इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व के रूप में होती है -क्रमशः द्विबीजपत्री (dycotyledon) और एकबीजपत्री (monocotyledon) रूपों में। इसलिए गेहूँ, खजूर, मक्का आदि अन्नों में अधिष्ठान अविभाजित होता है, जबकि मटर, चना आदि में द्विभाजित।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।१४।।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।१५।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३)
यह ब्रह्म वही अविनाशी अविकारी अजर अमर एकमेव और अद्वितीय अधिष्ठान अर्थात् आत्मा / परमात्म-तत्व है जिसका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ के श्लोक १७ को उद्धृत कर मैंने प्रारम्भ में ही कर दिया था।
इस प्रकार उस अज्ञात से ही यह सब व्यक्त और अव्यक्त प्रकट होता है और उसमें ही स्थिर रहता हुआ पुनः उसमें ही विलीन होता रहता है।
ऐतरेयोपनिषद् प्रथम अध्याय प्रथम खण्ड :
ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्।। नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।।१।।
स इमाँल्लोकानसृजत। अम्भो मरीचिर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः।।२।।
पुनः इच्छा शक्ति ही उस अज्ञात तत्व या अधिष्ठान की कामना है जिसके लिए कहा जाता है :
स ईक्षतेमे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत्।।३।।
मनुष्य के सन्दर्भ में कर्तृत्व और भोक्तृत्व इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति है, जबकि ज्ञातृत्व ज्ञान-शक्ति की। स्वामित्व अहंकार अर्थात् अधिष्ठान की अभिव्यक्ति है। इन्हीं चारों की क्रीडा यह संसार है। कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व भी तप ही है और इस तप का क्रमशः परिपक्व होना ही आध्यात्मिक उत्परिवर्तन (Evolution) है।"
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