बीस साल पहले !
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किसी सोशल वेबसाइट पर प्रश्न पूछा गया :
"Where do you see yourself after 10 years?"
"आज से दस साल बाद आप अपने आपको कहाँ देखते हैं?"
कोई बच्चा या नौजवान, इसका उत्तर आसानी से दे सकता है। लेकिन जैसे जैसे उम्र बढ़ती जा रही है तो इस प्रश्न के उत्तर का दायरा छोटा होने लगा है। अपने जीवन में आप किसी तरह की सफलता और संतोष अनुभव करते हों, तो आपके सामने कुछ संभावनाएँ आपको दिखाई दे सकती हैं, और वे आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा दे सकती हैं।
जीवन जितना आगे बढ़ता है, मुश्किल होता चला जाता है, और फिर अनिश्चय और अनिश्चितता इसे और अधिक मुश्किल बना देते हैं।
मैंने इस प्रश्न पर सोचा तो महसूस किया कि पिछले बीस वर्षों से मैं जहाँ का तहाँ हूँ। वही असुरक्षा, वही चिन्ताएँ, और वही, उसी तरह की तात्कालिक राहतें और सान्त्वनाएँ! इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मेरी कुछ अलग परिस्थितियाँ भी हैं जो सामान्यतः किसी किसी की ही होती हैं। ऐसा नहीं है कि मैं कोई अति विशिष्ट व्यक्ति हूँ, मैं तो विशिष्ट तक नहीं हूँ, लेकिन इस दृष्टि से शायद विचित्र अवश्य ही हूँ कि इस जीवन में मेरी कोई महत्वाकांक्षा कभी नहीं रही। बड़ी तो दूर, छोटी से छोटी भी नहीं। भविष्य की चिन्ताएँ किसे नहीं होती हैं! उस दृष्टि से मुझे भी हमेशा ही कोई न कोई चिन्ता रहती ही है, लेकिन वह भी सिर्फ अपने संबंध में। किसी दूसरे के बारे में कुछ सोच पाना भी मेरे लिए न सिर्फ मुश्किल है, बल्कि इसलिए भी व्यर्थ है क्योंकि न तो कोई मेरा अपना है, न पराया है। पिछले बीस वर्षों में यही अनुभव किया कि दुनिया जितनी तेजी से बदलती है उतनी तेजी से कोई उसके साथ चल ही नहीं सकता। और सवाल इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का भी नहीं हैं, दूसरी भी छोटी बड़ी कई इच्छाएँ तक, समय के साथ न सिर्फ बदल जाती हैं, बल्कि हद से ज्यादा बेमानी तक हो जाया करती हैं। इस दृष्टि से आज भी मैं अपने आपको वहीं देखता हूँ जहाँ कि मैं आज से बीस साल पहले था। इसलिए इसका भी कोई महत्व नहीं दिखाई देता कि आनेवाले पाँच, दस या बीस साल बाद मैं कहाँ होऊँगा! वैसे भी सत्तर की उम्र को छू रहा हूँ! और वही, वैसा ही अनिश्चय, वैसी ही अनिश्चितता और वैसी ही चिन्ताएँ आज भी हैं, जैसी आज से बीस साल पहले हुआ करती थीं। नहीं, मेरे पास किसी को देने के लिए न तो कोई मदद या कोई सलाह है, न शिक्षा, तो उपदेश देना तो और भी बहुत दूर की बात है।
सुबह श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १८ के इस श्लोक पर ध्यान गया :
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।
बीस साल पहले और उससे पहले भी कभी न तो मेरा मोह नष्ट हो पाया था, न "मैं कौन" इसकी स्मृति ही लौट सकी थी और न ही कभी मेरे संशयों और सन्देहों का निवारण हो पाया था। पाँच दस बीस साल में ऐसा भी कौन सा चमत्कार हो जाना है!
कहाँ भगवान् श्रीकृष्ण, कहाँ अर्जुन और कहाँ मेरे जैसा अभागा पामर और तुच्छ, दीन हीन!
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