July 17, 2023

जीवन का उत्स

'नोट्स'  : क्रमशः 3,

"सफलता" का मद क्या है?"

इसे कोई कैसे जान सकता है?

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

(अध्याय ७)

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्राणिमात्र जन्म से ही इच्छा और द्वेषरूपी द्वन्द्व और मोहित बुद्धि से युक्त होता है। फिर "मैं" उसका अपवाद कैसे होता?

हाँ कूर्म, कच्छ, वराह, नृसिंह, वामन, भार्गव, राम, कृष्ण-बलराम और कल्कि अवश्य ही अवतार होते हैं इसलिए उनका "अवतरण" होता है न कि "जन्म"। यहाँ "बुद्ध" की गणना नहीं की गई है क्योंकि "बुद्ध" यद्यपि अवतार हो सकते हैं, किन्तु उनके अनुयायी ही इसे स्वीकार नहीं करते। "ब्राह्मण" यद्यपि उन्हें "अवतार" मानते हैं, बौद्ध परंपरा वेद-विरोधी होने से अवतारवाद के "सिद्धान्त" से सहमत नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से "कृष्ण" के ही साथ  "बलराम" को भी "विष्णु" का अवतार माना जाता है। यही दोनों और उनकी बहन सुभद्रा को वैसे ही अवतरित माना जाता है, जैसे राम के साथ लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न  और सीता को भी क्रमशः "विष्णु" और "लक्ष्मी" के ही रूप में "अवतार" माना जाता है। इस दृष्टि से "बलराम" और "बुद्ध" एक दूसरे के विकल्प, और "विष्णु" के नवें "अवतार" हो सकते हैं।

"सफलता" का मद उसी सम्मोह का परिणाम है जो कि मनुष्य में इच्छा तथा द्वेष का कारण होता है। "अवतार" तो विधि के विधान के अनुसार किसी विशेष प्रयोजन के लिए मनुष्य या अन्य आकृति में प्रकट और विलुप्त होते हैं। मैंने भी एक सामान्य मनुष्य की तरह जन्म लिया, तो मैं भला "सम्मोह" से कैसे बच सकता था?

इसलिए मुझे कार्य-कारण के सिद्धान्त की संकीर्णता या मर्यादा का आभास है।

मेरे शीशमहल पर पत्थर फेंककर किसी ने उसे चूर-चूर कर दिया इससे मुझे दुःख तो हुआ, परन्तु खिन्न कदापि नहीं हुआ। उस दुःख के बाद दुःखों से मुक्ति भी हो गई।

जब तक मनुष्य इच्छा और द्वेष से युक्त होता है तब तक वह भाग्य और भाग्य विधाता के हाथों का खिलौना होता है। और इच्छा तथा द्वेष, मोहित बुद्धि की डोर में बाँधकर उसे नियंत्रित और संचालित करते रहते हैं।

भाग्य और भाग्य विधाता, एकमेव वास्तविकता के ही दो पक्ष हैं। किन्तु मोहित बुद्धि से ग्रस्त होने से उन्हें परस्पर  एक दूसरे से अलग मान लिया जाता है।

हर मनुष्य इसी प्रकार से अपना जीवन जीता रहता है। और इतना ही नहीं, यहाँ तक कि "ईश्वर" / "अवतार" स्वयं भी विधि के विधान से संचालित होता है, किन्तु उसके लिए यह लीला या नाटक होता है, जबकि मनुष्य और दूसरे भी सभी जीव अपनी बुद्धि से मोहित होने के कारण अपने आपको अपने संसार में, संसार से पृथक्  उसका ही एक ऐसा अंश मान लेते हैं जिसकी स्वतंत्रता सीमित है। "ईश्वर" और "अवतार" इस मान्यता से रहित होते हैं।

इसलिए "ईश्वर" का इष्ट-रूप में स्मरण, चिन्तन, मनन और प्रणिधान से मनुष्य अन्ततः उससे अपनी अनन्यता को जान लेता है। पातञ्जल योगसूत्र, समाधिपाद-२३ :

ईश्वर प्रणिधानाद्वा ।।

में यही कहा गया है।

जब कोई चेतन अस्तित्व जीव-भाव से तादात्म्य कर लेता है और अपने स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होने की बुद्धि को अपने इष्ट "ईश्वर" के प्रति समर्पित कर देता है, तो अनायास ही जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है।

इसलिए अध्यात्म के किसी जिज्ञासु के लिए परम श्रेयस् की प्राप्ति के लिए दो ही प्रकार की निष्ठाएँ हो सकती हैं :

लोकेऽस्मिन्द्विधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

मैं इच्छा और संकल्प के द्वन्द्व में झूलता हुआ इस तथ्य को भूल रहा था। यही "सफलता" का मोह और मद था, जिसका उस पत्थर फेंकनेवाले ने निवारण कर दिया।

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