श्रद्धा त्रिविधा भवति
--
उसके 'नोट्स' पढ़ते हुए याद आया, वह कितना निश्छल था। वह महत्वाकाँक्षी भी अवश्य ही था, महत्त्वाकाँक्षा का जन्म उसमें स्वार्थबुद्धि के कारण नहीं बल्कि सिर्फ इसलिए हुआ था, क्योंकि वह आदर्शवादी भी था, और उसकी यह महत्त्वाकाँक्षा मूलतः उसके आदर्शों से उत्पन्न हुई सिद्धान्तवादिता का ही परिणाम थी।
वह पूछ रहा था : "क्या आदर्शवादी होना गलत है?"
क्या आदर्शवादी होने का अर्थ यही नहीं है कि मन "जो है", उसे जाने और समझे बिना ही उसका मूल्याँकन कर रहा है, उसके औचित्य और अनौचित्य को तय कर रहा है, और स्मृति के आधार पर, -जो होना चाहिए, उसका आग्रह कर रहा है?
वह बहुत देर तक चुप रहा। वह मेरी बातें सुन तो रहा था किन्तु बहुत सावधान भी था कि मेरी बातों का प्रत्युत्तर कहीं वह स्मृति से उत्पन्न प्रतिक्रिया से न देने लगे। वह बहुत शान्तचित्त था। खिड़की से बाहर, शाम की धूप वृक्षों की फ़ुनगियों पर सोना उँडेल रही थी। पर "सोना उँडेल रही थी" ऐसा कहना भी तो "जो है" उस पर एक टिप्पणी ही तो है! लगता है शायद इसीलिए कहा जाता है :
"All art is imitation."
ऐसा करना, "जो है" उसका वर्णन करते हुए एक सीमा तक तो उसे व्यक्त और प्रतिबिम्बित भी कर सकता है, किन्तु इस तरह "जो है" उससे अलंघ्य दूरी भी बना लेता है, क्योंकि "जो है" अकथ्य, अनिर्वचनीय है, और भाषा की परिसीमा में नहीं बँध सकता।
"क्या आदर्शवाद श्रद्धा ही नहीं होता?"
"क्या सत्य की प्राप्ति के लिए श्रद्धा का होना आवश्यक नहीं है?"
"सत्य क्या कोई नवीन वस्तु है, जिसकी प्राप्ति की जाना है? क्या असत्य का निवारण और निराकरण ही, सत्य के उद्घाटन के लिए पर्याप्त नहीं होता?"
वह फिर लंबे समय तक चुप रहा।
"लगता है कि "विचार", कितना भी श्रेष्ठ क्यों न हो, सत्य को तत्क्षण ही आवरित कर लेता है, उसके सहज दर्शन में अवरोध बन जाता है, जबकि स्मृति से उत्पन्न किसी भी विचार-मात्र से नितान्त रहित, ध्यानपूर्ण अवधान / (attention), - "जो है" का मूल्याँकन न करते हुए ही अनायास उसे जान लेता है। जाहिर है कि यह "जानना" कोई बौद्धिक जानकारी नहीं, बल्कि सत्य का, अर्थात् - "जो है" का नित नवीन आविष्कार है।
श्रद्धा भी विचार की ही उत्पत्ति है। विचार ही आदर्शों को परिभाषित, स्थापित करता है और मनुष्य अपने आपको (या अपनी कल्पित स्व-प्रतिमा) को आदर्शों के अनुरूप किसी मानसिक छवि में ढालने का यत्न करने में संलग्न हो जाता है।"
मुझे याद आया :
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो योत्रयच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।
(अध्याय १७)
श्रद्धा इसलिए तीन प्रकार की - सात्विक, राजसिक और तामसिक होती है :
त्रैगुण्यविषयावेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।४५।।
(अध्याय २)
***
No comments:
Post a Comment