गुरु गोरक्षनाथ और बीजगणित
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संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्।।१८।।
(पातञ्जल योगसूत्र : विभूतिपाद)
नियति के निश्चय के अनुसार मेरे गुरुजनों में मेरे स्वर्गीय माता - पिता तो प्रातःस्मरणीय हैं ही, किन्तु उनके अनन्तर मेरे बड़े भाई का भी उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने ही मुझे :
"अक्षरज्ञान"
की शिक्षा दी। पिताजी ने मुझे संध्या के अनुष्ठान और मन्त्रों की दीक्षा दी। इस सबके बीच वे अपने निजी प्रारब्ध का भोग करते रहे जिस पर मेरे द्वारा इससे अधिक कुछ कहा जाना मर्यादा का उल्लंघन होगा।
किन्तु इसके बाद मुझे शिक्षा जगत में जो शिक्षक मिले वे सभी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं कि मैंने उनसे अद्भुत् ज्ञान प्राप्त किया।
विद्यालय की अपनी शिक्षा के समय भी ऐसे ही एक शिक्षक थे, जो उदासीन और निर्लिप्त भाव से सोमवार-मंगलवार के दिन अंक-गणित, बुधवार-गुरुवार के दिन बीज-गणित, तथा शुक्रवार और शनिवार के दिन रेखा-गणित पढ़ाया करते थे। वैसे तो मुझे अंक-गणित में बिलकुल रुचि नहीं थी, किन्तु बीज-गणित और रेखा-गणित मुझे अत्यन्त ही प्रिय थे। और अब ध्यान आया कि इसका यह भी एक कारण था कि मेरे बड़े भाई से ही इन दोनों विषयों की प्रारंभिक शिक्षा मुझे प्राप्त हुई थी।
।।ॐ तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
बीज-गणित और रेखा-गणित के अपने अध्ययन के समय मेरे पूर्व-जन्मों के संस्कारों से मेरा ध्यान बीज और रेखा के तत्वों की ओर आकर्षित हुआ। संस्कृत की शिक्षा मैंने अभ्यास के माध्यम से प्राप्त की। यद्यपि मेरे गणित के वे शिक्षक अ-ब्राह्मण वर्ण से आते थे, और इसलिए स्वयं को वेदाध्ययन के लिए अनधिकारी मानते थे, किन्तु वे और मेरे संस्कृत के शिक्षक जो ब्राह्मण वर्ण से आते थे एक दूसरे के परम मित्र थे। इसलिए मेरे उन दोनों ही शिक्षकों के बीच कुछ न कुछ संवाद होता ही रहता था, और मेरे गणित के वे शिक्षक मौन रहकर संस्कृत के शिक्षक का संभाषण सुना करते थे।
ऐसे ही एक दिन मैं वहाँ से गुजर रहा था तो उन्होंने मुझे आवाज दी। संस्कृत के शिक्षक कह रहे थे :
"संस्कृत सीखकर वेदों का तत्व नहीं समझा जा सकता, किन्तु वेदाध्ययन करने पर संस्कृत का रहस्य किसी भी अधिकारी के द्वारा अवश्य ही समझा जा सकता है। और अधिकारी केवल ब्राह्मण वर्ण का हो सकता है। फिर गीता के अनुसार :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
इस प्रकार से, यद्यपि कोई किसी भी जाति (वंश) में उत्पन्न हुआ हो, गुणों और कर्मों से, अर्थात् आचरण से ही किसी वर्ण-विशेष की योग्यता रखनेवाला, उससे संबंधित कहा जा सकता है।"
गणित के शिक्षक इस तर्क से प्रभावित नहीं हुए, फिर बोले, इस आधार पर भी मैं अपने आपको ब्राह्मण नहीं कह सकता। दोनों की बातचीत एक ठहाके के साथ समाप्त हो गई।
फिर गणित के शिक्षक ने दूसरे शिक्षक से किसी कार्य के लिए उचित मुहूर्त के संबंध में जानना चाहा। उन्होंने मुझसे कहा : "विनय उस आलमारी में पञ्चाङ्ग रखा है, जाकर ले आओ!"
