निष्ठाएँ और विवेक
सफलता के मद (नशे) में चूर मैं तब तक आगे बढ़ता रहा जब तक कि रास्ते के पत्थरों से ठोकरें खाकर और काँटों से मेरे दोनों पैर छिलकर लहूलुहान नहीं हो गए।
उसी रास्ते पर उस पत्थर ने भी मेरा स्वागत किया जिसने मेरे काँच के महल पर आघात किया था। मेरा वह काँच का महल जब ध्वस्त हो चुका तो मेरा ध्यान पत्थर फेंकने वाले पर गया और मन में प्रतिशोध की ज्वाला भड़कने लगी। युगों जैसी लंबी एक पूरी रात भर मैं व्याकुल रहा। सुबह होने से जरा पहले नींद आ गई और मन से सारा मैल आँखों की राह बहकर निकल गया। दूसरे ही दिन मैं उससे मिलने गया। वह एक भला और सज्जन मनुष्य या कहें तो सन्त-पुरुष था। किन्तु जीवन भर जिन बहुत से सन्तों और धार्मिक व्यक्तियों से मैं अब तक मिला था उन सबसे इस अर्थ में बहुत अलग था कि अध्यात्म, ईश्वर या गुरु जैसे शब्दों का प्रयोग शायद ही कभी उसके मुँह से मैंने सुना हो।
पहली मुलाकात के लिए, बहाने से मैंने उसे अपने शिक्षा संस्थान में नौकरी देने का प्रलोभन दिया था। मुझे उसकी शैक्षिक योग्यता का अनुमान भी लगाना था। क्योंकि उस पर मैं एकाएक भरोसा भी नहीं कर सकता था। यह भी हो सकता था कि अनेक तथाकथित महान ज्ञानियों और विद्वानों की तरह वह भी कोरा बौद्धिक पण्डित भर हो। किन्तु पहले उसने मेरे उस संस्थान और वहाँ की शिक्षा प्रणाली का अवलोकन करना चाहा, जिसे मैंने भी खुशी खुशी स्वीकार कर लिया।
उसकी प्रतिक्रिया जानकर मैं सन्न रह गया। मेरे पैरों तले की धरती खिसक गई। फिर मुझे यह स्पष्ट हो गया, इसी बहाने से मेरा भाग्य मुझ पर मुस्कुराने जा रहा था। फिर मैंने तय किया, इससे मुझे बहुत कुछ सीखना है। तो मैंने उससे मिलना ठान लिया। उसने मुझे नहीं छोड़ा तो मैं भी अब उसे नहीं छोड़ूँगा। मन ही मन यह निश्चय कर लिया।
"मेरा मार्ग क्या है?"
उससे मिलते ही मैंने सवाल दागा।
"कहाँ जाना है आपको?"
"गीता में परम श्रेयस् की प्राप्ति के लिए दो ही प्रकार की निष्ठाओं का उल्लेख किया गया है। एक तो सांख्यनिष्ठा, दूसरा निष्काम कर्म करते हुए अपना सब कुछ ईश्वरार्पित कर देना। मेरे लिए कौन सा ठीक है?"
"दोनों ही मार्गों पर चलकर एक ही फल प्राप्त होता है, किन्तु दोनों ही मार्गों पर चलने का सामर्थ्य बुद्धि से नहीं, विवेक के जागृत होने पर ही होता है। और विवेक के भी क्रमशः दो रूप होते हैं :
बुद्धि के प्रयोग से नित्य और अनित्य के भेद को जानना, और इस प्रकार से जानने के बाद 'सत्' और 'असत्' के भेद पर ध्यान देना।
सत् "जो है।" -- "What Is",
असत् "जो प्रतीत होता है।" -- "What appears and subsequently disappears".
नित्य और अनित्य के भेद को तो रुचि होने पर बच्चा भी समझ सकता है किन्तु 'सत्' और 'असत्' के भेद को तो सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ही समझा जा सकता है। जो कि संसार के प्रति अत्यंत और दृढ वैराग्य हो जाने के बाद ही संभव है।"
"संसार के प्रति ऐसा वैराग्य किस प्रकार से जागृत किया जा सकता है?"
"चिन्तन, मनन और निदिध्यासन से।"
"विस्तार से बताइये!"
"जैसा पहले कहा, नित्य और अनित्य के भेद को तो एक बच्चा भी जानता है, किन्तु वह 'जानना' बौद्धिक समझ है। इस भेद पर निरंतर चिन्तन करना और यह जान लेना कि समस्त दृश्य पदार्थ जड और अनित्य हैं, जबकि उन्हें जाननेवाला दृष्टा 'चेतन' अर्थात् चित् / चित्त स्वप्रमाणित है और जो कि अपना प्रमाण भी स्वयं है, यही नित्य है। यही सूक्ष्म बुद्धि है। किन्तु इसी सूक्ष्म बुद्धि के शुद्ध और एकाग्र होने पर जो प्रकाश बुद्धि में फैलता है वह विवेक है।"
मुझे पातञ्जल योगसूत्र साधनपाद याद आया :
योगाङ्गानुष्ठादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।२८।।
और मैंने तुरन्त ही उत्साहपूर्वक इस योगसूत्र का उल्लेख उसके समक्ष कर दिया।
उसने मेरा उत्साहवर्धन करते हुए कहा :
"हाँ, पातञ्जल योगदर्शन के संदर्भ में ऐसा कह सकते हैं कि धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम से किसी वृत्ति के निरोध परिणाम, एकाग्रता परिणाम, समाधि परिणाम के सिद्ध होने पर,
"त्रयमेकत्र संयमः।।४।।"
(विभूतिपाद)
के अनुसार चिन्तन, मनन और निदिध्यासन के संयुक्त हो जाने पर यही दोषरहित बुद्धि, विवेक-ख्याति के रूप में प्रकट हो उठती है।"
यह सुनते ही मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मुझे स्वयं की अपनी निष्ठा की परीक्षा करने का अवसर अनायास ही मिल गया।
क्योंकि जिसे मैं "निर्वेद" की तरह समझ रहा था, उसकी वास्तविकता मुझ पर प्रकट हो चुकी थी। बुद्धि में स्थित "ईश्वर", "मैं" / "आत्मा" और "गुरु" के कल्पित भेद का पूर्णतः निवारण हो चुका था।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २)
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