आत्मतत्व की विलक्षणता
(पात्रता और अधिकारी)
--
यमराज नचिकेता की परीक्षा करने के बाद उसे सुयोग्य पात्र / अधिकारी शिष्य की तरह जानकर गूढ आत्म-तत्त्व के रहस्य का उपदेश देते हुए आगे कहते हैं --
एतच्छ्रुत्वा संपरिगृह्य मर्त्यः
प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।।
स मोदते मोदनीय्ँ हि लब्ध्वा
विवृत्ँ सद्य नचिकेतसं मन्ये।।१३।।
एतत् श्रुत्वा संपरिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यं-अणुं-एतं-आप्य। सः मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये।।
नचिकेता! इस आत्म-तत्त्व के रहस्य को योग्य आचार्य से ध्यान से सुनकर, और इसके सूक्ष्मतम धर्म्य -- आचरण में जिसका अनुष्ठान किया जाता है उस अणुमात्र धर्म को - शरीर मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार अर्थात् अन्तःकरण-चतुष्टय से भी नितान्त पृथक् समझ लेने पर, मर्त्य (मनुष्य) आत्मा के स्वाभाविक आनन्द को प्राप्त कर उस परम आनन्द में डूब जाता है।
हे नचिकेता! मैं मानता हूँ कि इस प्रकार के तुम्हारे जैसे पात्र अधिकारी के लिए मानों मोक्ष के द्वार खुले हुए हैं।
तब नचिकेता प्रसन्न होकर यमराज से प्रार्थना करता है :
अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात्।।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद।।१४।।
अन्यत्र धर्मात् अन्यत्र अधर्मात् अन्यत्र अस्मात् कृत-अकृतात्। अन्यत्र भूतात् च भव्यात् च यत् तत् पश्यसि तत् वद।।
हे आचार्य! जिस ऐसे तत्त्व को आप देखते हैं, जो धर्म से और अधर्म से भी विलक्षण है, जो कृत (कर्म) और अकृत (अकर्म) से भी विलक्षण है, जो कि कर्म से और अकर्म से भी विलक्षण है, और इसी प्रकार जो अतीत और भावी से भी विलक्षण है, कृपया उस तत्त्व के संबंध में मुझसे कहें।
नचिकेता की प्रार्थना का प्रत्युत्तर देते हुए आचार्य यमराज तब उसे उस विलक्षण अविकारी, अविनाशी, और नित्य, सनातन और अव्यय आत्म-तत्व का उपदेश देते हैं जिसका उल्लेख वेद, ॐकार पद से करते हैं।
***
No comments:
Post a Comment