July 30, 2023

The Mediocrity

आम आदमी

आम आदमी के बारे में वह भी सोचता था और इसलिए भी उसका अध्यात्म और धर्म के उस प्रकार पर भरोसा नहीं जो कि आम आदमी की मानसिकता के सन्दर्भ में सामाजिक स्तर पर दिखाई देता है। उसके इस चिन्तन में उसे किसी ईश्वर की मान्यता भी अनावश्यक प्रतीत होती थी। 'नोट्स' में उसने आगे लिखा था :

सांख्य-दर्शन की दृष्टि से भी किसी ईश्वर के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं हो सकता है। इसी तरह चूँकि ईश्वर के 'न होने' को भी प्रमाणित नहीं किया जा सकता, इसलिए और जैसा कि योग-दर्शन समाधिपाद में औपचारिक रूप से 'ईश्वर' को परिभाषित करते हुए कहा गया है :

ईश्वरप्रणिधानाद्वा।।२३।।

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः।। 

-- ।।२४।।

उसका संशय निराधार है, यह भी नहीं कह सकते।

उसने आगे लिखा था, फिर :

ईश्वर-अंश जीव अविनाशी।।

इस उद्धरण के अर्थ की व्याख्या भी भिन्न भिन्न प्रकार से की जा सकती है और किसी पुरुष-विशेष के 'ईश्वर' होने के मत को अकाट्य सत्य की तरह कैसे स्वीकार किया जा सकता है? और 

"जीव ईश्वर का ही अंश है, क्या यह भी वैसे ही सत्य नहीं है, जैसे कि :

"ईश्वर जीव का ही अंश है?" 

याद आया महर्षि रमण कृत 'उपदेश-सारः' :

ईशजीवयोर्वेषधीभिदा।।

सत्सवरूपतः वस्तुकेवलम्।।

इसका तात्पर्य यह कि मनुष्यों की अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार ईश्वर और जीव के बीच भेद या अभेद होने की, जैसी भी कल्पना हो, दोनों ही मूलतः एकमेव सत् के ही दो रूप हैं। इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं हो सकता है कि वैसे उसका झुकाव 'सांख्यनिष्ठा' की ही ओर अधिक था, किन्तु जब तक वह न पूछता, इस बारे में मैं उससे कैसे कुछ कह सकता था? ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि जिसे ईश्वर कहा जा सकता है वह एक मान्यता है या अनुभव, भावना है या अनुभूति, इन्द्रियगम्य-मनोगम्य, या बुद्धिगम्य कोई विषय है, अपने से भिन्न या अभिन्न दूसरी कोई सत्ता। ईश्वर के विषय में स्वयं मुझे भी यह दुविधा है क्योंकि वह जीव की ही तरह "प्रभु" और "विभु" दोनों ही है, जैसा कि गीता में अध्याय 5 के निम्नलिखित श्लोकों में वर्णन किया गया है :

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

अर्थात् अपने हृदय में उत्पन्न इस अज्ञान को जिसने ज्ञान से नष्ट कर दिया है, उसके लिए वह परम-तत्व परमात्मा या परमेश्वर, आदित्य अर्थात् सूर्य जैसा प्रत्यक्ष हो जाता है।

"इसलिए भी ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं इसे मान्यता या तर्क-वितर्क से नहीं जाना जा सकता है।"

यह उसका निष्कर्ष था। 

उसके 'नोट्स'  में यह सब पढ़कर सुखद आश्चर्य हुआ।

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