वे पञ्चाङ्ग खोलकर उसमें "चौघड़िया" देखने लगे।
गणित के शिक्षक प्रतीक्षा करते रहे। फिर संस्कृत के शिक्षक ने कहना प्रारंभ किया : वैसे तो मुहूर्त-चिन्तामणि और दूसरे ग्रन्थों से भी मुहूर्त आदि का ज्ञान होता है किन्तु वह एक जटिल और संदेहास्पद प्रक्रिया है, जबकि चौघड़िया आसान है, जिसे कोई भी थोड़ा ध्यान देकर समझ सकता है। इसे स्मरण रखना भी उतना ही आसान है।
उद्वेग, अमृत, रोग, लाभ, शुभ, चर, काल ।
ये सात चौघड़िया हैं प्रत्येक दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक और बाद में रात्रि में सूर्यास्त से सूर्योदय के समय को आठ भागों में विभाजित किया जाता है।
रविवार के दिन का प्रथम और अंतिम चौघड़िया "उद्वेग" होता है। रविवार की रात्रि का प्रथम और अंतिम चौघड़िया "शुभ" होता है। सोमवार के दिन प्रथम और अंतिम चौघड़िया "अमृत" होता है और रात्रि का प्रथम और अंतिम "चर" होता है। केवल इस एक सूत्र से सभी सात दिनों के दिन तथा रात्रि के चौघड़िया जाने और याद रखे जा सकते हैं।
प्रश्न यह है कि गुरु गोरक्षनाथ ने इनका आविष्कार क्यों किया? इसका उत्तर यही होगा कि इस प्रकार से उन्होंने सामान्य मनुष्य के लिए एक ऐसा सरल सूत्र दिया जिससे समय की प्रवृत्ति का पूर्वानुमान लगाकर किसी कार्य को करने के लिए उपयुक्त और उचित समय सुनिश्चित किया जा सके। दूसरी ओर, उनके लिए भी यह उपयोगी है जो समय के अनुसार बदलती मनःस्थितियों से सामन्जस्य करने का उपाय खोज रहे हैं। अर्थात् आध्यात्मिक जिज्ञासु।
इस प्रकार गुरु गोरक्षनाथ ने काल और स्थान की परस्पर बाधा का निवारण कर दिया। स्थान नितान्त स्थिर तत्व है जो तमोगुण प्रधान है, जबकि काल नितान्त गतिशील रजोगुण प्रधान तत्व है। इसलिए केवल एक ही उपाय से नाथ सम्प्रदाय के आचार्य ने काल-स्थान से सामन्जस्य का उपाय जनसाधारण के कल्याण के लिए आविष्कृत और प्रकट किया।"
Elimination by Substitution -
इसे ही गणित की भाषा में विलोपन की प्रक्रिया कहा जाता है, अर्थात् दो अज्ञात राशियों के दो समीकरणों में से एक में स्थित अज्ञात राशि को दूसरी अज्ञात राशि के रूप में परिवर्तित करने के बाद उस दूसरी राशि का प्रतिस्थापन दूसरे समीकरण में कर दोनों ही अज्ञात राशियों को ज्ञात कर लेना।
उदाहरण के लिए :
3x + 5y = 11,
x + 2y = 4,
इन दो अज्ञात राशियों के दो समीकरणों को इस विधि से हल कर x और y का मान क्रमशः 2 तथा 1 प्राप्त होता है।"
"यह तो बीजगणित हुआ!"
गणित के शिक्षक आश्चर्य से भरकर उत्साहपूर्वक बोले।
हाँ, बीजाक्षर का गणित। बीज सुप्त और अव्यक्त, अज्ञात और अज्ञेय है, गणित वह प्रक्रिया है, जिससे बीज जागृत और व्यक्त हो उठता है।"
मन ही मन अपने अद्भुत् शिक्षकों को प्रणाम किया, और मैं वहाँ से चला आया।
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